~ पुष्पा गुप्ता
इज़रायल पर हमास का हमला और कुछ नहीं बल्कि 75 साल पुराने क्रूर क़ब्ज़े और दमन के ख़िलाफ़ और 15 साल से अधिक समय से जारी गाज़ा पट्टी की अमानवीय नाकाबन्दी के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का युद्ध है, वही *गाज़ा पट्टी जहाँ दुनिया की सबसे सघन बसावट है, जहाँ शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है और बेरोज़गारी, ग़रीबी, कुपोषण और भूख अपने चरम पर है। यह दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल है, जहाँ इज़रायल की ज़ायनवादी सत्ता नियमित रूप से अपने हथियारों का परीक्षण करती है, और इस प्रकार अपने सम्भावित ख़रीदारों के सामने इनका प्रदर्शन करती है। गाज़ा की घेरेबन्दी स्वयं मानवता के ख़िलाफ़ एक अपराध है!*
7 अक्टूबर को जो हुआ, वह गाज़ा के बन्दियों द्वारा अपनी आज़ादी के लिए उस क़ैदख़ाने को तोड़ने का ही एक क़दम था। निश्चित रूप से यह एक प्रतिरोध युद्ध था और अन्य सभी युद्धों की तरह यह भी क्रूर था। हालाँकि इतिहास की समझ और न्याय की भावना रखने वाला कोई भी व्यक्ति उन हज़ारों सेटलर इज़रायलियों और सैकड़ों पर्यटकों के साथ सहानुभूति नहीं रख सकता जो दक्षिण इज़रायल के रेगिस्तान में क्रूर और नस्लवादी सेटलर्स के जश्न का आनन्द लेना चाहते थे, जो रेव पार्टी और इलेक्ट्रॉनिक डांस पार्टी में मशगूल थे जबकि उनसे कुछ ही किलोमीटर दूर छोटे बच्चे, स्त्रियाँ और बुज़ु़र्ग गाज़ा की अमानवीय घेराबन्दी के कारण सालों से मारे जा रहे थे।
आपको क्या लगता है कि गाज़ावासियों द्वारा इस प्रकार के प्रतिशोध और जेल ब्रेक के दौरान उन इज़रायली सेटलर्स के साथ क्या हो सकता था, जो गाज़ा सीमा पर इस प्रकार के अश्लील नाच का प्रदर्शन कर रहे थे जबकि सीमा के उस पार कितने ही मासूम और निर्दोष लोगों के दर्द और पीड़ा का समन्दर था! कोई भी ऐसा व्यक्ति इस बात पर सिर्फ़ खेद ही प्रकट कर सकता है जब वह इज़रायली रेव पार्टी के पीड़ितों के साथ सहानुभूति और संवेदना रखने से चूकता है! वे बस नहीं कर सकते!
हमें एक और चीज़ पर स्पष्ट हो जाना चाहिए, वह यह कि इन सबका मूल कारण फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर ज़ायनवादी सेटलर क़ब्ज़ा होना है। महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू तक ने इज़रायली सेटलर्स द्वारा फ़िलिस्तीनी अवाम के विस्थापन का विरोध किया था। बाल्फ़ोर घोषणा और फ़िलिस्तीन के जनादेश के पहले अरब मुस्लिम, अरब यहूदी, अरब ईसाई उसी भूमि पर एक साथ रह रहे थे।
इज़रायल देश का निर्माण मूलतः ज़ायनवादियों (जो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में धुर दक्षिणपन्थी नस्लवादी राजनीतिक रुझान के तौर पर अस्तित्व में आया था और दक्षिणपन्थी नस्लवादी यहूदी राष्ट्र की वकालत कर रहा था) के ब्रिटिश व पश्चिमी साम्राज्यवादियों (जो 1908 के बाद से मध्यपूर्व में तेल के सबसे बड़े स्रोत की खोज के बाद वहाँ पर साम्राज्यवादी हितों की रक्षा करने के लिए एक चेक पोस्ट स्थापित करना चाहते थे) के गठजोड़ के फलस्वरूप हुआ था।
आपको क्या लगता है कि पश्चिमी साम्राज्यवादी ताक़तें फ़िलिस्तीनियों पर हो रहे इज़रायली अत्याचारों के प्रति आँखें क्यों मूँद लेती हैं और बड़े बेशर्म और बेहूदे तरीक़े से “इज़रायल के अपनी रक्षा करने के अधिकार” के बारे में फ़र्ज़ी बातें क्यों करती हैं? क्योंकि इज़रायल एक ज़ायनवादी-साम्राज्यवादी सेटलर कॉलोनी के अलावा और कुछ नहीं! अगर इज़रायल को उस फ़िलिस्तीनी अवाम के प्रतिरोध के ख़िलाफ़ ख़ुद का बचाव करने का अधिकार है, जिसका उसने लगभग एक सदी से (फ़िलिस्तीन के ब्रिटिश मैंडेट के समय से) बर्बर दमन व उत्पीड़न किया है, तब डचों को भी कांगो में “ख़ुद का बचाव करने का अधिकार” था, फ्रांसीसीयों को अल्जीरिया में “खुद को बचाने का अधिकार” था, अमेरिकियों को इराक़, अफ़ग़ानिस्तान और वियतनाम में “ख़ुद को बचाने का अधिकार” था, अंग्रेज़ों को 1857 के भारतीय विद्रोह के ख़िलाफ़ और एचएसआरए के क्रान्तिकारियों के प्रतिरोध कार्यों के ख़िलाफ़ “ख़ुद को बचाने का अधिकार” था!
