लोकसभा चुनाव-2024 के नतीजों का ऐलान हुए तक़रीबन एक महीना हो चुका है, मगर इस चुनाव की प्रमुख शक्तियां, एनडीए और इंडिया गठबंधन अभी तक समझ पाने में नाकाम हैं कि आख़िर कमी कहां रह गई है। इस ‘कमी’ को समझने के लिए जिन राज्यों के नतीजों का बार-बार विश्लेषण किया जा रहा है, उनमें उत्तर प्रदेश सबसे अहम है। दोनों ही बड़े राजनीतिक समूह मान रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में क़रीबी नतीजों वाली सीटों पर किसी भी तरह मेहनत करके अगर दस-पंद्रह सीटों पर नतीजे अपने पक्ष में कर लिए जाते तो शायद देश की सियासी तस्वीर दूसरी होती।एनडीए यहां पर अपनी जीत को लेकर अति-आत्मविश्वास में था जबकि इंडिया गठबंधन के कार्यकर्ता तक़रीबन हतोत्साहित थे। हालात ऐसे थे कि चुनाव सिर पर थे और नगीना, बिजनौर, मेरठ, बाग़पत, ग़ाज़ियाबाद, गौतमबुद्धनगर, बुलंदशहर, हाथरस, मथुरा और आगरा में गठबंधन को ढूंढे से भी योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे।
सैयद ज़ैगम मुर्तजा
दस-पंद्रह सीटों के फर्क़ की बात यूं ही अनायास नहीं हो रही है। मान लीजिए अगर भाजपा यूपी में 33 की जगह पचास के आसपास सीटें पा जाती तो? ज़ाहिर है इससे न सिर्फ भाजपा की अपने सहयोगी दलों पर निर्भरता कम होती, बल्कि उसे अपना एजेंडा लागू करना और आसान हो जाता। इसी तरह अगर इंडिया गठबंधन, ख़ासकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी अगर पंद्रह सीट और पा जाते तो शायद आज सत्तापक्ष में बैठे होते।
खैर, सच्चाई यही है कि ‘अगर-मगर’ से सरकारें नहीं बनतीं, लेकिन राजनीति इन्हीं ‘अगर और मगर’ के बीच के रास्ते तलाश करने का खेल है। ऐसे में यह जानना ज़रूरी है कि ‘अगर’ ऐसा या वैसा होता तो फिर क्या होता?
बात अगर पश्चिम उत्तर प्रदेश की करें तो यह बात एकदम साफ हो जाती है कि एनडीए और इंडिया गठबंधन के अलावा राज्य की तीसरी बड़ी राजनीतिक शक्ति बसपा भी ज़मीनी हक़ीक़त से पूरी तरह अंजान थी। दोआब, बृज और रुहेलखंड के इलाक़े में भाजपा अपने लिए किसी पार्टी को चुनौती मान ही नहीं रही थी। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को भी लग रहा था कि समीकरणों के लिहाज़ से संभल, बदायूं और नगीना के अलावा किसी अन्य सीट पर चुनौती पेश कर पाना संभव नहीं है। बसपा को लग रहा था कि दलित, मुसलमान और सवर्ण गठबंधन का उसका पुराना फार्मूला चलेगा और उसे पश्चिम से कम से कम तीन-चार सीटें तो मिल ही जाएंगीं। लेकिन जब नतीजे आए तो इस इलाक़े में वह हुआ, जिसकी उम्मीद न भाजपा-रालोद को थी, न सपा-कांग्रेस को और न ही बसपा को।
उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाक़े में राज्य की अस्सी में से बाइस सीटें गिनी जाती हैं। इनमें रुहेलखंड इलाक़े की बरेली, आंवला, बदायूं, मुरादाबाद, रामपुर, संभल, अमरोहा, नगीना और बिजनौर आदि लोकसभा सीटें शामिल हैं। गंगा और यमुना नदी के ऊपरी दोआब इलाक़े की सहारनपुर, मुज़फ्फरनगर, कैराना, बाग़पत, मेरठ, ग़ाज़ियाबाद, गौतमबुद्धनगर और बुलंदशहर सीट की गिनती पश्चिमी यूपी में की जाती है। जबकि बृज क्षेत्र की मथुरा, हाथरस, अलीगढ़, आगरा और फतेहपुर सीकरी सीट को भी पश्चिमी यूपी के हिस्से में माना जाता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इनमें से सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, मुरादाबाद, संभल और रामपुर में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के उम्मीदवार विजयी हुए थे, जबकि बाक़ी 16 सीटें भाजपा के हिस्से में आई थीं। इस बार बसपा किसी भी गठबंधन का हिस्सा नहीं थी, जबकि रालोद पाला बदलकर भाजपा की तरफ चली गई।
उत्तर प्रदेश में कुल सात चरण में चुनाव हुए। इनमें पहले तीन चरण में अधिकांश सीटें पश्चिम उत्तर प्रदेश की थीं। रालोद के इंडिया गठबंधन छोड़कर भाजपा के पाले में जाने के बाद मीडिया और तमाम विश्लेषक दावा कर रहे थे कि अब ऊपरी दोआब और बृज के इलाक़े में मुक़ाबला पूरी तरह एकतरफा है। यह दावा अकारण नहीं था। इस इलाक़े में जिन जातियों का प्रभुत्व है, समीकरण के लिहाज़ से उनमें अधिकांश भाजपा के पाले में नज़र आ रही थीं। बनिया, राजपूत, ब्राह्मण, त्यागी, सैनी, गूजर, बाल्मीकि, लोध, पहले से ही भाजपा के साथ गिने जा रहे थे। पश्चिम यूपी में जाटवों सहित दलित वोटरों का एक हिस्सा 2014 से लगातार भाजपा को वोट कर रहा है। रालोद से गठबंधन के बाद जाट भी इसी पाले में माने जाने लगे। पश्चिमी यूपी की कुल जनसंख्या में इन जातियों की हिस्सेदारी साठ फीसद से भी ज़्यादा हो जाती है। ऐसे में किसी चुनावी मुक़ाबले की कल्पना करना भी बेमानी हो जाता है।
शायद यही कारण है कि एनडीए यहां पर अपनी जीत को लेकर अति-आत्मविश्वास में था जबकि इंडिया गठबंधन के कार्यकर्ता तक़रीबन हतोत्साहित थे। हालात ऐसे थे कि चुनाव सिर पर थे और नगीना, बिजनौर, मेरठ, बाग़पत, ग़ाज़ियाबाद, गौतमबुद्धनगर, बुलंदशहर, हाथरस, मथुरा और आगरा में गठबंधन को ढूंढे से भी योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे। यही कारण है कि मेरठ, गौतमबुद्धनगर, और बिजनौर में समाजवादी पार्टी ने बार-बार अपने उम्मीदवार बदले। इसका ख़मियाज़ा पार्टी को चुनावी नतीजों में भुगतना भी पड़ा। कांग्रेस को गठबंधन में समाजवादी पार्टी ने प्रदेश की सत्रह सीटें छोड़ी थीं। इनमें पश्चिम यूपी की सहारनपुर, अमरोहा, बुलंदशहर, ग़ाज़ियाबाद, फतेहपुर सीकरी, और मथुरा शामिल थीं। कांग्रेस को समझौते में वही सीट मिलीं जहां समाजवादी पार्टी के पास लड़ने के लिए मज़बूत संगठन या योग्य उम्मीदवार नहीं था। मज़े की बात है कि इन सीटों पर कांग्रेस की हालत समाजवादी पार्टी से भी ख़राब थी। कांग्रेस इनमें सिर्फ सहारनपुर से ही जीत पाई।
