अग्नि आलोक
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याद किया दिल ने कंहाँ हो तुम?

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी सन 1963 में प्रदर्शित फ़िल्म दिल एक मंदिर का गीत गुनगुना रहे थे।
इस गीत को गीतकार शैलेंद्रजी ने लिखा है।
इस गीत के याद आने का कारण वर्ष बीत रहा है। बीते वर्ष को याद करते हुए कुछ संस्मरण मानस पलट पर उभर आए।
इसलिए उक्त गीत का स्मरण हुआ।
याद न जाए, बीते दिनों की
जा के न आये जो दिन
दिल क्यूँ बुलाए

फ़िल्म में उक्त गीत भावनात्मक परिस्थिति (Situation) पर लिखा गया है। फिल्मों की समूची कहानी ही कल्पनातीत होती है।
व्यवहारिक जीवन में तो, बीते दिनों की याद आते ही आमजन के अच्छेदिनों की उम्मीद पर पानी फिर जाता है,और दिन में तारे नज़र आने लगतें हैं।
दिल एक मंदिर यह टाइटल सिर्फ फिल्मों के लिए हो सकता है।
शरीर में दिल की धड़कन ही तो मानव के जीवित होने का प्रमाण है।लेकिन दिल जबतक आमजंन की पीड़ा देख कर धड़कता नहीं है,तबतक वह “पत्थर दिल” ही कहलाता है।
गीत में बीते दिनों के महत्व को रेखांकित करते हुए कल्पना की गई है कि,
दिन जो पखेरू होते पिंजरे में
मै रख देता
पालता उनको जतन से
मोती के दाने देता
सिने से रहता लगाए

वास्तव में आमजन का एक एक दिन बामुश्क़िल कट रहा है।
गीत में दिन को पखेरू की उपमा देते हुए,कहा गया है कि, पिंजरे में रखना आसान होता है।
वर्तमान में आमजन एक अदृश्य पिंजरे ही तो बंद है। आमजन में जो मध्यमवर्गीर हैं,उनकी स्थिति तो ऐसी ही है कि, ना तो पीड़ा सहन हो रही है,ना ही पीड़ा को बयाँ किया जा सकता है।
गरीब पर तो मुफ्त अनाज की अनुकंपा है।
मोती के दाने सिर्फ चंद सरमायेदारों को ही मुहैया हो रहें हैं।
एक बात एकदम स्पष्ट है कि अच्छेदिन निश्चित आएं हैं।
अच्छेदिन उन लोगों के आएं हैं, जो बैंकों से ऋण लेकर बगैर आवाज किए डकार लेने में माहिर होतें हैं?
आमजन बेचारा भरपेट खा पाएगा तब तो डकार ले सकेगा?
सच में कलयुग में गंगा उल्टी बह रही है। गांधीजी के देश में गांधीजी के तीन बंदर सांकेतिक संदेश दे रहें हैं, झूठ बोलो, झूठ ही सुनो और झूठ ही देखों,और अदृश्य पिंजरे में बंद रहो?
बीते दिनों की याद सच में जाती ही नहीं है।
महामारी का वह भीषण दौर याद आतें ही रौंगटे खड़े हो जातें हैं।
अपराधियों पर बहुत ही प्रशंसनीय कार्यवाही बुलडोजर के द्वारा की जा रही है।
आमजन तो अदृश्य पिंजरे में भय नामक बुलडोजर से स्वयं के सपनों को रौंदेते हुए देखने पर मजबूर है।
इन मुद्दों पर विचार करने पर बीते दिनों की याद कैसे जा सकती है?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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