जब झूठ की घनघोर बारिश हो रही हो तब एक बार फ़िर से सत्य को दोहराओ, औपनिवेशिक सेटलर्स और उत्पीड़कों को आत्मरक्षा का कोई अधिकार नहीं!
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि साम्प्रदायिक फ़ासीवादी मोदी सरकार ज़ायनवादी सेटलर उपनिवेशवादियों के पक्ष में खड़ी है क्योंकि वे नैसर्गिक रूप से एक दूसरे के सहयोगी हैं, दोनों ही अन्धराष्ट्रवादी हैं, दोनों जन-विरोधी हैं, दोनों साम्प्रदायिक और/या नस्लवादी हैं, दोनों पूँजीपतियों के पिट्ठू हैं और दोनों ही लोकतन्त्र के ख़िलाफ़ हैं। इसके अलावा, संघ परिवार को औपनिवेशिक ताक़तों का साथ निभाने में महारत हासिल है, चाहे वह ब्रिटिश हों या इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी। (याद है? इन्ही लोगों ने आज़ादी की लड़ाई के योद्धाओं और हमारे उन क्रान्तिकारियों के ख़िलाफ़ ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के समक्ष मुखबिरी की थी जिन्होंने भारत की आज़ादी के लिए अपनी जान तक क़ुर्बान कर दी थी।) मोदी ने भारतीय विदेश नीति को बदल दिया है, जो ऐतिहासिक रूप से, कम से कम औपचारिक तौर पर ही सही लेकिन फ़िलिस्तीन के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करने और इज़रायल में सेटलर उपनिवेशों का विरोध करने के लिए जानी जाती थी।
मोदी सरकार के ज़ायनवादियों के साथ इस गठजोड़ का एक और कारण यह है कि फ़िलिस्तीनी मुख्यतः मुसलमान हैं (पर ध्यान रहे सिर्फ़ मुसलमान नहीं! बल्कि अरब यहूदी और अरब ईसाई भी हैं!) संघी फ़ासिस्टों द्वारा खड़ा किया गया नक़ली दुश्मन इत्तेफ़ाक़ से ज़ायनवादी सत्ता के पीड़ितों से मेल खाता है।
इज़रायली सेटलर राज्य द्वारा मानवता के विरुद्ध किये गये अपराध को न्यायोचित ठहराने के लिए हॉलोकास्ट की त्रासदी का लगातार इस्तेमाल करना सभी प्रकार के तर्कों का प्रहसन है। हॉलोकास्ट की त्रासदी भी साम्राज्यवाद का और पूँजीवादी संकट का ही अन्तिम परिणाम है जिसके फलस्वरूप जर्मनी, इटली और यूरोप के कुछ देशों में धुर दक्षिणपन्थी / फ़ासीवादी अन्धराष्ट्रवादी नस्लवादी सत्ताओं का जन्म हुआ था। एण्टी-सेमेटिज़्म (यहूदी-विरोधी विचारधारा) का एक लम्बा इतिहास है और इस समस्या का समाधान जनता के शोषण और उत्पीड़न पर आधारित व्यवस्था के अन्तर्गत सम्भव नहीं है, क्योंकि शोषक और उत्पीड़क वर्ग जोकि मेहनतकश जनता पर राज करते हैं, हमेशा जनता को बाँटने के हथियारों की तलाश में रहते हैं, जनता के बीच अन्धराष्ट्रवादी लहर को हवा देते हैं और किसी ऐसी क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति में जनता भी ऐसी अन्धराष्ट्रवादी साज़िश का शिकार बनती है।
