डॉ. विकास मानव
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*पूर्व कथन :*
आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है.
मेरा स्पस्ट और चुनौतीपूर्ण उद्घोष है : *”बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें”.*
आप अदृश्य को और उसकी शक्तियों को अविश्वसनीय मान बैठे हैं, क्योंकि इनके नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों, कथित गुरुओं की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः प्राच्य विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.
_सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में विज्ञान स्वीकार कर चुका है. आत्माओं के फोटो तक लिए जा चुके हैं._
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_जीवन के विधान में ही मृत्यु का स्थान बना हुआ है–यह मानव तब से जानता है जब से उसने मृत्यु को एक घटना के रूप में देखा होगा। समस्त प्राणी जगत मृत्यु के मार्ग से एक-न-एक दिन गुजरता है, उसकी प्रचण्ड यातना को सहन करता है लेकिन यह मनुष्य का एकाधिकार है कि उसे अपने अनुभवों को एक संदर्भ में देखने की बौद्धिक क्षमता प्रदान की गई है।_
इसलिए मृत्यु उसके लिए महज एक घटना ही नहीं, बल्कि कुछ और भी है। मृत्यु जहां एक ओर संसार का कटु सत्य है, वहीं दूसरी ओर यह एक असत्य भी है क्योंकि मृत्यु जीवन की समाप्ति नहीं, देहान्तरण है।
मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्व रहता है और जन्म से पहले भी उसका अस्तित्व था।
मनुष्य ने यह क्षमता अपने अन्दर विद्यमान बुनियादी शक्तियों का प्रयोग और उनका विकास करते हुए अर्जित की हुई है। कोई वस्तु जितनी भयावह होती है, मनुष्य के स्मृति-गह्वर में उसके लिए उतना ही गहरा स्थान होता है।
इसलिए शब्दों की भाषा में ‘मृत्यु’ से अधिक कारुणिक शब्द नहीं है। मृत्यु अर्थात एक साधारण सांसारिक व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण संहार है जिसके बाद कुछ भी शेष नहीं रहता। तभी तो सभी समुदायों में ‘हत्या’ को सबसे बड़ा और जघन्य अपराध माना गया है।
फिर भी क्या विचित्र बात है कि जब तक शरीर स्वस्थ है और उस स्वस्थ शरीर द्वारा जीवन के सुख लेने की क्षमता बनी हुई है, तब तक हम मृत्यु को याद नहीं करते। मृत्यु के सम्बन्ध में कुछ सोचते-विचारते भी नहीं और ‘मृत्यु’ क्या है ?-
-इस प्रश्न का उत्तर पाने का प्रयास नहीं करते, शायद इसलिए कि इसके चलते जीवन का सुख लेना ही सम्भव न हो।
यह समस्या बहुत अधिक जटिल है क्योंकि यह ज्ञान, अनुभव और स्मृति के साथ ऐसी धोखाधड़ी है कि युधिष्ठिर को यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देते हुए संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात यही लगी थी।
आज हम वैज्ञानिकों और परामनोवैज्ञानिकों के अनवरत प्रयास के फलस्वरूप मृत्यु से सम्बंधित अनेक रहस्यों से परिचित हो चुके हैं। फिर भी यह दावा नहीं कर सकते कि हमने मृत्यु के विधान को समझ लिया है, क्योंकि इसे समझने में ही सम्भवतः इस समस्या का हल छिपा हुआ है। हम यह भी जानते हैं कि मृत्यु के बाद भी जीवन का अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में शेष रहता है।
इसलिए सृष्टि हमारे लिए एक ऐसे सर्प की तरह है जिसकी पूँछ घूमकर उसके मुख से लगी हुई है। जीवन की विभिन्न अवस्थाएं और उनके पड़ाव विभिन्न सोपानों से होते हुए लौट कर वहीं आ जाते हैं, जहां से शुरुआत हुई होती है।
