लक्ष्मी कुमावत
“मेरे पापा की तबीयत खराब है इसलिए वह नहीं जाएंगे। घर के बड़े हैं तो क्या, उन्हें आराम की जरूरत नहीं होती क्या। आखिर है तो इंसान ही। उन्हें भी आराम की जरूरत होती है। आप लोगों को जाना है तो आप लोग जाइए”
“यह अदनी सी बच्ची! हम से जुबान लड़ाती है। तेरी हिम्मत कैसे हुई हम से इस तरह से बात करने की”
“मेरे पापा कुछ कहते नहीं है, तो इसका मतलब यह नहीं कि उनके लिए कोई कुछ बोलेगा नहीं। मैं हूं, और मैं अपने पापा के लिए जरूर बोलूंगी। किसी को बुरा लगे तो लगे”
और गुस्से में दरवाजा पटकती हुई चली गई नीलाक्षी। सब हक्के बक्के से खड़े रह गए। आखिर एक तेरह साल की बच्ची इतना कुछ सुना गई। जो बात शायद एक मां को समझनी चाहिए थी, वह बात एक बेटी ने समझी।
पहली बार किसी ने प्रदीप के बारे में बोला, वरना पत्नी के जाने के बाद मशीन बनकर ही रह गया था। जैसे उसकी कोई इच्छा ही ना हो। और सबने भी उसे ग्रांटेड ही लिया था। यहां तक कि उसकी मां ने भी कभी उसे नहीं समझा।
घर में करुणा जी, उनका बड़ा बेटा प्रदीप और उसकी इकलौती बेटी तेरह वर्षीय नीलाक्षी, छोटा बेटा रोहित, उसकी पत्नी शालिनी और उनके दो बच्चे नकुल और प्रीता थे। नीलाक्षी जब पाँच साल की थी, तभी उसकी मां की एक रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई थी। प्रदीप की पत्नी की मृत्यु के बाद तो कुछ दिन तो सब ने उसे दूसरी शादी के लिए कहा, पर जब वह तैयार नहीं हुआ तो सब चुप हो गए।
प्रदीप शुरू से ही जिम्मेदार पिता और बेटा रहा है। उसने हमेशा अपने परिवार को ही सर्वोपरि रखा है। और उसकी इसी आदत का फायदा रोहित और शालिनी उठाते थे। पर यह बात करूणा जी को कभी नजर नहीं आई क्योंकि शायद उनकी ममता रोहित के लिए ज्यादा थी।
रोहित घर में पैसा खर्च करने से हमेशा बचा करता था। महीने के पाँच हजार रुपये देकर वह अपने जिम्मेदारी की इतिश्री कर लेता था।
घर के खर्चो की जिम्मेदारी प्रदीप के ऊपर ही थी क्योंकि करुणा जी के अनुसार उसकी सिर्फ एक बेटी थी।
पर प्रदीप ने कभी अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा। उसे सिर्फ अपनी बेटी की अच्छी परवरिश से लेना देना था। आखिर परिवार में रहकर बेटी पल जाएगी, यही सोचकर वह हमेशा चुप रह जाता। क्योंकि जब भी उसने बोलने की कोशिश की करुणा जी ने उसे ही डांट कर चुप करा दिया,
“तेरा कौन सा परिवार है जो तू इतना सा भी नहीं कर सकता। ले देकर एक बेटी है, वह तो परिवार में ही पल रही है। वह भी एक दिन शादी करके ससुराल चली जाएगी। रोहित का परिवार ही तो तुझे आगे संभालेगा। दिन भर तो हम ही संभालते हैं तेरी बेटी को”
रिश्तेदारी में जहां भी देने का काम होता वहां प्रदीप को ही जाना पड़ता लेकिन हां, जहां से कुछ मिलना होता वहां रोहित और उसकी पत्नी पहुंच जाते।
कहीं भी, कोई भी जरूरी काम हो प्रदीप को ही करना पड़ता था। चाहे बैंक का काम हो या चाहे बिजली के बिल का या करुणा जी की पेंशन का काम हो चाहे किसी सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाना हो, प्रदीप को ही हर काम छोड़ कर भेजा जाता था। रोहित को करूणा जी ने हर ज़िम्मेदारी से बचा रखा था।
पर नीलाक्षी अब बड़ी हो रही थी। उसे भी समझ में आता था कि किस तरह घर के बाकी सदस्य पापा के साथ गलत व्यवहार कर रहे हैं। सारी जिम्मेदारी सिर्फ उसके पापा के ऊपर ही थी और अगर वह कभी किसी काम के लिए कुछ कहते हैं तो चाचा, चाची और दादी तीनों हंगामा कर देते हैं।
