पुष्पा गुप्ता
आजकल लोग सामाजिक नियमों की मनमर्जी से तुलना, व्याख्या या विरोध कर रहे हैं। अपनी मर्जी से कहीं बराबरी चाहिए, कहीं आगे रहना है, कहीं पीछे रहना है।
चित भी अपनी, पट भी अपनी।
परंपराएं क्यों है, इसका कारण खोजने की जगह, आखिर परंपरा है ही क्यों वाला लहजा है।
घर में जो भी सही होता है उसका श्रेय अपना और जो गलत होता है उसका श्रेय साथ वाले का।
जैसे एक समय पर्चा बांट कर ना बांटने वाले की बरबादी की कहानी से डरा डरा साईं को स्थापित कर दिया गया। एक जबरदस्त दौर चला था और अचानक अनगिनत लोग साईं को पूजने लगे।
ऐसे ही tv पर आने वाले अनगिनत सीरियल (किलर) द्वारा घरेलू जीवन का सत्यानाश करने के आइडिया देने वाला दौर चल रहा है।
और एक समय और भी चल रहा है। माता की चौकी वाला। सास ने बहु पर , बहू ने बेटे पर, चाचा ने भाई भतीजे पर, बुआ ने बच्चो के पापा और सास पर कुछ कर करवा रखा है। अकेले में यह बताने और उसके बाद ताबीज देने का धंधा जोरों पर है। कभी इधर उधर धक्के खाने वाली औरतें इन माताओं की एजेंट बनकर जबरदस्त कमाई कर रही हैं।
लेकिन उनकी तो दुकानदारी चल रही है, इधर घर की महिलाओं को ब्रह्म ज्ञान हासिल हो गया है।
अब अगर पति उनकी मुट्ठी में नहीं, आंख मूंद कर उनकी और उनके मायके वालों की बात न माने तो मतलब पक्का वो किसी टोटके क्रिया के असर में है।
दूसरी तरफ बंबई के डांस बार सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर ट्रांसफर हो गए हैं.
80 90 के दशक में जिन लड़कियों को थियेटर में हीरोइन को देख कर खुद भी ऐसी प्यार भरी नाचती गाती मस्त लाइफ जीने का मन था, किंतु लोक लिहाज की बेड़ियों से जकड़ कर रह गई। अब वो अपनी कन्याओं को खुल कर इन प्लेटफार्म पर नचा रही हैं। बहुत से पापा भी क्यूट हो गए हैं, वो कैमरामैन का फर्ज अच्छे से निभा रहे हैं।
किसी समय बड़े पैसे खर्च पड़ते थे तो केवल जमींदारों और धनिकों के शौक हुआ करते थे लड़कियों और औरतों को नाचता देखने के। अब बस इंटरनेट का पैक खरीदना पड़ता है।
इन सबसे दूर परम्परों की बेड़ियों में जकड़ी, दबी कुचली, बेसहारा जैसी लड़कियां और लड़के चुपचाप पढ़ रहे हैं। ईश्वर के आगे हाथ जोड़ रहे हैं। माता पिता के पैर छू रहे है। रूढ़िवादी हुए जा रहे है।
ये जी- तोड़ मेहनत कर रहे हैं। और जब रिजल्ट आने पर, सरकारी नौकरी लगने पर, iit या iim में दाखिला होने पर, सिविल सेवा में चुने जाने पर या किसी टीम में सेलेक्ट होने पर पूरा मोहल्ला उनकी कहानी अपने परिवार को सुना रहा है। तो साबित हो रहा है की परंपराएं यूं ही नहीं बनी और पनपी है।
खैर सब बात सबके लिए नहीं होती। प्रकृति है, गलत और कमजोर की बलि तो लेगी ही। आखिर श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत कैसे फेल होगा।