अर्थात जन्म और मृत्यु का चक्र ब्रह्माण्डीय जीवन के महाचक्र के भीतर अवस्थित एक छोटा-सा चक्र है हम जिसके ‘विषय’ हैं, नियन्ता नहीं। यही कारण है कि विचार के स्तर पर मृत्यु को दार्शनिक उदासीनता के साथ स्वीकार करते हुए हमें कोई दुविधा नहीं होती।
इसी बिन्दु पर हमें एक ऐसे महासत्य का दर्शन होता है जिसके आगे हम सभी अपने को निरुपाय पाते हैं।
यदि मृत्यु के बाद जीवन की संभावना है, उसका अस्तित्व है तो फिर अनेक सारे तथ्यों के बाद भी ‘आत्मा’ के अस्तित्व को अलग से स्वीकार करना पड़ेगा। जहां आत्मा का अस्तित्व है, वहां जीवन अवश्य है।
यदि मरणोपरांत भी आत्मा का अस्तित्व है तो वहां भी जीवन है, भले ही उसका स्वरूप कुछ भी हो।
बाल्यावस्था से ही मैं आत्मा के प्रति प्रबल जिज्ञासु रहा हूँ। बगल में हरिश्चन्द्र घाट [वाराणसी) का महाश्मशान है। कभी-कभी घण्टों श्मशान घाट की टूटी-फूटी, धूल से अटी सीढ़ियों पर बैठकर, गाल पर हाथ धरे सामने धधकती हुई चिताओं को जलते हुए देखता रहता था मैं।
उसी समय मन में आत्मा सम्बन्धी विचार उठते और उत्पन्न होती तरह-तरह की जिज्ञासाएँ भी। तभी मेरे जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसके फलस्वरूप आत्मा के अस्तित्व को पूर्णरूप से स्वीकार करना पड़ा मुझे।
उस समय मेरी आयु यही रही होगी 20-22 वर्ष के लगभग। मेरे दादाजी साधु-सन्यासियों के भक्त थे। स्वयं उनका भी जीवन सन्यासियों जैसा ही था। सम्भवतः इसी कारण साधु-सन्यासियों के प्रति उनके मन में आकर्षण रहा होगा।
प्रायः नित्य ही दो-चार साधु-सन्यासी उनसे मिलने के लिए चले आया करते थे घर पर। सभी को दादाजी प्रेम से भोजन कराते और वस्त्र देते। इस कार्य में उन्हें बड़ी ही शान्ति मिलती। प्रसन्न भी होते खूब, लगता था जैसे ‘राजसूय’ यज्ञ का पुण्य प्राप्त हो गया हो उन्हें।
*क्या वह किसी अशरीरी आत्मा का आवाहन था ?*
_सावन का महीना था, पानी बरस रहा था, दोपहरी ढल चुकी थी। उसी समय एक युवा साधु पानी में भीगता हुआ आ गया दरवाजे पर। घर पर कोई नहीं था।_
दादाजी गांव गए हुए थे। उस समय मैं था और मेरा एक मित्र था–प्रभाकर। साधु सांवले रंग का था। आयु 30-35 के लगभग रही होगी। लम्बी-चौड़ी काठी का शरीर, घनी दाढ़ी-मूँछ और सिर पर काले घने घुंघराले बाल। बड़ी-बड़ी तेजस्वी आंखें, घनी भौंहें, चेहरे पर गहरी शान्ति और निर्लिप्तता की झलक, शरीर पर केवल एक लुंगी और हाथ में एक लोटा बस और कुछ नहीं.
साधु कुछ देर खड़ा देखता रहा चारों ओर, फिर मृदु और शिष्ट स्वर में बोला–साधु भूखा है, दो रोटी मिल जाएं ?
मैं कुछ उत्तर दूँ, इससे पहले प्रभाकर बोल पड़ा–बाबा ! पेट भरने का कितना अच्छा तरीका है। बोलो..पेट भरने के लिए क्या दोगे ?
साधु क्या दे सकता है बेटा ? उसके पास है ही क्या ?
_तो तुम साधु हो ? इसका क्या सुबूत है कि तुम अच्छे साधु हो, बने हुए धोखेबाज नहीं ? अगर तुम सच्चे साधु हो तो कोई चमत्कार दिखलाओ अपना–यह कहकर प्रभाकर ने चुभती दृष्टि डाली साधु पर।_
साधु तनकर खड़ा रहा निर्विकार पहले की तरह। फिर संयत स्वर में बोला–साधु क्या चमत्कार दिखला सकता है ? चमत्कार तो दिखलाने वाला परमात्मा है। वही तरह-तरह के चमत्कार करता रहता है संसार में। हम कौन हैं, कोई भी नहीं। क्या तुम्हारा जन्म लेना चमत्कार से कम है ?
