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मुकदमों के पहाड़ से निकलने का कोई रास्ता नहीं

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मुनेश त्यागी 

       आजकल हम न्याय के मार्ग में बहुत सारी बाधायें देख रहे हैं, बहुत सारी रुकावटें देख रहे हैं बहुत सारी बेरुखी और खामियां देख रहे हैं, सरकार की हद दर्जे की बेरुखी देख रहे हैं और लापरवाही देख रहे हैं। भारत के संविधान में भारत की जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय देने का वादा किया गया है। आजादी के 75 साल बाद भी यह वादा लगभग झूठा साबित हो रहा है।

      भारत में इस समय पांच करोड़ मुकदमें भारत की विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। लोअर कोर्ट में यह संख्या लगभग 4 करोड़ 30 लाख और विभिन्न उच्च न्यायालयों में 59 लाख मुकदमें लंबित हैं, सर्वोच्च न्यायालय में 70 हजार से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों में 42 लाख अपराधिक मुकदमें और 16 लाख दीवानी मुकदमे लंबित हैं, जिनके शीघ्र निस्तारण के आसार नजर नहीं आ रहे हैं।

     भारत के मुख्य न्यायाधीश  और कानून मंत्री अनेकों बार यह जानकारी दे चुके हैं। उन्होंने एक एक सम्मेलन में बताया है कि भारत में इस वर्ष इस समय पांच करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। मुख्य न्यायाधीश के अनुसार सरकारें, भारत में सबसे बड़ी वादकारी और मुकदमेबाज पक्षकार हैं। उन्होंने यह सच्चाई भी उजागर की की 50% लंबित मामलों में सरकारें पक्षकार हैं। भारत में हालात यह हैं कि कार्यपालिका और विधायिका की विभिन्न शाखाओं के पूरी क्षमता के साथ काम न करने से लंबित मामलों का अंबार लग गया है।

     आज भारतीय न्यायपालिका के सामने प्रमुख समस्याओं जैसे लंबित मामले, वर्षों से खाली पड़े जजों के हजारों पद, घटते न्यायाधीश, जनसंख्या के अनुपात में अदालतों की कमी, और अदालतों के बुनियादी ढांचे की अनेक कमियां और खामियां मौजूद हैं। सुविधाजनक आधुनिक न्यायालय नहीं हैं, मुकदमों के अनुपात में जज और कर्मचारी, स्टेनो आदि नहीं हैं, ये पद पिछले दस पंद्रह सालों से खाली पड़े हुए हैं। वकीलों द्वारा लगातार मांग करने के बावजूद भी सरकारें, इन मांगों को नजरअंदाज और अनसुनी करती चली आ रही हैं।

     दरअसल सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। हमारी न्यायपालिका का बजट राष्ट्रीय जीडीपी का केवल .02% है जो वैश्विक स्टैंडर्ड के हिसाब से जीडीपी का 3 परसेंट होना चाहिए। यहीं पर हमारा यह भी कहना है कि जब तक जनता की भाषा में न्याय प्रक्रिया नहीं अपनाई जाती और निर्णय नहीं दिए जाते, तब तक वादकारी जनता को सस्ता, सुलभ और असली न्याय नहीं मिल सकता। 11 अप्रैल 2023 टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, इस समय देश में पांच करोड़ मुकदमे लंबित हैं और न्याय की बाट जो रहे हैं।

     मुकदमों के जल्दी न निपटने का एक कारण यह भी है कि बहुत सारे कानूनों को साफ, स्पष्ट और सरल रूप से और जनता की भलाई को ध्यान में रखकर नहीं बनाया गया है, जिस कारण मुकदमों के अनावश्यक भार से न्यायपालिका चरमरा गई है जो जनतंत्र की सेहत के लिए सही नहीं है। जनता को समय से न्याय न मिलने और मुकदमों के लंबित होने के लिए कार्यपालिका भी बहुत हद तक जिम्मेदार है। उपरोक्त परिस्थितियों के अनुसार जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय न मिलने के कारण केवल न्यायपालिका ही  अकेले जिम्मेदार नहीं है।

