आज से कुछ दशकों के बाद जब भारत के आज के दौर की विसंगतियों को विश्लेषित किया जाएगा तो तीन अध्याय मुख्य होंगे, पहला, भारतीय शहरी मध्य वर्ग का मानसिक और नैतिक अंधकार, दूसरा, विपक्ष की राजनीति का नैतिक पतन और तीसरा, मीडिया की मुख्यधारा का जनता का शत्रु बन जाना.नरेंद्र मोदी तो प्रतीक मात्र हैं. नवउदारवाद का भारतीय संस्करण अपनी ढाई तीन दशकों की यात्रा के बाद ऐसा ही राजनीतिक मंजर लाने वाला था. इस संस्करण ने राजनीति से उसकी नैतिकता को सोखना शुरू किया जिसका एक परिणाम कार्पोरेटशक्तियों की उंगलियों में राजनीति और आर्थिकी की डोर आने के रूप में सामने आया. सामूहिक हितों की जगह स्वार्थ और लोलुपता की दूषित मानसिकता में डूबता उतराता मध्यवर्गीय जनमानस बहुत कुछ खो और झेल कर भी मोदी मोदी की रट यूं ही नहीं लगाता. कॉर्पोरेट मीडिया यूं ही विध्वंसक और जहरीली भूमिका में नहीं आता.
हेमन्त कुमार झा,
एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
धुंध बहुत गहरी है. समझ में नहीं आ रहा कि नरेंद्र मोदी को तीसरी बार सत्ता में पहुंचने देने का विरोध कौन कर रहा और समर्थन कौन कर रहा. प्रत्यक्ष में बड़ी बड़ी बातें बोलेंगे, संविधान पर खतरे की संभावनाएं गिनाएंगे, डिक्टेटर राज आने का डर दिखाएंगे, उखाड़ फेंकने की मुनादी करेंगे, लेकिन भीतर ही भीतर करतब ऐसी करेंगे कि मोदी की राह आसान हो जाए.
अब, यह डर के कारण से हो, लोभ के कारण से हो या जिस भी कारण से हो, ऐसे नेता और ऐसे राजनीतिक दल जनता के लिए किसी डिक्टेटर या किसी विभाजक राजनीतिज्ञ से भी अधिक खतरनाक हैं. इन्होंने राजनीति के नैतिक पतन का नया आख्यान रचा है और आम मेहनतकश जनता की पीठ में छुरा भोंकने के बराबर का अपराध किया है.
आम मेहनतकश जनता, नरेंद्र मोदी के अब तक का दस वर्षीय राज जनता के इस वर्ग के लिए अभिशाप के समान रहा है और आगे भी अगर मोदी राज कायम रहा तो इस वर्ग की और अधिक दुर्दशा ही होनी है. लेकिन, तब भी मोदी इस मेहनतकश अवाम की दुर्दशा के उतने जिम्मेवार नहीं होंगे जितने जिम्मेवार मोदी को परोक्ष और छद्म तरीके से समर्थन देने वाले होंगे.
एक दौर था, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष के नेताओं का गठजोड़ सामने आया था. भले ही यह एकता सत्ता में आने के बाद जल्दी ही बिखर गई लेकिन इसने यह साबित किया कि अगर कोई शक्तिशाली सत्ताधीश लोगों के संवैधानिक अधिकारों से खिलवाड़ करेगा, राजनीतिक विरोधियों के दमन के लिए सत्ता का अनुचित प्रयोग करेगा तो भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में अंतर्निहित चेतना उसे उखाड़ फेंकने की शक्ति रखती है.
‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा’ राजनीतिक चारणों और चेले चपाटों के ऐसे बोल किस बियाबान में लुप्त हो गए, खुद मैडम भी समझ नहीं पाई और जैसा कि कई इतिहासकार बताते हैं, वे इतनी बड़ी चुनावी हार के बाद कुछ दिनों के लिए सदमे में चली गई थी.
