बालेश्वर त्यागी, पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश
एक दिन कल्याण सिंह के साथ मैं और संस्थागत राज्य मंत्री हरिद्वार दूबे मुख्यमंत्री कार्यालय के पंचम तल से लिफ्ट से नीचे आ रहे थे। हरिद्वार दूबे ने कहा कि कलराज मिश्र को आवश्यक बैठक के लिए दिल्ली बुलाया गया है। उनके लिए हवाई जहाज की व्यवस्था कर दीजिए। कल्याण सिंह ने पूछा, ‘साथ कौन जाएगा?’ उन्होंने कहा, ‘बालेश्वर त्यागी को भेज दीजिए।’ मैं मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ। मेरे लिए जीवन की पहली हवाई यात्रा थी, इसलिए बड़ा चाव भी था। हवाई अड्डे पर राजकीय विमान तैयार था। उसमें पायलट समेत 4 सीटें थीं।
जैसे ही हवाई जहाज ऊपर उड़ा, डर लगने लगा। जहाज बहुत छोटा था। बार-बार नीचे-ऊपर हिचकोले खाता था। कभी ऊपर उठता तो कभी ऐसा लगता कि नीचे गिर रहा है। मैंने दोनों हाथों से कसकर सीट पकड़ ली। अनायास हनुमान चालीसा याद आ गया। मन में बार-बार यही लग रहा था कि आज जान नहीं बचेगी। जब उड़ते-उड़ते एक घंटा हो गया तो मैंने साहस बटोर कर पायलट से पूछा कि हम कहां पहुंच गए? उसने बताया कि फर्रुखाबाद के ऊपर हैं। मैंने कहा, ‘रास्ते में फर्रुखाबाद तो नहीं आता।’ उसने कहा, ‘हवा बहुत तेज है। इसलिए रास्ता बदला है।’ अब तो और भी डर लगने लगा। कलराज मिश्र विमान में बैठते ही सो गए थे। लगभग डेढ़ घंटे बाद मैंने फिर पायलट से पूछा, ‘अभी दिल्ली नहीं पहुंचे?’ उसने कहा, ‘अभी बुलंदशहर के ऊपर हैं। हवाई पट्टी खाली न होने के कारण ट्रैफिक कंट्रोल ने यहीं चक्कर लगाने को कहा है।’ मैं सोचने लगा कि कितना अच्छा होता मैं उस दिन एनेक्सी में उपस्थित नहीं होता तो इस यात्रा से बच जाता। अब मन ही मन हरिद्वार दूबे को गालियां देने लगा था कि उसने मुझे मरने के लिए भेज दिया। आखिर जैसे-तैसे एक घंटा और पचास मिनट बाद हम दिल्ली उतरे। लेकिन वापसी में जहाज ऐसा चला जैसे पानी पर तैर रहा हो। एक घंटे में लखनऊ पहुंच गए। सकुशल वापसी के लिए भगवान को धन्यवाद दिया।
पिता के साथ बैठा था भाई
1991 के विधानसभा चुनाव में मैं पहली बार विधायक चुना गया। चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने। 19 दिन बाद मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ तो मुझे राज्य मंत्री (राजस्व) बनाया गया। मंत्री बनने के बाद पहली बार गाजियाबाद आया तो रेल से हापुड़ में ही उतर गया। वहां जलपान में शामिल होने के बाद सड़कमार्ग से गाजियाबाद के लिए चला। रास्ते में स्वागत के कई कार्यक्रम थे। बीजेपी पहली बार गाजियाबाद विधानसभा का चुनाव जीती थी। कार्यकर्ताओं में बड़ा उत्साह था। स्थान-स्थान पर स्वागत होता रहा। स्वागतों का दौर पूरा करके तीन बजे के करीब घर पहुंचा। घर पहुंचते ही पिताजी से मिला। वह मेरे साथ गाजियाबाद में ही रहते थे। तुरंत बोले, ‘बड़ी देर कर दी, ये तेरा छोटा भाई सुबह से इंतजार कर रहा है।’ मैंने उससे पूछा, ‘क्या कोई बात है?’ भाई ने कहा, ‘गांव का जो पटवारी है, उसका रिश्तेदार कानूनगो है। उसका कहीं तबादला हो गया है, उसे रुकवाना है। यह कई दिन से घर दौड़ रहा है।’ मैं छोटे भाई और पिताजी को घर में अंदर ले गया और दरवाजा बंद करके बोला, ‘मंत्री बनने के बाद लाल बत्ती की एक सरकारी गाड़ी मिली है। लखनऊ सचिवालय में एक दफ्तर मिला है। एक पीएस मिला है। दो पीए मिले हैं। सुरक्षाकर्मी मिले हैं। यदि ये अच्छा लगता हो तो ठीक है और नहीं तो मुख्यमंत्री जी को लौटा देते हैं और कह देते हैं कि हम इसे संभालने में असमर्थ हैं।’ पिताजी ने कहा कि तूने ये क्या बात कही? मैंने कहा, ‘आज तो पहला ही दिन है, यह सुबह से अपना काम छोड़ कर यहां बैठा है। फिर इसे काम वाले लखनऊ लेकर जाएंगे। होटल में ठहराएंगे, हो सकता है शराब भी पिलाएं। अपना तो काम चौपट हो जाएगा और लोग कहने लगेंगे कि मंत्री का भाई दलाली करता है। मेरा भी राजनीतिक जीवन संकट में पड़ जाएगा।’ पिताजी तो मेरी बात से प्रसन्न हुए, लेकिन छोटे भाई को मेरी बात अच्छी नहीं लगी।
मिलने आया गन फैक्ट्री का मालिक
अभी मैं गृह विभाग में राज्य मंत्री बना ही था कि एक दिन सचिवालय में एक नवयुवक मुझसे मिला। उसके साथ एक और व्यक्ति था। उस नवयुवक ने बताया कि उसकी एक गन फैक्ट्री देहरादून में है, राजस्थान में विस्फोटकों की फैक्ट्री है। मैंने कहा कि आपको गृह विभाग से कोई समस्या हो तो बताओ। उसने कहा कि अभी तो कोई समस्या नहीं है। अभी तो केवल औपचारिक मुलाकात के लिए आया था। चलते-चलते बोला कि मैं आपके आवास पर आना चाहता हूं। मैं दारुलशफा के बी ब्लॉक में रहता था। शाम लगभग 6 बजे वह नवयुवक अकेला मेरे पास आया। मैंने पूछा कि आपके साथ एक और सज्जन थे, वह कहां रह गए? उसने बताया कि बाहर बैठे हैं। मैंने कहा, ‘उन्हें भी बुला लें।’ जब वह सज्जन भी आ गए तो मैंने उनका परिचय पूछा। पता चला कि वह गाजियाबाद के ही रहने वाले हैं। मैंने कहा, ‘ये तो गलत हो जाता, मेरा मतदाता बाहर रहता और पहली बार मिलने आने वाला व्यक्ति अंदर चाय पीता।’ थोड़ी बातचीत के बाद उस नवयुवक ने नोटों का एक बंडल जेब से निकाला और मुझे देने लगा। मैंने पूछा, ‘यह क्या है?’ उसने कहा, ‘कुछ नहीं, वैसे ही छोटी-सी सेवा है। ये हम सभी की करते हैं।’ मैंने कहा, ‘मैं तो सेवा नहीं लेता।’ उसने कहा, ‘पार्टी फंड में जमा करा देना।’ मैंने कहा, ‘पार्टी ने मुझे फंड इकट्ठा करने का कोई दायित्व नहीं दे रखा है। आपके मन में पार्टी के सहयोग का भाव जगा है तो विधानसभा मार्ग पर बीजेपी का कार्यालय है, वहां जाकर जमा करा आओ।’ उसने मुझसे पूछा कि आप कभी किसी से पैसे नहीं लेते? मैंने कहा, ‘लेता हूं। लेकिन चुनाव के समय झोली फैलाकर चंदा लेता हूं।’
(त्यागी की पुस्तक ‘जो याद रहा’ से साभार)