प्रभाकर खिलखिला कर हँस पड़ा। उसका इस तरह हंसना थोड़ा बुरा लगा मुझे। हँसते हुए बोला वह–क्या ही अच्छा बहाना है। लेकिन यदि कोई ईश्वर को न मानता हो तो ?
साधु की जैसे तन्द्रा भंग हो गयी। गम्भीरता से अपने शब्दों पर वजन देकर वह बोला–कौन ईश्वर को नहीं मानता, सभी मानते हैं। देर-सवेर सभी उसकी अधीनता स्वीकार कर लेते हैं।
ईश्वर होगा, लेकिन मैं उसे नहीं मानता। तुम अपने को परमात्मा के भक्त कहते हो, तब क्यों नहीं उसका कोई सुबूत दिखाते, चमत्कार दिखाते। यदि ऐसा नहीं कर सकते हो तो मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर ही दे दो….दे सकते हो क्या ?
इस प्रकार प्रभाकर का साधु से वाद-विवाद करना अच्छा नहीं लग रहा था मुझे। इसे साधु का अपमान समझ रहा था मैं। मौन रहना ही उचित समझा मैंने। मैं प्रभाकर के स्वभाव को जिद्दी, अड़ियल और बिना सोचे-समझे बोलना मानता था।
उसी समय मेरा एक और मित्र शशिकांत भी वहां आ पहुंचा। जैसा प्रभाकर, वैसा ही शशिकांत भी था, लेकिन शशिकांत थोड़ा समझदार और बुद्धिमान था।
साधु कुछ देर मौन साधे कुछ सोचता रहा। कभी-कभी प्रभाकर की ओर आँख उठाकर देख लेता, फिर बोला–
_बेटे ! तुमको ईश्वर पर विश्वास नहीं है। अच्छा, उसी के एक छोटे रूप ‘आत्मा’ को तुम्हारे सामने बुलाता हूँ। जो कुछ तुमको पूछना हो, उससे पूछ लेना।_
यह अप्रत्याशित था, मैं सकते में आ गया। अब तक शशिकांत भी सारी स्थिति समझ चुका था। साधु से वह बोला–इसके लिए क्या करेंगे आप ?
देखो ! क्या कर सकता हूँ मैं ! पहले मुझे एक बड़ा-सा आईना और दो बड़ी मोमबत्तियां लाकर दो।
इस बार प्रभाकर थोड़ा उत्तेजित होकर बोला–आप करना क्या चाहते हैं ?
तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए मैं आत्मा का आवाहन करना चाहता हूँ–साधु ने गम्भीर स्वर में उत्तर दिया।
यह सुनकर हम सब लोग स्तब्ध रह गए और आंखें फाड़-फाड़ कर एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। लेकिन बात इतनी आगे बढ़ चुकी थी कि अब विवश हो गए थे। अब तक वह साधु कमरे के भीतर आकर अपना आसन जमा चुका था। अभी भी उसका चेहरा पहले की तरह गम्भीर था।
मेरे घर में एक बड़ा-सा बेल्जियम के कांच का आईना था। मैंने उसे लाकर साधु के सामने रख दिया और साथ ही दो मोमबत्तियां भी.
प्रभाकर और शशिकांत कमरे में एक ओर चुपचाप मौन साधे बैठे थे और साधु की सारी गतिविधि देख रहे थे। उस समय कमरे के वातावरण में एक विचित्र-सी निस्तब्धता छाती जा रही थी धीरे-धीरे। मुझे भी कुछ अजीब-सा लग रहा था।
कभी-कदा आंखें घुमाकर देख लेता था साधु की ओर। साधु अपने आप में लीन था। उसने पहले पानी से आईने को खूब साफ किया और फिर उसे दीवार से सटाकर खड़ा कर दिया तथा उसके दोनों ओर मोमबत्तियां जलाकर रख दीं जिनकी रोशनी आईने में साफ दिखलायी पड़ रही थी।
आईने के ठीक सामने पद्मासन लगाकर साधु बैठ गया तनकर और अपने दाएं-बाएं प्रभाकर और शशिकांत को बैठने का संकेत कर दिया।
मैं एक ओर खड़ा होकर तटस्थ भाव से देख रहा था साधु की लीला। वातावरण भारी होता जा रहा था धीरे-धीरे और उसके साथ ही बढ़ती जा रही थी निस्तब्धता भी।
आखिर रहा न गया मुझसे। मैंने साधु के और निकट जाकर विनम्र स्वर में कहा–महाराज ! इससे पहले कि आप कोई प्रयोग करें, मैं अपने अज्ञान के लिए आपसे क्षमा मांगता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि इस प्रयोग में कोई खतरा हो तो आप इसे स्थगित ही कर दें।
साधु ने अपना सिर घुमाकर मेरी ओर देखा और गम्भीर स्वर में कहा–नहीं, इसमें कोई खतरा नहीं।
लेकिन क्या मैं पूछ सकता हूँ–यह क्या है ?
