*प्रमोद जैन पिंटू*
लोकतंत्र में दुनिया में सबसे पहली बार नोटा का विकल्प हिंदुस्तान के चुनाव में प्रयोग किया गया!
दरअसल इसविकल्प में मतदाता को यह छूट रहती है कि यदि उसे कोई प्रत्याशी पसंद नहीं है तो वह नोटाl का विकल्प चुनकर अपनी असहमति जाहिर कर सकता है!
नोटा में दिया गया मत प्रारंभिक तौर पर रद्द नहीं माना जाता और उसे गिना जाता है!
लेकिन इसकी उपयोगिता क्या है यह एक बहुत बड़ा सवाल है?
क्योंकि नोटा को उम्मीदवार की तरह नहीं माना जाता सिर्फ
असहमति का प्रतीक बना कर रखा गया है यदि नोटा के विकल्प को उम्मीदवारों से ज्यादा वोट मिलते हैं और यदि किसी भी उम्मीदवार को एक वोट भी मिल जाता है तो फिर नोटा के वोट रद्द मान लिया जाता है!
और उसका उपयोग गिनती भर के लिए हो जाता है जब चुनाव प्रणाली में असह मति का विकल्प चुना गया है तो यह सुधार करना चाहिए यदि नोटा को मिले मत
किसी भी उम्मीदवार को मिले मत से ज्यादा हो तो चुनाव प्रक्रिया को दोबारा संपन्न करवाना चाहिए!
अभी जो नियम है उसके अंतर्गत 100% नोटा को वोट मिलने पर ही चुनाव को दोबारा करवाया जाने की बात कही गई है!
सवाल यह है कि जब जनता खड़े हुए उम्मीदवारों के प्रति अपनी सहमति नहीं रखती है तो उसका सम्मान होना चाहिए!
जनता किसी असामाजिक या अराजक व्यक्ति के समूह को ना करना चाहे तो भी वह संभव नहीं हो पता क्योंकि उस उम्मीदवार का व्यक्तिगत मत भी उसे मिल जाए, तो फिर इस विकल्प की उपयोगिता समाप्त हो जाती है!
इंदौर में इस वक्त नोटा को लेकर एक लहर चल रही है, बहुत बड़ी संख्या में लोग वहां की राजनीति में घटी घटनाओं का विरोध करना चाहते हैं लेकिन उसका लाभ क्या मिलेगा?
जिन लोगों के इशारों पर वह घटनाएं घटी है उनके उम्मीदवार तो अंततः चुनाव जीत ही जाएगा जो उनका अंतिम लक्ष्य है! चाहे जनता का एक बड़ा हिस्सा उस से p असहमत हो?
क्या इस विमर्श से आप सहमत हैं?
नोटा के विकल्प पर एक व्यापक विमर्श की जरूरत है!