तब के नेताओं में नैतिक शक्ति थी. तब मोरारजी थे, अटल थे, चंद्रशेखर थे, चरण सिंह थे, मधु लिमये थे, मधु दंडवते थे, मृणाल गोरे थी, जॉर्ज फर्नांडिस थे, कई अन्य थे…और, सबसे बढ़ कर जयप्रकाश नारायण का करिश्माई और प्रभावी नेतृत्व था. नेतृत्व की नैतिक आभा में जनता की राह आलोकित होती है, उसकी चेतना ज्योतिर्मयी होती है.
जनचेतना में सत्ता विरोध की लहर उठी. दमन को अपना हथियार और मनमानियों को अपना औजार बना चुकी सत्ता की प्राचीरें जन चेतना के प्रतिरोध को झेल नहीं सकी. तब, जबकि दक्षिण भारत में इंदिरा गांधी ने अच्छी खासी सीटें जीती थी, हिन्दी पट्टी के राज्यों ने उनकी नियति का फैसला कर दिया था.
आज वही हिंदी पट्टी मोदी की विभाजनकारी राजनीति का पैरोकार बना है. दो वक्त की रोटी के लिए और बच्चों की स्कूल फीस के लिए खून सुखाते मेहनतकश लोगों की चेतना ‘मोदी मोदी’ के प्रायोजित शोर में कहीं लुप्त सी हो गई लगती है और उनकी मुक्ति की बातें करने वाले विपक्ष के कई नेता, कई राजनीतिक दल अपने ही करतबों में लिप्त हैं. वे मोदी से अधिक जनविरोधी हैं.
भारतीय राजनीति का वर्तमान उनके नैतिक पतन का बोझ उठाते उठाते थक चुका है और भविष्य में इस बात का खतरा चारों ओर मंडराता दिख रहा है कि इनमें से कई लोग, कई दल चुनावी भाषणों में मोदी विरोध, संविधान की रक्षा, डिक्टेटर शिप के खतरे आदि की बातें करेंगे और अपनी मानसिक और राजनीतिक ऊर्जा मोदी को ही पुनः सत्तासीन करने में जाया करेंगे.
सब कुछ धुंधला धुंधला सा है. मीडिया जिम्मेवारी ले चुका है कि वह जनता तक सत्य को पहुंचने नहीं देगा. महज ऐसा ही होता तो गनीमत थी. बड़े बड़े चैनल, बड़े बड़े एंकर, एंकरानियां सुपारी लेकर तैयार हैं कि वे झूठ को इतना महिमा मंडित करेंगे कि वह सत्य की जगह लेकर आम लोगों का दिमाग खराब कर दे.
आज से कुछ दशकों के बाद जब भारत के आज के दौर की विसंगतियों को विश्लेषित किया जाएगा तो तीन अध्याय मुख्य होंगे, पहला, भारतीय शहरी मध्य वर्ग का मानसिक और नैतिक अंधकार, दूसरा, विपक्ष की राजनीति का नैतिक पतन और तीसरा, मीडिया की मुख्यधारा का जनता का शत्रु बन जाना.
नरेंद्र मोदी तो प्रतीक मात्र हैं. नवउदारवाद का भारतीय संस्करण अपनी ढाई तीन दशकों की यात्रा के बाद ऐसा ही राजनीतिक मंजर लाने वाला था. इस संस्करण ने राजनीति से उसकी नैतिकता को सोखना शुरू किया जिसका एक परिणाम कार्पोरेटशक्तियों की उंगलियों में राजनीति और आर्थिकी की डोर आने के रूप में सामने आया. सामूहिक हितों की जगह स्वार्थ और लोलुपता की दूषित मानसिकता में डूबता उतराता मध्यवर्गीय जनमानस बहुत कुछ खो और झेल कर भी मोदी मोदी की रट यूं ही नहीं लगाता. कॉर्पोरेट मीडिया यूं ही विध्वंसक और जहरीली भूमिका में नहीं आता.
जिसे ‘नियो लिबरल इकोनॉमी’ और इससे उत्पन्न ‘नियो लिबरल पॉलिटिक्स’ कहते हैं, वह यूरोप और अमेरिका जैसे संपन्न और पढ़े लिखे समाज में अपनी जो छाप छोड़ता रहा, भारत में उसके बहुत आगे जाकर अपने अमानुषिक रूप में सामने आया. इस रूप को भारतीय राजनीतिक फलक पर ऐसे ही सामने आना था.