इसके अतिरिक्त आज जर्मन नात्सी और ज़ायनवादियों के बीच गठजोड़ के पुख़्ता सबूत मौजूद है। वे एक दूसरे के विपरीत नहीं बल्कि अन्धराष्ट्रवाद और नस्लवाद के दो विभिन्न प्रजातियों के रूप में एक दूसरे के पूरक हैं। “यहूदियों के लिए पितृभूमि” होने के इस तर्क को ख़ुद दुनियाभर के यहूदियों की एक अच्छी ख़ासी आबादी ने ख़ारिज किया है, जिन्होंने इस तर्क का खण्डन किया है कि यहूदी समुदाय कोई राष्ट्र है जिन्हें एक राष्ट्र-राज्य की ज़रूरत हो। वे साफ़ तौर पर यह कहते हैं कि वे एक धार्मिक समुदाय हैं ना कि राष्ट्रीय समुदाय, हालाँकि कुछ देशों में वे एक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक के रूप में मौजूद हैं और उन अधिकारों के हकदार हैं जोकि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक के नाते किसी को मिलना चाहिये। पोलिश भूमि पर चीर काल से रह रहे पोलिश यहूदियों की पितृभूमि पोलैण्ड है।
यही बात रुसी , यूक्रेनी, फ़्रांसिसी और ब्रिटिश यहूदियों पर भी लागू होती है। अगर आप पृथक यहूदी राष्ट्र-राज्य के निर्माण की माँग के इतिहास को देखेंगे तो पायेंगे कि यह 19वीं सदी के अन्त का उत्पाद है, जोकि बड़ी पूँजी और साम्राज्यवादियों द्वारा वित्तपोषित अन्धराष्ट्रवादी नस्लवादी विचारधारा और ज़ायनवादी राजनीति का परिणाम है।
कोई भी व्यक्ति जिसमें न्याय, बराबरी और निष्पक्षता की थोड़ी भी भावना है, वह स्वस्थ मन से इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादी राज्य का समर्थन नहीं कर सकता! हम सभी जानते हैं कि इस मसले का केवल एक ही समाधान है- फ़िलिस्तीन का एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में स्थापित होना जहाँ मुस्लिम, यहूदी और ईसाई एक साथ रह सकें।
हमास का उद्देश्य ऐसे किसी धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करना है या नहीं, यह इज़रायली सेटलर्स द्वारा औपनिवेशिक गु़लामी और नस्लवादी रंगभेद का विरोध करने के फिलिस्तीनियों के अधिकार का आधार नहीं बन सकता है; अपने नेतृत्व का चुनाव करने का अधिकार फिलिस्तीनियों का अपना अधिकार है और सच तो यह है कि हमास इज़रायल के खा़त्मे या यहूदियों के क़त्लेआम की बात नहीं कर रहा, आप ख़ुद इसे देख सकते हैं!
वो 1967 के दौर में मौजूद सीमाओं को वापस बहाल करने की माँग कर रहा है, द्वि-राज्य समाधान की बात कर रहा है और नये सेटलर उपनिवेश पर रोक और 100000 गाज़ाई बन्दियों के रिहाई की माँग कर रहा है। तात्कालिक रूप से वे गाज़ा की घेरेबन्दी को ख़त्म करने की माँग उठा रहे हैं जोकि बुर्जुआ अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून के मानक से भी एक बिलकुल जायज़ मांग है।
इसमें कोई शक नहीं है कि हमास एक इस्लामिक संगठन है और हम किसी प्रकार के धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन, चाहे वह किसी भी रंग का हो, का समर्थन नहीं कर सकते। हालाँकि हमास का विचारधारात्मक रूप से विरोध करना इज़रायली सेटलर औपनिवेशिक कब्ज़े के ख़िलाफ़ फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का विरोध करना नहीं है! तो हमारे भारतीय निवासियों जाग जाओ! इज़रायली सेटलर उपनिवेशवादियों के विरुद्ध चल रहे फ़िलिस्तीनी जनता के मुक्ति संघर्ष का समर्थन करो! पश्चिमी साम्राज्यवादी मीडिया और गोदी मीडिया के प्रचार से छुटकारा पाओ.
इज़रायल और फ़िलिस्तीन के इतिहास का अध्ययन करो और फ़िलिस्तीनी जनता के साथ हुए इस ऐतिहासिक अन्याय को समझो!