इस इलाक़े में एनडीए की हार की बड़ी वजह उसका अति-आत्मविश्वास और राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के बाद यह मानकर चलना था कि हिंदू आबादी उसके अलावा किसी अन्य को वोट करेगी ही नहीं। लेकिन इंडिया गठबंधन जिन तमाम सीटों पर हारा तो उसकी तीन बड़ी वजहें हैं। एक तो सही से गुण-दोष को आधार बनाए बिना सीटों का बंटवारा। दूसरा, उम्मीदवारों के चयन में गड़बड़ी। तीसरा, समाजवादी पार्टी के कई सीटिंग विधायकों, सांसदों और कार्यकर्ताओं का चुनाव में सक्रिय भागीदारी न निभाना। इनमें कई नेता ऐसे थे जो टिकट के दावेदार थे लेकिन टिकट न मिलने या समझौते में सीट कांग्रेस के पास चले जाने से नाराज़ थे। कांग्रेस के पास इस इलाक़े में कोई विधायक या सांसद था ही नहीं। हालांकि उसके कई बड़े नेता और कार्यकर्ता चुनाव में नज़र भी नहीं आए।
अगर टिकट बार-बार न बदले जाते और सही उम्मीदवार का समय रहते चयन हो जाता तो इंडिया गठबंधन मेरठ और बिजनौर सीट जीत सकता था। इसी तरह अगर मेरठ के साथ अमरोहा, अलीगढ़, बरेली, और फतेहपुर सीकरी में इंडिया गठबंधन के सभी नेता और कार्यकर्ता एकजुट होकर चुनाव लड़ाते तो नतीजे उनके पक्ष में आ सकते था। इन सीटों पर हार-जीत का फासला पचास हज़ार वोट से कम है। मेरठ में समाजवादी पार्टी को अतुल प्रधान को पहले टिकट देने और फिर टिकट काट देने का ख़मियाज़ा भुगतना पड़ा। इसी तरह अगर समाजवादी पार्टी दीपक सैनी को अमरोहा से और कांग्रेस दानिश अली को बिजनौर से चुनाव लड़ा देती तो समीकरण इन दोनों उम्मीदवारों के पक्ष में थे। यानी, पार्टियों के पास जिताऊ उम्मीदवार थे, लेकिन ग़लत सीट पर चुनाव लड़ रहे थे। जातीय समीकरण इन दोनों के ही पक्ष में नहीं थे।
दलित वोटरों का अविश्वास भी पश्चिम यूपी में तमाम सीटों पर इंडिया गठबंधन की हार की बड़ी वजह बनी। जिस तरह अवध और पूर्वांचल में दलित वोटर कांग्रेस के पक्ष में लामबंद हुए उस तरह पश्चिम में नहीं हुआ। गठबंधन ने एक तो इस इलाक़े में संविधान बचाने का सवाल देर से उठाया। दूसरे, ज़मीन पर यादव, जाटव, और मुसलमान वोटरों के आपसी अविश्वास को कम करने की कोई कोशिश भी नहीं की। हालांकि उस वक़्त चंद्रशेखर आज़ाद को कोई भाव नहीं दे रहा था, लेकिन अब लग रहा है कि वो भी गठबंधन में शामिल होते तो कम से कम मेरठ और बिजनौर के नतीजों पर असर ज़रूर पड़ता। अगर मल्लिकार्जुन खड़गे अपने कार्यकर्ताओं की मांग मानकर नगीना से चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा लेते तब यक़ीनन मेरठ से लेकर आगरा तक इस फैसले का असर पड़ता। इसी तरह अगर बिजनौर और अमरोहा में मुसलमान वोटरों का बिखराव रोक लिया जाता तो इंडिया गठबंधन इन दो सीटों पर ज़रूर जीत हासिल कर लेता।
बहरहाल, इन तमाम अगर और मगर का निष्कर्ष ये है कि विपक्षी दल अपनी ग़लतियों से सबक़ लें। जल्द ही राज्य में दस विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने हैं। इनमें पश्चिम की मीरापुर (बिजनौर) और कुंदरकी (मुरादाबाद) शामिल हैं। एकजुट होकर चुनाव लड़ें। यह समझें कि संविधान बचाने की लड़ाई अभी नतीजे तक नहीं पहुंची है। इसके साथ ही लोकसभा चुनाव में पिछड़ा, दलित और अक़लियत को साथ लाने का जो प्रयोग लोकसभा चुनाव में किया गया है वो न सिर्फ जारी रहे, बल्कि उसका दूसरी जातियों में भी विस्तार हो।