डॉ. विकास मानव
ऊधौ हम आजु भईं बड़ भागी।
जिन अँखियन तुम स्याम बिलोके
ते अँखियाँ हम लागीं॥
जैसे सुमन बास लै आवत
पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद होत है तैसे
अंग-अंग सुख रागी॥
ऊधौ हम आजु भईं बड़ भागी।।
उधो , प्रभु श्रीकृष्ण का अत्यंत प्रिय सहचर। उधो गोपियों को कृष्ण की ओर से ढ़ाढस बंधाता है. उधो कृष्ण के देहावसान के बाद अर्जुन तक उनका संदेश लाता है। अंत मे राधा से मिलता है और तब उसका कल्याण होता है।
ऋषिकुल की इस रहस्य कथा को व्याकरण से नही बल्कि योग और तन्त्र के उपादान से ही समझा जा सकता है।
हम सब अपने अपने उधो हैं. भगवान के भक्त, उनके अतिसय प्रिय। इतने प्रिय कि भगवान हमें भेजते गोपियों को सांत्वना देने।
कौन हैँ गोपियां?
गो = इन्द्रिय, दिव्य ज्योति, ब्रम्ह ज्योति।
पी = पीना; पान करना.
इन्द्रियों को बस मे करके जब ब्रम्हरस का पान करने के लिए हम उद्यत होते हैं तो गोपी कहलाते हैं, गोपी बन जाते हैं। गोपी कोई लड़की नहीं है। जब हम गोपी बन जाते हैं तब हमारे अंतर-ईश सारथी कृष्ण, गोपीनाथ कहलाते हैं. जब हम मायाओं के महा समर में, जीवन संग्राम मे निराश हो जाते तब हम मे से ही कोइ सांत्वना देकर हमे विजय पथ की ओर अग्रसर करता है और सम्भलने का मार्ग बताता है। वही तब उधो है।
वह भी हमारी तरह एक गोपी ही है, थोड़े उच्च स्तर का। हम सभी अपने अपने स्तर के गोपी हैं चाहे किसी भी संप्रदाय के हों। हमे सिर्फ सारथी कृष्ण यानी अपनी अंतर-आत्मा का ही सहारा है। आत्मज्ञान ही मुक्ति प्रदाता है; कोई कथा, भजन या कीर्तन आदि नहीं।
जिसने इन्द्रियों द्वारा अर्जित पराक्रम से ईश्वर कृपा प्राप्त कर के स्वयं को धन्नजय या सव्यसाची बना लिया है उस अर्जुन के माध्यम से कृष्ण उधो को अनोखा संदेश देते हैं।
अर्जुन दो भील लड़कों से हार जाता है। इंद्रियार्जित ज्ञान साधना के परम लक्ष्य मे सहायक नहीं हो पाता। गोपियां लूट ली जाती हैं। कृष्ण दिखला देते कि, देख उधो गोपियों को मेरे बिना कोई नही संभाल सकता।
हम उधो हैं। हमारी गति कृष्ण की जाग्रत शक्ति राधा है। अर्जुन की हार से अचम्भित उधो राधा से मिलता है। कहता है – “कृष्ण नही रहे, गांडीवधारी महारथी अर्जुन अपमानजनक पराजय को प्राप्त हुआ। अब मैं क्या करूँ, मेरा क्या होगा?”
लेकिन कृष्ण की जाग्रत शक्ति राधा तो कृष्ण ही है। राधा कौन है? जो राह दे वही राधा है।
राधा बोली – हे उधो! तुम सदा कृष्ण के साथ रहे, कभी मिले कृष्ण से?
कितना अजीब प्रश्न था। सदा कृष्ण के साथ रहने वाले से राधा पूछ रही – कभी मिले कृष्ण से?
उधो परेशान है। अब तो कृष्ण भी नही रहे। कैसे और किससे पूछे कि प्रभु के साथ रहकर मैं क्यों नही मिल पाया?
व्यथित हृदय द्रवित मन से उधो ने पुकारा – क्यों नही मिला मैं आपसे?
क्या होता आप से मिलना का मतलब?
किसको कहते हैं आपसे मिलना?
ये क्या पूछ रही है मुझसे राधा?
वो जो आपका साथ था, वह सब क्या था? कैसे होता आप से मिलना?
राधा मुस्कुरा उठी, बोली – उधो बहुत थक गये हो। जाओ यमुना मे मुह धो लो, थोडी थकान कम होगी।
उधो यमुना मे मुह धोने जाता है। जैसे ही जल मे झुकता उसे अपना चेहरा दिखाई देता है।
लेकिन यह क्या?
वह चेहरा तो श्री कृष्ण का था। परेशान उधो राधा की ओर दौरता है। परंतु कृष्ण की अह्लादिनी शक्ति राधा तो कृष्ण में लौट चुकी थी। मिलती कहाँ से?
उधो हंसने लगा – जानत तुमहि तुमहि होई जाई।
उधो कृष्ण बन गया था।
आत्मा हम सब मे विद्यमान है। सदा साथ है। लेकिन हम खुद को कभी नहीं जान पाते हैं। प्रतिदिन पूजा, पाठ, जप, तप, हवन,भजन आदि की पाखंडी नौटंकी करते रहते हैं। क्या कभी ईश्वर के साथ भी रहते हैं?
हम कभी भी ईश्वर से मिल नही पाते क्योंकि आचरण मे ईश्वर को नही ढ़ालते. ईश्वरत्व अर्जन की चेष्टा नही करते. आत्मस्थ नही होते. उसे अपने से दूर बाहर तलाशते रहते हैं। अन्दर उस आत्मरूपी कृष्ण, जो सारथी है हमारा उससे अद्वैत नही हो पाता। इसलिए कभी आत्म-दर्शन, आत्म-साक्षात्कार नहीं होता।
उधो = उद्भव = उत भव.
उत = उत्प्रेरित, उत्फुलित; भव = शिव.
उत्फुलित भाव से शिवत्व को प्राप्त होने का रहस्य उधो की कथा मे है। उधो अंत मे शिवत्व को प्राप्त होता है। किसी भी संप्रदाय का कौन मनुस्य इस भाव को नही पाना चाहेगा, किस संप्रदाय मे यह अवस्था प्राप्त करने का सलाह नही है, किस मनुष्य मे स्थित अंतरात्मा उसका सारथी नही है?
कृष्ण (आत्मा) ही तो सारथी हैं सब के। हे तथाकथित आचार्यगण बताओ, विरोध किसका और किस बात का?
ऊधौ सुधि नाहीं या तन की।
जाइ कहौ तुम कित हौ भूले
हमऽब भईं बन-बन की॥
इन बन ढ़ूँढ़ि सकल बन ढूँढ़े,
बन बेली मधुबन की।
हारी परीं बृंदावन ढूँढ़त,
सुधि न मिली मोहन की॥
किए बिचार उपचार न लागत
कठिन बिथा भइ मन की।
सूरदास कोउ कहै स्याम सौं
सुरति करैं गोपिनि की॥
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