शैलेंद्र चौहान
विश्व मूल निवासी दिवस, विश्व में रहने वाली पूरी आबादी के मूलभूत अधिकारों (जल, जंगल, जमीन) को बढ़ावा देने और उनकी सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को विश्व के मूल निवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया जाता है। यह घटना उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करती है जो मूलनिवासी लोग पर्यावरण संरक्षण, आजादी, महा आंदोलनों, जैसे विश्व के मुद्दों को बेहतर बनाने के लिए करते हैं।
23 दिसंबर 1994 के संकल्प 49/214 द्वारा, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने निर्णय लिया कि विश्व के आदिवासी लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दशक के दौरान अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस हर साल 9 अगस्त को मनाया जाएगा। पहली बैठक के दिन, 1982 में मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र कार्य समूह की आदिवासी आबादी पर अंकन का दिन है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ऐसी संघर्षशील जनजातियों के अधिकार संरक्षित करने 2007 में मूलनिवासी के अधिकारों की घोषणा की। तब से पुरी दुनिया में विश्व मूलनिवासी दिवस (इंडिजीनस पीपल्स डे) मनाने लगी। भारत में भी इस दिन अनेक आयोजन किये जाते हैं। बांग्लादेश के एक चकमा लड़के रेवांग दीवान द्वारा कलाकृति को संयुक्त राष्ट्र स्थायी मुद्दे पर दृश्य पहचानकर्ता के रूप में चुना गया था। यह विश्व के आदिवासी लोगों के अंतर्राष्ट्रीय दिवस को बढ़ावा देने के लिए सामग्री पर भी देखा गया है।
यह हरे रंग की पत्तियों के दो कानों को एक दूसरे का सामना करते हुए दिखाई देता है, और एक ग्रह पृथ्वी जैसा दिखता है। ग्लोब के भीतर बीच में एक हैंडशेक (दो अलग-अलग हाथ) की तस्वीर है और हैंडशेक के ऊपर एक लैंडस्केप बैकग्राउंड है। हैंडशेक और लैंडस्केप बैकग्राउंड को ग्लोब के भीतर ऊपर और नीचे नीले रंग से समझाया गया है।
विश्व मूल निवासी दिवस एवं उन्हें अधिकार देने संबंधी प्रस्ताव विश्व मजदूर संघ में 1989 मे प्रस्तुत किया गया था। प्रस्ताव क्रमांक 169 में राईट्स ऑफ इंडिजीनस एण्ड ट्राइबल पीपुल्स की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव में ट्राइबल (जनजाति) एवं इंडिजीनस (मूलनिवासी) की परिभाषा अनुच्छेद 1 मे दी गई थी। जिसके तहत जनजाति लोग वे हैं, जो किसी स्वतंत्र देश में अपने पृथक सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति लिए राष्ट्रीय समुदाय के साथ अपनी परम्परा नियम से रह रहे हैं।
जबकि मूलनिवासी की परिभाषा ऐसे लोगों के बारे में है, जिन देशों में आक्रमण कर अथवा उपनिवेश बनाकर रखा और उनकी पीढ़ियां अपने सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक संस्थाओं को बनाये रखी हैं। इस दृष्टि से भारत में विश्व आदिवासी दिवस हम दुनिया भर के आदिवासियों की संस्कृतियों को बचाने की मुहिम में अपना समर्थन देते है।
अंग्रेजी का नेटिव (native) शब्द मूल निवासियों के लिये प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी के ट्राइबल (tribal) शब्द का अर्थ ‘मूलनिवासी’ नहीं होता है। ट्राइबल का अर्थ होता है ‘जनजातीय’। दरअसल दुनिया भर में अनेक जनजाति संस्कृतियां अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। आधुनिक विश्व की शुरुआत नयी भौगोलिक खोजों से हुई थी। कोलंबस और जेम्स कुक जैसे समुद्री यात्रियों ने अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैस नये भूखण्डों की खोज की लेकिन जब उपनिवेश वादी शोषण का दौर शुरू हुआ तब इन नये भूखण्डों में रहने वाली जनजातियों की संस्कृति और इतिहास खतरे में पड़ गया।