और आज यही हुआ। प्रदीप को रात से तेज बुखार था। हालांकि दवाई लेने के कारण अभी बुखार कम हो गया था, पर बुखार था तो सही। पर करुणा जी को आज रिश्तेदारी में जाना था, उनके मायके में कोई खत्म हो गया था। और इसके लिए वे प्रदीप को ही बुला रही थी। उनके और रोहित के अनुसार प्रदीप बड़ा बेटा है, तो उसे ही जाना चाहिए।
पर जब उन्होंने प्रदीप को आवाज लगाई तो नीलाक्षी वहां आ गई और उसने दो टूक जवाब दे दिया कि मेरे पापा कहीं नहीं जाएंगे। बस उसके बाद ही यह बहस हुई थी।
पर एक बच्चे के कहने से घर के लोग चुप हो जाए, वह तो हो नहीं सकता। तो करुणा जी, शालिनी और रोहित ने अपना ही राग शुरू कर दिया,
“भाईसाब खुद नहीं बोल सकते थे क्या? जो बेटी को आगे कर दिया। अच्छे से इज्जत उतारी हैं हम तीनों की”शालिनी ने कहा।
रोहित भी कहां पीछे रहने वाला था,
“देखा मां, यह है आपकी इज्जत। अब इस घर में आपको बच्चे तक सुनाएंगे। हमने तो इसलिए कहा था कि भाई बड़ा है घर में। और ऐसी जगह पर, ऐसे कामों में भाई का जाना ज्यादा बेहतर होता। उन्हीं का मान बढ़ता। पर हमें क्या पता था कि इतनी सी बच्ची इतना सुना जाएगी”
करुणा जी भी कहां पीछे रहने वाली थी। आंखों में आंसू भर के जोर जोर से रोना धोना शुरू कर दिया,
“मेरे ही काम करते सबको रोना आता है। इससे अच्छा तो मैं तेरे पिताजी के साथ ही दुनिया से चली जाती। कम से कम यह दिन तो देखना नहीं पड़ता। किस्मत ही खराब है मेरी। मेरे ही घर में मुझे यह सब सुनाया जा रहा है। वह तो मकान मेरे नाम है, नहीं तो धक्के देकर निकाल देते”
काफी देर से कमरे में चुपचाप सुन रहे प्रदीप से से रहा नहीं गया। आखिर वह उठकर बाहर आया,
“क्या हुआ मां? आप नीलाक्षी की बात का इतना बतंगड़ क्यों बना रही हो। बच्ची ही तो है”
“बच्ची ही है, पर इतना सुना गई। तेरे लिए सिर्फ तेरी बच्ची ही है, मैं तो कुछ हूं ही नहीं”
“मां, अगर आपको ऐसा लगता है तो कोई बात नहीं। मैं मेरी बच्ची को लेकर कहीं और मेरा बंदोबस्त कर लूँगा। आप लोग खुश रहिए ।वैसे भी आपका ही घर है। मैं कौन होता हूं आपको कुछ बोलने वाला”
“मैंने कब कहा कि तू यहां से चले जा”
“अभी आपने नहीं कहा कि यह मकान मेरे नाम पर है, नहीं तो मुझे घर से धक्के मार कर निकाल दिया जाता। उसका और क्या मतलब होता है”
“तू अपनी बेटी के लिए अपनी मां से लड़ रहा है”
“हां मां, मैं अपनी बेटी के लिए अपनी मां से लड़ रहा हूं क्योंकि शायद मेरी मां ने तो मुझे कभी अपना समझा ही नहीं, सिर्फ जिम्मेदारी उठाने का जरिया मान लिया। इंसान हूं, प्यार के दो बोल मुझे भी चाहिए होते हैं, जो सिर्फ मुझसे मेरी बेटी के अलावा कोई नहीं बोलता। सबको अपने काम से मतलब होता है। जिम्मेदारी किसी एक पर ही क्यों मां? अगर रोहित कोई काम कर देगा तो कुछ बिगड़ जाएगा क्या”
जिस बेटे के मुंह से कभी एक वाक्य भी अपने खिलाफ नहीं सुना, आज उस बेटे के मुंह से इतना कुछ सुनकर करूणा जी चुप हो गई। उस दिन रिश्तेदारी में रोहित और करूणा जी ही गए। पर प्रदीप का रवैया देखकर अब करुणा जी ने जिम्मेदारी बराबर बांट दी।
हालांकि अभी भी कई बार रोहित के लिए मां की ममता उफान मारती है, पर अपने पिता के लिए एक बेटी हमेशा बोलने को तैयार खड़ी रहती है।
मौलिक व स्वरचित
लक्ष्मी कुमावत