विकसित दुनिया ने भी 1950 में विकासशील देशों की संभावनाओं में बहुत कम दिलचस्पी दिखाई। 1950 के दशक की शुरुआत में यूरोप के देश और रूस दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका से उबर ही रहे थे। अमेरिका भी मार्शल प्लान के साथ यूरोप को पटरी पर लौटाने में जुटा था। । विकास के लिए विश्व बैंक से जारी होने वाली सहायता के तहत विकासशील देशों को आसान कर्ज देना भी 1950 के दशक के अंतिम सालों में सोचा गया और इस काम के लिए अंतरराष्ट्रीय विकास संघ की स्थापना 1960 में हो पाई। नियोजित विकास के आरंभ के समय वैश्विक अर्थव्यवस्था की यह स्थिति देखते हुए भारत के पास एक ही भरोसेमंद विकल्प था देश को आत्मनिर्भर बनाने वाली आर्थिक रणनीति अपनाना।
ने हरू के युग (1950-64) में लागू विकास नीति की आलोचना राजनीति में ही नहीं हुई है बल्कि कुछ अर्थशास्त्री भी देश के प्रदर्शन का आकलन करते समय उसकी आलोचना करते हैं। नेहरू के युग की 4 फीसदी वृद्धि दर और 1980 के बाद की 6 फीसदी वृद्धि दर के बीच का बड़ा अंतर अक्सर याद दिलाया जाता है। मगर ध्यान रखें कि नेहरू के दौर में 4 फीसदी वृद्धि दर उस अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा ढांचागत बदलाव थी, जो उससे पहले के 100 साल में 1 फीसदी से भी कम रफ्तार से बढ़ी थी।
विश्व बैंक के पास नेहरू के अंतिम सालों (1961-64) के तुलना करने लायक आंकड़े मौजूद हैं, जिनके मुताबिक उन सालों में भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 5 फीसदी थी। उस दौरान निम्न और मध्यम आय वाले देशों की औसत वृद्धि दर 4.3 फीसदी और दुनिया भर की औसत वृद्धि दर 5.2 फीसदी थी।
वृद्धि में असली गिरावट नेहरू युग के बाद आई जब 1965-66 के भीषण खाद्य संकट ने विकास में रुकावट डाली। उसके बाद कांग्रेस में विभाजन, आपातकाल थोपे जाने के राजनीतिक असर और जनता पार्टी की विजय तथा पतन के कारण आई राजनीतिक अस्थिरता ने विकास के प्रयासों को और भी बेअसर किया। यहां ध्यान रहे कि 1962 में चीन के साथ युद्ध और 1965 तथा 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्धों ने भी विकास को पटरी से उतारे रखा। मगर 1980-81 के बाद औसत वृद्धि दर 6 फीसदी पर बनी रही।
नेहरू के जमाने की वृद्धि दर और 1980-81 से छह फीसदी की
औसत वृद्धि दर के बीच अंतर की वजह अक्सर नेहरू के दौर की एक
खास नीति को बताया जाता है। कहते हैं कि नेहरू ने उन उद्योगों पर जोर दिया, जो आयात होने वाले माल को देश में ही बनाते। इस वजह से श्रम के अधिक इस्तेमाल से बनने वाले माल के निर्यात के मौकों का फायदा नहीं उठाया जा सका, जबकि उससे विनिर्माण में रोजगार तेजी से बढ़ता। 1951 में मिल में बने कपड़े के निर्यात की सबसे अधिक संभावना थी और हथकरघा बुनकरों को संरक्षण देने का राजनीतिक आंदोलन उसकी राह में बाधा बन गया। ध्यान रहे कि आजादी के पहले के कॉरपोरेट औद्योगिक विकास की दिशा काफी हद तक आयात हो रहे माल का उत्पादन करने की ओर थी और उससे व्यापार संरक्षण की मांग उठी। यह प्रवृत्ति विकास पर हमारे कंपनी जगत के नजरिये से कभी खत्म नहीं हुई है। 1950 में निर्यात पर निराशा का भाव इसलिए था क्योंकि उससे पिछले सालों में दुनिया भर में वस्तुओं का व्यापार ठहरा हुआ था। 1948 में 58.5 अरब डॉलर का वैश्विक वस्तु व्यापार हुआ था, जो 1949 में 58.6 अरब डॉलर और 1950 में 61.5 अरब डॉलर तक ही पहुंच पाया। विश्व व्यापार में जिस वृद्धि ने खास तौर पर पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के निर्यात को रफ्तार दी, वह 1960 के बाद ही दिखी थी।
विकसित दुनिया ने भी 1950 में विकासशील देशों की संभावनाओं में बहुत कम दिलचस्पी दिखाई। 1950 के दशक की शुरुआत में यूरोप के देश और रूस दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिका से उबर ही रहे थे। अमेरिका भी मार्शल प्लान के साथ यूरोप को पटरी पर लौटाने में जुटा था। विकास के लिए विश्व बैंक से जारी होने वाली सहायता के तहत विकासशील देशों को आसान कर्ज देना भी 1950 के दशक के अंतिम सालों में सोचा गया और इस काम के लिए अंतरराष्ट्रीय विकास संघ की स्थापना 1960 में हो पाई।
