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अब आधुनिकता और बाजारवाद की चपेट में आ गए है गाँव

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 -कुलदीप समदर्शी (वर्धा)

भारत के गाँव, जो एक समय आत्मनिर्भरता, शांति और सामूहिकता के प्रतीक हुआ करते थे, अब तेजी से बदल रहे हैं। यह परिवर्तन शहरीकरण, तकनीकी प्रगति और बदलते सामाजिक मूल्यों से प्रेरित है। इन बदलावों का प्रभाव ग्रामीण भारत के परिदृश्य, संस्कृति और जीवन शैली पर साफ देखा जा सकता है। जहाँ पहले गाँव में भाईचारा, प्रेम भाव और सादगी की भावना थी, अब वो भी आधुनिकता और बाजारवाद की चपेट में आ गए है

देश की बड़ी आबादी गाँवों में रहती है, लेकिन रोजगार, शिक्षा और बेहतर जीवन की तलाश में लोग गाँवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन कर रहे हैं। रोज़मर्रा की जरूरतों ने उन्हें इस कदर मजबूर कर दिया है कि शहरों की ओर जाने वाली ट्रेनें और बसें ठसाठस भरी रहती हैं। लेकिन जब भी लोग जीवन में शांति, ठहराव और खुशहाली की बात करते हैं, तो अक्सर गाँवों की याद आती है। वे सोचते हैं कि गाँव अब भी वैसे ही हैं जैसे वे पहले थे, लेकिन सच्चाई इससे काफी अलग हो चुकी है। गांव में अब उदासीनता छा गई।गांव की गालियों में झुरिया छा गई है।

मै उस समय समझदारी के क्रम था उस समय गांव में आपसी प्रेम सहयोग थोडा थोडा बचा हुआ था दो साल के अंतराल में गांव में बहुत कुछ बदल गया । 2010 से 2012 के बाद से गाँवों में भी तेजी से बदलाव देखने को मिले हैं। पहले जहा पर गाँव में भाईचारा, प्रेम और सादगी की सभ्यता का वास था, वहीं अब द्वेष, जलन और स्वार्थ का माहौल बढ़ता जा रहा है। एक समय था जब गाँव के लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर रहते थे, लेकिन अब वह सामूहिकता और सहयोग का भाव धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। चौपाल और बैठकों का दौर भी अब लगभग समाप्त हो चुका है, और लोगों के बीच मेलजोल पहले जैसा नहीं रहा।

गाँवों में अब वोट बैंक की राजनीति चरम पर है। ठेकेदारों और नेताओं की मिलीभगत ने गाँव के सामूहिक ताने-बाने को कमजोर कर दिया है। हालाँकि, पिछले कुछ वर्षों में 20% लोग वोट के महत्व को समझने लगे हैं, लेकिन फिर भी अधिकतर लोग इसे मामूली मानते हैं और इससे वंचित रह जाते हैं। यह स्थिति इसलिए बनी है क्योंकि सरकारों और सरपंचों ने लोगों को जागरूक करने का प्रयास नहीं किया, जिससे उनका वर्चस्व बना रह सके। “फूट डालो और राज करो” की नीति का सच अब उजागर हो रहा है।

संयुक्त परिवार, जो गाँवों की पहचान थे, अब धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं। आजकल, शादी के कुछ ही समय बाद पति-पत्नी अलग रहने का निर्णय ले लेते हैं। छोटी-छोटी बातों पर बड़े-बड़े मुकदमे चल रहे हैं, और भाईचारा खत्म होता जा रहा है। गाँवों में अब लोग एक-दूसरे के साथ उठना-बैठना कम पसंद करते हैं, और राजनीति हर जगह हावी हो गई है। यह स्थिति समाज में विद्वेष और अविश्वास को बढ़ावा देती है, जिससे लोग एक-दूसरे के प्रति दुर्भावना रखने लगे हैं। अब लोगो में एक दूसरे के प्रति मनभेद बहुत बढ गए है।

गाँव में समानता का भाव अभी भी पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाया है। कई जगहों पर अभी भी छुआछूत जैसी प्रथाएँ कायम हैं, जहाँ अंतरजातीय भोज संभव नहीं हो सकता। सामाजिक बराबरी की बात करें तो स्थिति काफी चिंताजनक है, और इस दिशा में प्रगति शून्य के समान है। यह असमानता गाँव में जातिवाद और भेदभाव की गहरी जड़ों को दर्शाती है,जिससे सामाजिक समरसता और विकास में बाधा उत्पन्न होती है। और हम बात करते है भारत विश्वगुरू बनने के क्रम में खड़ा है। क्या ऐसे ही विश्वगुरु भारत बनेगा। इस सच्चाई को झुठला नहीं सकते है। सामाजिक असमानता अभी भी भारत में कायम है।

पर्यावरण और परंपराओं में बदलाव

गाँवों में पर्यावरण भी पहले जैसा नहीं रहा। पहले जहाँ हरियाली और शुद्ध हवा का माहौल होता था, वहीं अब प्रदूषण और कटाई-छंटाई ने इसे भी प्रभावित किया है। अब बंजर जमीन भी बहुत कम बची है। क्योंकि हर जगह पैदावार की भूख बढ़ गईं हैं।हालांकि रूढ़िवादिता में कुछ कमी आई है, 2016 के बाद जातियों में अपनी पहचान को लेकर संघर्ष शुरू हो गया है। हर जाति अपने अपने भगवान और वीर योद्धा ढूढने लगी है।लेकिन कई पुरानी परंपराएँ जैसे पर्दा प्रथा, बाल विवाह, बाल मजदूरी अभी भी कुछ जगहों पर बरकरार हैं। शिक्षा के प्रति उदासीनता भी गाँवों में एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

निष्कर्ष

गाँवों का यह परिवर्तन एक गंभीर चिंतन का विषय है। जहाँ एक ओर यह विकास की ओर इशारा करता है, वहीं दूसरी ओर यह हमारे पारंपरिक मूल्यों, संस्कृति और सामूहिकता को कमजोर कर रहा है। यह आवश्यक है कि हम इस बदलते परिदृश्य को समझें और गाँवों के मूल्यों, पर्यावरण और सामाजिक सामंजस्य को बनाए रखने के लिए प्रयास करें। जैसे-जैसे गाँव बदलते समय के साथ ढलते हैं, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यह परिवर्तन ग्रामीण भारत की जड़ों को कमजोर न करे। अब गांव गांव नही रह गए हैं।

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