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राष्ट्र~चिंतन : धर्म का भीड़तंत्र और देश का अर्थतंत्र

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पुष्पा गुप्ता

  _देश में ज़ब भी हिन्दू-मुसलमान अधिक होने लगे, समझ लेना चाहिये कि सरकार निर्धनों और बेरोजगारों की गर्दन पर पैर रख कर उनके हितों के खिलाफ और बाजार के खिलाड़ियों के पक्ष में कुछ और कदम आगे बढ़ाने वाली है।_
  या फिर, देश की अर्थव्यवस्था को झटका देने वाले कुछ ऐसे निर्णय लिये जा सकते हैं जो किसी कारपोरेट प्रभु के हितों का संपोषण करते हों।

ताजा मामला बिग बाजार का:
इसके हजारों करोड़ के बैंक लोन की वसूली अधर में लटकी हुई है और रिलायंस रिटेल के द्वारा उसके व्यवसाय को खरीदने की चर्चाओं से बाजार गर्म है।
सुना है, 24 हजार करोड़ में बिग बाजार को अंबानी की कम्पनी ने खरीदा है या खरीद रही है। अब बिग बाजार पर कितना बैंक लोन है, कितना चुकाया जाएगा, कितने का वजन रिलायंस कम्पनी उठाएगी, डील की शर्त्तें क्या होंगी, उसमें लोन देने वाले सरकारी बैंक के क्या हित-अहित होंगे, यह सब आर्थिक जानकार लोग ही बता सकते हैं।
लेकिन, अजान और हनुमान चालीसा के विवादों का जैसा कोलाहल मच रहा है, समाचार माध्यमों में जिस तरह इसे प्रमुख घटना क्रम के रूप में दर्ज कर लोगों के मस्तिष्क को प्रदूषित किया जा रहा है, उस माहौल में कौन बिग बाजार-सरकारी बैंक-अम्बानी आदि की डीलिंग की शर्त्तों पर निगाह डालेगा। जो विशेषज्ञ इसके जटिल पहलुओं की चर्चा करेंगे, उन्हें सुनने-पढ़ने वाले नगण्य ही होंगे।
सरकारी बैंक किस तरह बाजार के बड़े खिलाड़ियों का चारागाह बन खोखले होते गए, जिन्हें इस पर चर्चा करनी चाहिये, इस तरह के घालमेल की बारीकियों पर नजर रखनी चाहिये, वह मीडिया जैसे हिन्दू-मुसलमान करने का ठेका ले चुका है।

उससे भी बड़ा मुद्दा है नई शिक्षा नीति का लागू किया जाना। छात्र संगठन क्या खाएं, क्या न खाएं, कब क्या नहीं खाएं आदि के अंतहीन शोरगुल में उलझे हैं। एक छात्र संगठन देश के विभिन्न शहरों में धार्मिक विवादों से जुड़े मुद्दों को लेकर धरना-प्रदर्शन कर रहा है, दूसरे उसका जवाब देने की तैयारी कर रहे होंगे।
शिक्षा नीति से छात्र समुदाय के हित-अहित का सीधा वास्ता है लेकिन उनके बीच यह सामूहिक विमर्श का मुद्दा नहीं बन पा रहा। रस्म अदायगी की तरह अक्सर कुछ संगठन समर्थन या विरोध में जिंदाबाद-मुर्दाबाद कर लेते हैं।
जबकि, नई शिक्षा नीति के प्रावधान छात्रों की वर्त्तमान पीढ़ी को ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों को भी प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करेंगे।

विश्लेषकों का एक बड़ा वर्ग बार-बार चेतावनी देता रहा है कि नई शिक्षा नीति के नाम पर सरकार शिक्षा के कारपोरेटीकरण का रास्ता तैयार कर रही है, प्राइवेट हाथों में सौंपने के साथ ही शिक्षा इतनी महंगी की जा रही है कि देश की दो तिहाई आबादी के लिये उच्च शिक्षा, खास कर तकनीकी शिक्षा के द्वार तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाएगा।
जिन्हें नई शिक्षा नीति के प्रावधानों पर गौर करना चाहिये था, इससे जुड़े विमर्शों में भाग लेना चाहिये था, उनमें से अधिकतर नौजवान मोबाइल के फ्री डेटा का आनंद उठाते ओटीटी प्लेटफार्म्स या आईपीएल आदि में व्यस्त हैं।
इसमें क्या आश्चर्य…कि इन्हीं में से कुछ अति उत्साही नौजवान किसी प्रायोजित धार्मिक जुलूस में शामिल हो अपने झंडे को किसी दूसरे धर्म के धर्मस्थल पर फहराने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं।