नियोजित विकास के आरंभ के समय वैश्विक अर्थव्यवस्था की यह स्थिति देखते हुए भारत के पास एक ही भरोसेमंद विकल्प था देश को आत्मनिर्भर बनाने वाली आर्थिक रणनीति अपनाना। एक आलोचना में नेहरूवादी समाजवाद की तुलना बाजार पूंजीवाद से की गई है, जिस पर आज विकास के लिए जोर दिया जा रहा है। यह सच है कि नेहरू युग में सरकार ने सार्वजनिक उपक्रम खड़े करने के लिए बहुत प्रयास किए। पहले स्टील और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में ये उपक्रम लगाए गए और उसके बाद रसायन, तेल उत्खनन तथा रिफाइनिंग में भी ऐसा ही किया गया।
सकल स्थायी पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) में सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 1950-51 में 22.7 फीसदी थी, जो 1960-61 में बढ़कर 47.7 फीसदी हो गई। इसमें औद्योगिक निवेश ही नहीं था बल्कि सिंचाई परियोजनाओं और बुनियादी ढांचे में भी भारी निवेश किया गया था। ऐसा मुख्य रूप से यह मानकर किया गया था कि निजी क्षेत्र की इन क्षेत्रों में निवेश की क्षमता भी कम है और इसके लिए वह प्रेरित भी नहीं होगा, जबकि वृद्धि की संभावना तैयार करने के लिए ये क्षेत्र बहुतमायने रखते हैं। इसी समय निजी क्षेत्र पर सरकार की नीति काफी रचनात्मक थी। निजी क्षेत्र की कंपनियों का इकलौता महत्त्वपूर्ण अधिग्रहण तब हुआ, जब 1956 में बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया गया। यह भी तब हुआ, जब कुछ कंपनी समूहों पर आरोप लगा कि उन्होंने बीमा कंपनियों में अई रकम का इस्तेमाल दूसरे उपक्रमों के लिए किया। निजी कंपनियों की वृद्धि सकल स्थायी पूंजी निर्माण में उनकी हिस्सेदारी में नजर आई, जो 1950-51 के 9.5 फीसदी से बढ़कर 1960-61 तक 16.2 फीसदी हो गई। इसका स्तर 1990-91 तक कमोबेश यही बना रहा।
भौतिक बुनियादी ढांचे के अलावा नेहरू युग की विकास नीति का अहम योगदान उच्च शिक्षा के विस्तार खास तौर पर तकनीकी शिक्षा और शोध क्षमता के विस्तार में रहा। इसके लिए 1948-49 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया गया, 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग बना, 1961 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण आयोग (एनसीईआरटी) आया तथा 1964 में कोठारी आयोग का गठन हुआ। नेहरू के दौर में ही पहले भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी)
और भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) चने तथा कृषि, परमाणु अनुसंधान और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में खास तौर पर शोध की क्षमता बढ़ाई गई। मेरी राय में उच्च शिक्षा, प्रौद्योगिकी और अनुसंधान पर नेहरू युग में दिए गए जोर के कारण ही देश में प्रौद्योगिकी से उत्पादन एवं व्यापार की तेज वृद्धि के लिए प्रशिक्षित लोग बड़ी तादाद में तैयार हो गए। हाल के दशकों में वृद्धि के मजबूत आंकड़ों की बुनियाद वहीं से पड़ी।
नेहरू युग की विकास नीति आर्थिक वृद्धि पर ही केंद्रित नहीं थी बल्कि सामाजिक परिवर्तन भी ला रही थी। पहली पंचवर्षीय योजना में स्पष्ट रूप से सामाजिक संस्थाओं और सामाजिक रिश्तों को नए सिरे से अपनाने की बात कही गई थी। इसमें व्यापक सामुदायिक विकास कार्यक्रम को भी जगह दी गई। पहली पंचवर्षीय योजना में साफ कहा गया था, ‘किसी भी समय किसी देश की आर्थिक स्थिति व्यापक सामाजिक वातावरण का नतीजा होती है और आर्थिक नियोजन को व्यापक प्रक्रिया का हिस्सा माना जाना चाहिए। इस प्रक्रिया का उद्देश्य संकीर्ण तकनीकी मायने में संसाधनों का विकास भर नहीं होता बल्कि मानवीय क्षमता का विकास करना एवं जनता की जरूरतें तथा आकांक्षाएं पूरी करने के लिए पर्याप्त संस्थागत ढांचा तैयार करना भी होता है।’ (पहली पंचवर्षीय योजना के पहले अध्याय का पहला अनुच्छेद)
विश्व असमानता से जुड़े आंकड़े भी दिखाते हैं कि भारत में 1950 से 1980 के बीच सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों की हिस्सेदारी में 40 फीसदी से घटकर 30 फीसदी रह गई। उसके बाद यह बढ़ती गई और 2010 तक 55 फीसदी हो गई। यही वजह है कि नियोजित विकास के पहले डेढ़ दशक की नीति को नेहरूवादी समाजवाद के बजाय नेहरूवादी मानवतावाद कहना चाहिए। मैं उन लोगों में शामिल हूं जो नेहरू के युग में बड़े हुए। में बताना चाहता हूं कि उस समय हम जैसे युवाओं में देश की आर्थिक संभावनाओं और सामाजिक परिवर्तन के प्रति कितनी उम्मीदें थीं। उस समय एकजुटता और सहयोग की प्रबल भावना थी। आपने वह गीत तो सुना ही होगा, ‘साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलके बोझ उठाना।’ यह गीत नेहरू युग की सबसे सटीक व्याख्या करता है।
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