_यह ‘आत्माकर्षणी’ विद्या है। इस विद्या का सम्बन्ध किसी तन्त्र-मन्त्र से नहीं है। यदि सम्बन्ध है तो ‘मन’ से है।_
मन में अगाध शक्ति है–युवा साधु बोला–मन के एकाग्र होने पर उसकी शक्ति अपने-आप प्रकट हो जाती है। तुमको यह बतला देना चाहता हूँ कि मानव मन से सभी प्रकार की मृतात्माओं और विदेही आत्माओं का सम्बंध अदृश्य रूप से जुड़ा रहता है। उनमें से ऐसी बहुत-सी आत्माएं होती हैं जो मानव मन को अपने प्रभाव में लेकर उससे अपनी इच्छानुसार कार्य कराती हैं।
मन के माध्यम से किसी भी व्यक्ति से कार्य लेकर अपने स्वार्थ की पूर्ति कर लिया करती हैं। ऐसे व्यक्ति बहुत ही कम होते हैं जो अपनी इच्छा की पूर्ति अपने मन से करते हों। तुमको यह जान लेना चाहिए कि मनुष्य के चारों ओर न जाने कितनी अदृश्य मृतात्माएँ और अशरीरी आत्माएं हर जगह, हर समय चक्कर काटती रहती हैं और उसके मन पर डालती रहती हैं अपना अच्छा-बुरा प्रभाव जिससे अनजाने ही प्रभावित होकर वह कार्य करता रहता है।
मन के एकाग्र होते ही मन की जो शक्ति उत्पन्न होती है, वह शक्ति इच्छित आत्मा को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और उसके स्वभाव और आकार को प्रकट भी कर देती है। ऐसी आत्मा से उसके सामर्थ्य के अनुसार अपने किसी भी प्रश्न का उत्तर प्राप्त किया जा सकता है और अपनी किसी भी जिज्ञासा का किया जा सकता है समाधान भी, लेकिन उसके लिए चाहिए होता है–‘माध्यम’।
_यह जो आईना है, वह मेरे और आत्मा के मध्य ‘माध्यम’ है क्योंकि बिना किसी माध्यम के निराकार वस्तु साकार नहीं हो सकती। इन्हीं माध्यमों के रूप में मनुष्य, मन्त्र, यन्त्र और प्रतिमा का भी प्रयोग होता है।_
आवाहन के लिए आत्माओं का स्तर आवाहन कर्ता की केवल क्षमता और योग्यता पर निर्भर करता है। आत्मा निराकार है। उसे भौतिक आकार देने के लिए कोई-न-कोई भौतिक माध्यम होना चाहिए।
क्या मृतात्माएँ अपने परिवार के सदस्यों के आस-पास रहती हैं और उनका चक्कर काटती हैं ?
मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उस रहस्यमय साधु ने बतलाया–हाँ, इसमें सन्देह नहीं। मरने के बाद स्थूल शरीर तो अवश्य छूट जाता है, लेकिन मृतात्मा का अदृश्य शरीर वातावरण में काफी समय बना रहता है और उसका अपने परिवार के सदस्यों से सम्बन्ध भी नहीं छूटता। बहुत दिनों तक बना रहता है नाता-रिश्ता।
जिस मृतात्मा की इच्छा, कामना, वासना, अभिलाषा अधूरी रहती है (ज्यादातर अधूरी ही रहती है), उसे अपने परिवार के लोगों के माध्यम से पूर्ण करने का प्रयास करती है वह। यदि परिवार के लोगों के इस ओर ध्यान न दिए जाने पर प्रयास में सफलता नहीं मिलती है तो परिवार को चेतावनी देने का संकेत करती है, फिर भी न समझने पर परिवार को कष्ट देना शुरू कर देती है।
वह ऐसे-ऐसे वातावरण की सृष्टि करती है जिससे परिवारी लोग आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान हों।
*मृतात्मा का परिवार से संबंध कब तक ?*
जब तक मृतात्मा का मोह और आकर्षण अपने परिवार के प्रति समाप्त नहीं हो जाता अथवा उसका कहीं जन्म नहीं हो जाता–इतना कहकर साधु मौन साध गया।
मैंने भी आगे कुछ पूछना उचित नहीं समझा। लेकिन मेरे मन में उस समय आत्मा सम्बन्धी अनेक प्रकार की जिज्ञासाएँ उमड़-घुमड़ रही थीं। अब आगे क्या होता है–यह देखना-समझना चाहता था।
अब तक वह रहस्यमय साधु अपने चित्त को एकाग्र कर ध्यानस्थ हो चुका था। वातावरण और अधिक बोझिल हो गया था। बारिश बन्द हो चुकी थी लेकिन आकाश में बादल अभी भी छाये हुए थे।
सांझ की स्याह कालिमा बिखरने लगी थी चारों ओर। मैंने ध्यान से देखा–आईने में पड़ने वाली मोमबत्ती की हल्की-पीली रोशनी क्रमशः घनीभूत होने लगी। हम तीनों कभी साधु की मुखमुद्रा की ओर देखते तो कभी चमकते हुये आईने की ओर। प्रभाकर और शशिकान्त की क्या स्थिति थी–यह तो मैं नहीं जानता था, लेकिन मेरा मस्तिष्क भारी होता जा रहा था उस समय।
आईने पर पड़ने वाली मोमबत्तियों की परछाइयाँ अब भयावह लगने लगी थीं मुझे।
साधु अभी भी एकटक केवल आईने की ओर देख रहा था। अब तक पूरा एक घण्टे का समय बीत चुका था। प्रभाकर उतावला होकर साधु से कुछ कहने ही जा रहा था कि आईने की ओर देखकर एकबारगी चौंक पड़ा।
आईने पर पड़ने वाला मोमबत्तियों का प्रकाश क्षण-प्रति-क्षण अपना रंग बदलने लगा था–कभी लाल, कभी हरा, कभी पीला तो कभी नीला। मोमबत्तियों की ज्योति अपने-आप में स्थिर हो गयी थी और उसमें से निकलने वाली रोशनी पहले से अधिक तेज हो गयी, लेकिन बाद में धीरे-धीरे मन्द पड़ने लगी। प्रभाकर और शशिकान्त स्थिर भाव से बैठे हुए आईने की ओर ही देख रहे थे, लेकिन उन दोनों का चेहरा अब स्याह हो गया था। एकाएक आईने का रंग-विरंगा प्रकाश बीच में सिमटने लगा और आईने के चारों ओर का कांच पड़ने लगा था काला।
प्रभाकर ने सिर घुमाकर देखा। मैंने भी इस बदलाव को लक्ष्य किया। लेकिन उसका कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था। हम तीनों ने एक साथ साधु की ओर देखा–वह अब भी स्थिर दृष्टि से आईने की ओर देख रहा था
सांझ की स्याह कालिमा अब रात के अन्धकार में बदल चुकी थी और बारिश फिर शुरू हो गयी थी। कमरे का वातावरण पहले से अधिक बोझिल हो गया था। लगा–जैसे कोई अदृश्य मायावी शक्ति प्रकट होकर टहल रही है मेरे कमरे में। कमरे में प्रकाश जलाने के लिए पहले ही मना किया था साधु ने। सिर्फ मोमबत्तियों का प्रकाश बिखरा था कमरे में।