    हमारे देश में 10 लाख जनसंख्या पर मात्र 20 न्यायाधीश हैं जो बेहद कम हैं। राष्ट्रीय कानून आयोग की सिफारिशों के अनुसार 10 लाख जनसंख्या पर कम से कम 50 न्यायाधीश होने चाहिएं, ऐसी ही सिफारिश भारत के कई मुख्य न्यायाधीश कर चुके हैं मगर सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। पश्चिमी देशों में यह संख्या 10 लाख जनसंख्या पर 110 न्यायाधीश हैं, मगर हमारी सरकारें इन सिफारिशों पर ध्यान देने को तैयार नहीं है। अगर हमारे देश में तहसीलदार, पंचायतें, दीवानी संस्थाएं और रिवेन्यू अधिकारी सही और कानून के हिसाब से काम करें तो मुकदमों का बोझ काफी हद तक कम किया जा सकता है।

    इसी के साथ यदि पुलिस विवेचना सही, वास्तविक और कानूनी है और गैर कानूनी गिरफ्तारियां नहीं की जाती हैं और श्रम कानूनों को सही और कानूनी तरीके से लागू किया जाता है और तमाम मजदूरों को श्रम कानून उपलब्ध कराये जायें तो बहुत से वाद न्यायालय तक नहीं पहुंच पाएंगे। इसी के साथ-साथ विधायिका को कानूनों को जनता का कल्याण ध्यान में रखकर बनाना पड़ेगा। इससे भी मुकदमों में कमी आएगी। जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय  मिलने के लिए हमारे देश की कार्यपालिका और विधायिका के विभिन्न विभागों द्वारा समयबध्द कार्यवाहियां न किया जाना और उनका नकारा, लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार भी विशेष रूप से जिम्मेदार है।

     उनको वादकारियों से कोई प्यार, मोहब्बत, लगाव और भाईचारा नहीं है, जनता से कोई हमदर्दी नहीं है। इन दिनों भ्रष्टाचार भी एक बड़ी समस्या बनकर  सामने आ रही है, इसलिए मुकदमे लंबे समय तक लम्बित पड़े रहते हैं और जनता को समय से न्याय नहीं मिल पाता। जनता को सस्ता, सुलभ और सुगम न्याय न मिलने के लिए केवल और केवल भारत की केंद्र और राज्य सरकारें जिम्मेदार हैं।

     पिछले काफी समय से हम देखते चले आ रहे हैं कि केंद्र सरकार के कानून मंत्री सिर्फ आंकड़े पेश कर रहे हैं। वे जनता को सस्ता सुलभ न्याय कैसे मिले इस तरह का कोई खाका पेश नहीं कर रहे हैं और अब तो यह लगने लगा है कि केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों की जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने की कोई योजना और मंशा नहीं है।  हम यहां पर जोर देकर कहेंगे जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए भारत की जनता और अधिकांश पार्टियों को सरकार पर दबाव डालना होगा कि वह अदालतों में पेंडिंग 5 करोड़ ज्यादा मुकदमों का निपटारा करने के लिए एक समय सीमाबध्द कार्यक्रम जनता के सामने पेश करें। इसके बिना जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल सकता।

   हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि दुनिया में सबसे बड़ी मुकदमेबाज भारत और राज्यों की सरकारें हैं और कोई नहीं। जब तक ये सरकारें समयबद्ध तरीके से, न्याय को एजेंडे में रखकर काम नहीं करेंगी,तब तक भारत की जनता को सस्ता, सुलभ, असली और वास्तविक न्याय नहीं मिल सकता और लगातार बढ़ते जा रहे मुकदमों का यह पहाड़ और ऊंचा होता जाएगा। सरकार की न्याय देने की मंशा के बिना मुकदमों का यह पहाड़ हटाया नहीं जा सकता।

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