प्रत्येक देश का नागरिक खुद को वहां का मूल निवासी मानता है। जैसे अमेरिकावासी खुद को मूल निवासी मानते हैं लेकिन वहां की रेड इंडियन समुदाय के लोग कहते हैं कि यह गोरे और काले लोग बाहर से आकर यहां बसे हैं। इसी तरह यूरोपवासियों का एक वर्ग खुद को आर्य मानता है। अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि आर्य मध्य एशिया के मूल निवासी थे।
यदि हम मूल निवासी की बात करें तो धरती के सभी मनुष्य अफ्रीकन या दक्षिण भारतीय हैं। 35 हजार वर्ष पूर्व मानव अफ्रीका या दक्षिण भारत से निकलकर मध्य एशिया और यूरोप में जाकर बसा। यूरोप से होता हुआ मनुष्य चीन पहुंचा और वहां से वह पुन: भारत के पूर्वोत्तर हिस्सों में दाखिल होते हुए पुन: दक्षिण भारत पहुंच गया और फिर अफ्रीका पहुंच गया। यह चक्र चलता रहा।
वैज्ञानिकों की मानें तो इससे पहले, लगभग 19 करोड़ साल पहले, सभी द्वीप राष्ट्र एक थे और चारों ओर समुद्र था। यूरोप, अफ्रीका, एशिया, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सभी एक दूसरे से जुड़े हुए थे। अर्थात धरती का सिर्फ एक टुकड़ा ही समुद्र से उभरा हुआ था। इस इकट्ठे द्वीप के चारों ओर समुद्र था और इसे वैज्ञानिकों ने नाम दिया- ‘एंजिया’। विज्ञान कहता है कि धरती पर जीवन की उत्पत्ति 60 करोड़ वर्ष पूर्व हुई एवं महाद्वीपों का सरकना 20 करोड़ वर्ष पूर्व प्रारंभ हुआ, जिससे पांच महाद्वीपों की उत्पत्ति हुई।
स्तनधारी जीवों का विकास 14 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ। मानव का प्रकार (होमिनिड) 2.6 करोड़ वर्ष पूर्व आया, लेकिन आधुनिक मानव 2 लाख वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया। पिछले पचास हजार (50,000) वर्षों में मानव समस्त विश्व में जाकर बस गया। विज्ञान कहता है कि मानव ने जो भी यह अभूतपूर्व प्रगति की है वह 200 से 400 पीढ़ियों के दौरान हुई है। उससे पूर्व मानव पशुओं के समान ही जीवन व्यतीत करता था।
प्रारंभिक मानव पहले एक ही स्थान पर रहता था। वहीं से वह संपूर्ण विश्व में समय, काल और परिस्थिति के अनुसार बसता गया। विश्वभर की जनतातियों के नाक-नक्श आदि में समानता इसीलिए पायी जाती है, क्योंकि उन्होंने निष्क्रमण के बाद भी अपनी जातिगत शुद्धता को बरकरार रखा और जिन आदिवासी या जनजाति के लोगों ने अपनी भूमि और जंगल को छोड़कर अन्य जगह पर निष्क्रमण करते हुए इस शुद्धता को छोड़कर संबंध बनाए उनमें बदलाव आता गया। यह बदलाव वातावरण और जीवन जीने के संघर्ष से भी आया।
भारत में बड़ी संख्या में जनजाति समूह निवास करते हैं। भारतीय मानव वैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा देश में 635 जनजाति समूह व उपजातियां चिन्हित की गई हैं, जिनकी कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 10 करोड़ 42 लाख से अधिक है। यानि भारत की कुल आबादी का लगभग 8 प्रतिशत। जबकि छत्तीसगढ़ मे 42 जनजातियां संविधान के तहत अनुसूची में शामिल हैं जिनकी आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है।
पर विडंबना यह है कि भारत में जनजाति समाज की प्रगति और विकास स्वतंत्रता के बाद जिस गति से होना चाहिए था, वैसा नहीं हो सका। जल, जंगल, जमीन पर उन्हें अभी भी अधिकार नहीं मिल सका है, पांचवीं अनुसूची और पेसा कानून का पूरी तरह लागू होना शेष है। जनजातियों के विकास में संविधान और सरकारी योजनाओं के अनुरूप जो कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, उनमें जनजातीय समाज की सहमति और भागीदारी जरूरी है। जनजाति समाज का विकास जब तक समाज स्वयं अपने हाथों में नहीं लेगा तब तक उनके विकास की दिशा सही नहीं होगी।
(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार हैं और आजकल जयपुर में रहते हैं।)