लेकिन अचानक दोनों मोमबत्तियां भी अपने आप बुझ गयीं और पूरा कमरा डूब गया एकबारगी अन्धकार में।
आईने के बीच सिमटने वाले प्रकाश ने अब तक एक बिन्दु का रूप धारण कर लिया था। कुछ क्षण बाद वह प्रकाश-बिन्दु एक डरावनी मानवाकृति में परिवर्तित हो गया जिसे देखकर प्रभाकर और शशिकान्त दोनों घबड़ाने लगे थे और कांपने लगे थे भय से। वैसी ही दशा कुछ-कुछ मेरी भी थी। लेकिन फिर भी संभाले हुए था अपने को मैं।
_कुछ ही क्षणों में उस मानवाकृति के स्थान पर मनुष्य का एक वीभत्स चेहरा प्रकट हुआ जो बिल्कुल स्पष्ट था और हिल-डुल रहा था। साधु अभी तक पाषाणवत बैठा था लेकिन अब उसके शरीर में भी हलचल होने लगी।_
उसने प्रभाकर की ओर देखकर कहा–आपको जो भी प्रश्न पूछना हो, आईने की ओर स्थिर दृष्टि से देखते हुए पूछ सकते हैं। प्रश्न का उत्तर आईने में लिख जाएगा। भय के कारण प्रभाकर ने कोई क्रिया नहीं की। वह चुपचाप कभी साधु की ओर तो कभी आईने में उभरे चेहरे की ओर देखता रहा।
साधु कुछ देर बाद फिर बोला–जो कुछ आप सबको पूछना हो तो उसे जल्दी पूछिये क्योंकि यह आत्मा अधिक समय तक रुक नहीं सकती। अब मैं आत्मा को जगाता हूँ।
तुरन्त ही ऐसा मालूम हुआ कि सब चीजों में जान आ गयी हो लेकिन आईने में उभरा चेहरा अपने स्थान पर स्थिर रहा। मैं अपने स्थान पर खड़े-ही-खड़े आईने में प्रकट हुए चेहरे की ओर ध्यान से देखने लगा–चेहरा वीभत्स तो था ही, इसके अतिरिक्त डरावना भी था। उसकी बड़ी-बड़ी गोल आंखें बाहर की ओर निकली हुई थीं और लाल थीं।
नीचे का जबड़ा काफी नीचे तक लटका हुआ था और बड़े-बड़े दांत बाहर की ओर निकले हुए थे। सब कुछ मिलाकर वह अति कुरूप, भयानक और रोमांचित कर देने वाला चेहरा था–इसमें सन्देह नहीं।
प्रभाकर से तो बोला ही न गया लेकिन शशिकान्त बोल उठा– मैं अपने पिताजी को देखना चाहता हूँ।
शशिकान्त की इच्छा सुनकर वह चेहरा अपने स्थान पर धीरे-धीरे हिला-डुला और फिर स्थिर हो गया। इसी के साथ आईने पर अंकित हो गया–आपके पिताजी श्रीनारायण मिश्र ने पुनर्जन्म ले लिया है और इस समय उनकी उम्र 13 साल है। उनका नाम त्रिभुवन अग्रवाल है।
लो, मिलो उनसे–इन अन्तिम शब्दों के साथ ही एक दुबला-पतला गोरे रंग का लड़का आईने में प्रकट हुआ। वह अपने कुछ बाल मित्रों के साथ अपने घर में कैरमबोट खेल रहा था उस समय। जन्म उसका बलिया में हुआ था और उसके पिताजी का नाम था–लोचन अग्रवाल। बाद में ये सब बातें भी लिखकर आ गयीं आईने में।
लड़के को देखकर शशिकान्त एकबारगी “पापा-पापा” कहकर चिल्लाने लगा जोर-जोर से। निश्चय ही उस लड़के में उसे अपने पिता की झलक मिल चुकी थी।
अब प्रभाकर से रहा न गया–मैं भी अपने मृत बड़े भाई से मिलना चाहता हूँ–एकाएक जोश भरे स्वर में बोल उठा वह।
प्रभाकर के शब्द सुनकर वह वीभत्स चेहरा अपने स्थान पर फिर हिला और उसी के बाद आईने में अंकित हो गया–आपके भाई का नाम लक्ष्मीकांत है। एक लड़की से उसका प्रेम हो गया था, लेकिन लड़की के माता-पिता को यह पसन्द नहीं था, इसलिए लड़की के भाई ने दूध में जहर दे दिया आपके भाई को।
असमय अकाल मृत्यु हो जाने के कारण अभी तक उसका पुनर्जन्म नहीं हुआ है, इसलिए इस समय गांव के ही श्मशान में, जहां पर उसकी चिता जली थी, भटक रहा है वह। लो मिलो !