सम्भव है, उन नौजवानों में से कुछ को पैसे का लोभ देकर बुलाया गया हो, लेकिन अफसोसनाक सच तो यह भी है कि हुड़दंग मचाने, किसी अन्य धर्म के लोगों को अपमानित करने के उत्साह में बहुत सारे नौजवान फ्री में दिन भर झंडा ढोने को तैयार होंगे।
संस्कार न एक दिन में बनते हैं न एक दिन में नष्ट होते हैं। आज के नौजवानों के बड़े तबके में धार्मिक सहिष्णुता का संस्कार, एक दूसरे के धर्मस्थलों को इज़्ज़त की नजर से देखने का संस्कार जो नष्ट किया गया है उसके लिये राजनीति के खिलाड़ियों ने बड़े जतन किये हैं, वर्षों से जतन किये हैं।
अब रामनवमी है तो जुलूस निकालेंगे, जरूर निकालेंगे, उसमें तरह-तरह के तलवार-भाले हाथों में लेकर चिढ़ाने-धमकाने वाले नारे लगाते किसी दूसरे के धर्मस्थल के सामने से गुजरेंगे, कई मामलों में यह भी तय है कि उस दूसरे धर्म के लोग भी अपने उपासना स्थल से इस जुलूस पर पत्थर फेकेंगे।

लो जी, शुरू हो गया दंगा-फसाद:
अब किसे महंगाई की सुध है, किसे बेरोजगारी की ग्लानि है, किसे आमदनी घटते जाने की चिन्ता है।
एक ही साज़, एक ही धुन…इधर के या उधर के, सारे नौजवान उसी धुन पर एक दूसरे को देख लेने की धमकियां देते, मार खाते, मारते।
इन जुलूसों में लफंगई करते, हथियार नचाते, गालियां देते, चीखते, चिल्लाते नौजवानों के हुजूम में कितने डीपीएस या अन्य ब्रांडेड स्कूलों से निकले अंग्रेजी माध्यम के नौजवान हैं, कितने हिन्दी माध्यम के घिसटते नौजवान।

नवउदारवाद के जटिल समीकरणों ने जिन वर्गों की क्रय शक्ति का बेहिंसाब विस्तार किया है, जिन्हें अपने बच्चों के लिये किसी भी महंगी दर पर शिक्षा खरीदने की हैसियत है, जिनके लिये मोदी ब्रांड राजनीति मुफीद है, उनमें से कितने प्रतिशत के बच्चे इन धार्मिक जुलूसों में गाली-गलौज और मार-कुटाई करने के लिये शामिल होते हैं?
 _महंगाई और बेरोजगारी...इन दोनों से जो वर्ग त्राहि-त्राहि कर रहा है, सबसे अधिक उसी के नौजवान धर्म का ठेका लेकर सड़कों पर आवारागर्दी करते दिख रहे हैं।_
वैसे तो, इस देश की राजनीति ही धार्मिक वैमनस्य को प्रोत्साहित कर अपनी रोटी सेंकने वाली बनती गई है और निरन्तर कुछ न कुछ विवाद, कुछ न कुछ कोलाहल होते रहते हैं, लेकिन, जब भी कोलाहल बढ़ता है, संदेह उभरता है कि कुछ न कुछ निर्धन, बेरोजगार विरोधी कदम उठने ही वाला है।

इस बार का कोलाहल कुछ अधिक व्यापक, बहुत ही अधिक कर्कश है। तो, संभावना है कि सरकार और राजनीतिज्ञों के दांव भी ऊंचे होंगे।
बैंकों का निजीकरण होने वाला है, एलआईसी की हिस्सेदारी बेची जानी है, सार्वजनिक सम्पत्तियों की बिक्री की लंबी लिस्ट तैयार हो गई होगी, नई शिक्षा नीति के कई प्रावधानों को आनन-फानन में लागू किया जाना है, महंगाई सरकार के काबू से बाहर है जबकि बेरोजगारी उसके चिंतन के केंद्र में है ही नहीं, न इससे निपटने का कोई प्रभावी विजन ही है राजनीतिज्ञों के पास।
तो…धार्मिक विवाद खड़े करना, पालतू मीडिया को उसके पीछे लगा देना, कम पढ़े लिखे या करियर के प्रति बेपरवाह किस्म के नौजवानों के हाथों में झंडे, लाठियां आदि थमा कर उन्हें उकसा देना…यही सब करना जरूरी हो जाता है।
अचानक से जो कोलाहल बढ़ गए हैं, समझ लेना चाहिये कि इस कोलाहल की आड़ में निर्धन और निम्न मध्य वर्ग के लोग, जो विकास की प्रक्रिया में हाशिये पर हैं, उन्हें और अधिक हाशिये पर धकेलने की तैयारी हो रही है, किसी नए कारपोरेट लूट का समां बंध रहा है। नवउदारवादी राजनीति कितनी क्रूर हो सकती है, इसे समझने के लिये इन्हीं परतों में झांकने की जरूरत है।
[चेतना विकास मिशन]

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