इन शब्दों के साथ ही सबसे पहले आईने में गांव का श्मशान दिखलायी दिया। घोर निस्तब्धता बिखरी हुई थी श्मशान के वातावरण में। कोई चिता जलकर बुझ चुकी थी जिसकी गर्म राख से अभी तक धुएं की लकीर उठ रही थी। बगल में एक विशाल पीपल का पेड़ था जिसकी डालियों में यमघण्ट लटक रहे थे।
हम सभी ने स्पष्ट रूप से देखा–उस पीपल के नीचे कुर्ता-पाजामा पहने पागलों जैसी हरकत करता हुआ एक युवक इधर-उधर चक्कर काट रहा था। उसका चेहरा देखकर लगता था कि वह अत्यन्त कष्ट में है। “भैया…”–कहकर चीख पड़ा एकबारगी प्रभाकर। हाँ, वह युवक प्रभाकर का भाई ही था लक्ष्मीकांत। रोने लगा था अब प्रभाकर। किसी प्रकार शान्त कराया उसे। इस दृश्य के कारण वातावरण उदास हो गया था।
अब तक चुपचाप देख-सुन रहा था मैं। परिस्थिति से अवगत होने में देर न लगी थी मुझे। पूरा कमरा प्रेताविष्ट हो चुका था अब तक। मैंने आगे बढ़कर आईने की ओर देखते हुए उस आत्मा से कहा–अब आप जा सकते हैं। हम लोगों को और कुछ नहीं पूछना है।
देखते-ही-देखते आईने की रोशनी मन्द हो गयी। धीरे-धीरे आईने में धुँधलापन छाने लगा। मोमबत्तियों की रोशनी वापस लौट आयी।
शशिकान्त मेरी ओर देखकर बोला–तुमने आत्मा को वापस क्यों करवा दिया ? अभी तो समय था, कुछ और प्रश्न पूछे जाते।
मैंने तुरन्त कोई उत्तर नहीं दिया। कुछ देर ठहर कर गम्भीरता से कहा–पहले मैंने इसे एक मजाक समझा था, लेकिन बात मजाक की नहीं है।
वातावरण अचानक बोझिल हो गया था और भारी हो गया था हम लोगों का सिर भी। क्या उससे तुम लोगों ने कुछ नहीं समझा ? कहीं मजाक-ही-मजाक में कोई अनहोनी घट जाये तो क्या होगा ? जिस बात में अपनी पहुंच न हो, उसमें दखल देना उचित नहीं समझता।
लेकिन जब साधु महाराज हैं तो इसमें क्या खतरा हो सकता है ?
ठीक है, फिर भी मैं यह उचित नहीं समझता कि किसी बड़ी शक्ति के साथ सिर्फ मनोरंजन के लिए खिलवाड़ किया जाय और फिर इसकी आवश्यकता ही क्या है ?
मैंने साधु की ओर देखा तो पद्मासन की मुद्रा में पूर्ववत बैठा हुआ हम तीनों की ओर गम्भीरता से देख रहा था। कुछ देर तक हम तीनों में से कोई कुछ नहीं बोला। साधु ने प्रभाकर की ओर देखकर पूछा–तुम्हें और कोई प्रश्न करना है ?
नहीं महाराज ! सिर झुकाकर प्रभाकर ने उत्तर दिया और फिर थोड़ा रुककर विनम्र स्वर में कहा–भोजन करके जाईये महाराज !
नहीं।
क्या मेरा अपराध इतना बड़ा है ?
अपराध कुछ नहीं है। संसार में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिनको आत्मा-परमात्मा पर विश्वास नहीं होता। शायद तुम भी उनमें से एक हो। मैंने तुम्हारे सामने आत्मा का आवाहन किया, इसलिए नहीं कि तुम प्रसन्न होकर मुझे भोजन करा दो बल्कि इसलिए कि तुम्हें आत्मा-परमात्मा पर विश्वास हो जाये।
साधु आगे बोला–इस जीवन के बाद एक दूसरा जीवन भी है जिसे तुम स्वीकार नहीं करना चाहते थे। तुम्हारे इस भ्रम को दूर करना मैंने उचित समझा।
उस समय मैं मन-ही-मन सोच रहा था कि साधु की तरह मैं भी मन को एकाग्र कर आत्मा का आवाहन कर सकूँ तो कैसा रहेगा। अलौकिक जगत की बहुत सारी रहस्यमयी और तिमिराच्छिन्न बातें ज्ञात हो जाएंगी।
अचानक मैंने देखा कि साधु स्थिर दृष्टि से देख रहा था मेरी ओर साथ ही मन्द-मन्द मुस्करा भी रहा था वह। चौंक पड़ा मैं।
थोड़ी देर बाद साधु रहस्यमय ढंग से हँसा ‘हो-हो’ कर और एक झटके से घूमकर तेजी से कमरे के बाहर निकल गया और विलीन हो गया रात्रि के निविड़ अन्धकार में।
यह सब इतना अप्रत्याशित था कि साधु के जाने के बाद भी काफी देर तक हम तीनों गुमसुम बैठे रहे। उस अवस्था में सोच रहा था, अवश्य ही मेरे मन में कोई अजीव-सी अनजान खिचड़ी पक रही थी–जिसे साधु समझ गया था। तभी तो मेरी ओर देखकर हँसा भी था।
*अंग्रेज आत्मा :*
साधु के गम्भीर व्यक्तित्व का, उसके द्वारा किये गए आत्मा के आवाहन का और उसके द्वारा प्राप्त विवरण का मुझ पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा था कि प्रायः मन के विषय में और आत्मा के सम्बन्ध में ही सोचा-विचारा करता था मैं।
इस बात से मैं अच्छी तरह परिचित हो चुका था कि परामनोविज्ञान का विषय ‘अचेतन मन’ है। परामनोविज्ञान ही अचेतन मन की रहस्यमयी गुत्थियों को सुलझाने वाला एकमात्र विज्ञान है।
इसे संयोग ही कहा जायेगा कि अपने आप एक अंग्रेज आत्मा से मेरा संपर्क हो गया एकाएक और मनोविज्ञान और परामनोविज्ञान की गहराई में प्रवेश करने की दिशा में सहयोग भी उपलब्ध हुआ उससे।
उस अंग्रेज आत्मा से कैसे मेरा सम्पर्क स्थापित हुआ–यह भी अपने आप में रहस्यमय ही है। यह निश्चित है कि व्यक्ति जिस विषय में अधिक-से-अधिक सोच-विचार और चिन्तन-मनन करता है, उससे सम्बंधित आत्मा अदृश्य रूप से उस व्यक्ति से अपना सम्पर्क बना लिया करती है।
यही बात मेरे साथ भी हुई। मैं उन दिनों कलकत्ते में रह रहा था और बंगीय नाट्यकला से जुड़ा हुआ था। स्वभाव के अनुसार प्रायः नित्य सायंकाल नीमतल्ला के श्मशान में या फिर कभी मुस्लिम या ईसाइयों के कब्रिस्तान में बैठा करता था।
मन को एक अबूझ-सी शान्ति मिलती थी–ऐसी शान्ति जिसे बतलाया नहीं जा सकता।
उस दिन जिस कब्रिस्तान में बैठा था, वह निश्चय ही ईसाइयों का रहा होगा। सांझ ढल चुकी थी। एक गहरी उदासी बिखरी हुई थी कब्रिस्तान के मरियल वातारण में। चारों ओर सन्नाटा भी पसरा हुआ था और मैं उस सन्नाटे में गालों पर हाथ धरे चुपचाप मौन साधे बैठा था एक टूटे-फूटे मटमैले चबूतरे पर और तभी न जाने किधर से आकर लम्बी-चौड़ी काठी वाला वह अंग्रेज काला सूट पहने, सिर पर हैट लगाए और हाथ में चांदी की मूठ की छड़ी लिए मेरे बगल में बैठ गया।
_हम कोई संवाद करते, इसके पहले किसी ने मुझे आवाज दी. मैं पूछे मुड़कर देखा तो कोई नहीं था. पूर्व स्थिति में आया तो वह अंग्रेज भी वहां-कहीं नहीं था._