समाज से बहिष्कृत होकर जिन्होंने रखी महिला सशक्तीकरण की नींव
महाराष्ट्र के एक छोटे से कस्बे मुरूद में एक दिन बड़ा उत्साह था। बड़ौदा के महाराज के एक प्रतिनिधि कस्बे में हर एक ब्राह्मण को 10 रुपये दक्षिणा बांट रहे थे। इसी कस्बे में केशवपंत कर्वे का परिवार भी रहता था। उनके बड़े बेटे भीकू ने जब यह सुना तो मां से दक्षिणा लेने जाने की जिद करने लगा। मां ने कहा कि एक समय हमारे परिवार ने बड़ौदा के महाराज को कर्ज दिया है। हम ही दक्षिणा लेने लगे तो फिर हमारा कोई स्वाभिमान कहां रहेगा। भीकू निराश हो गया। लेकिन छोटे भाई धोंडू ने इस बात को ध्यान से सुना और मन में रख लिया। बचपन में मां की इस सीख को आत्मसात करने वाले धोंडू को दुनिया ने आगे चलकर डॉ. धोंडो केशव कर्वे के नाम से जाना, जिन्होंने अपना पूरा जीवन महिला उत्थान में लगा दिया……
जन्म: 18 अप्रैल, 1858| मृत्यु: 9 नवंबर, 1962
महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के शेरावली गांव के एक निम्न वर्गीय परिवार में 18 अप्रैल, 1858 को धोंडो केशव कर्वे का जन्म हुआ था। वर्ष 1881 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया। 1891 में उन्होंने पूना (अब पुणे) के प्रसिद्ध फर्ग्युसन कॉलेज में गणित विषय पढ़ाना शुरू कर दिया। यह वह वक़्त था जब देश में क्रांतिकारी बदलाव हो रहे थे। कर्वे भी राजाराम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, विष्णु शास्त्री, पंडिता रमाबाई और ज्योतिराव फुले जैसे महान सुधारकों के संपर्क में आए। इनके विचारों से सहमत कर्वे ने भी देश में महिलाओं की, खासकर विधवाओं की स्थिति को सुधारने की दिशा में काम करने का प्रण लिया। कर्वे जब 14 वर्ष के थे तो उनका विवाह राधाबाई से हुआ था। लेकिन फिर साल 1891 में बच्चे के जन्म के दौरान बहुत ही कम उम्र में राधाबाई की मृत्यु हो गयी। इसका कर्वे पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
इसके बाद, कर्वे ने बाल विवाह, कम उम्र में गर्भधारण आदि के चलते होने वाली परेशानियां और बाल-विधवा जैसे मुद्दों पर न सिर्फ विचार-विमर्श किया, बल्कि साल 1893 में उन्होंने विधवा-पुनर्विवाह के लिए एक मण्डली बनायी। उदाहरण स्थापित करने के लिए उन्होंने खुद अपने एक दोस्त की विधवा बहन, गोदुबाई से शादी कर ली। कर्वे को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने पुणे की हिंगणे नामक जगह पर विधवाओं के लिए देश का पहला स्कूल शुरू किया। कर्वे की विधवा भाभी, पार्वती अठावले इस स्कूल की पहली छात्रा थीं। स्कूल के बाद उन्होंने 1907 में पुणे में महिला विद्यालय की भी स्थापना की, जो कि लड़कियों के लिए एक आवासीय स्कूल था। कर्वे के कार्यों की गूंज इस कदर बढ़ने लगी कि खुद महात्मा गांधी ने उनके सम्मान में अपने साप्ताहिक पत्र, इंडियन ओपिनियन में उनके बारे में लिखा। उस वक़्त गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। लेकिन वे खुद को कर्वे के लिए लिखने से नहीं रोक पाए। साल 1914 में कर्वे ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और खुद को पूरी तरह से अपने संगठनों के लिए समर्पित कर दिया। जापान में टोक्यो के महिला विश्विद्यालय के बारे में जानकर, कर्वे ने भी तय कर लिया कि वे भारत में भी सिर्फ महिलाओं के लिए एक यूनिवर्सिटी शुरू करेंगे। यूनिवर्सिटी निर्माण का चंदा इकट्ठा करने के लिए उन्होंने देश-विदेश की यात्राएं की। लगभग
2 .5 लाख रुपये के चंदे के साथ कर्वे ने यूनिवर्सिटी की नींव रखी, लेकिन पैसों की कमी के चलते काम बीच में ही रुक गया। ऐसे में, मुंबई के मशहूर उद्योगपति विठ्ठलदास दामोदर ठाकरसी ने इस विश्वविद्यालय को 15 लाख रुपए दान दिए। मात्र 5 छात्राओं के साथ साल 1916 में यह यूनिवर्सिटी शुरू हुई। लेकिन आज इस यूनिवर्सिटी के 26 कॉलेजों में हजारों छात्राएं पढ़ती हैं। शिक्षा के साथ-साथ कर्वे जातिवाद के मुद्दे पर भी काम करते रहे। गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए कर्वे ने “महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति” की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गांवों में 40 प्राथमिक विद्यालय खोले। इसके बाद उन्होंने ‘समता संघ’ की भी शुरुआत की, जिसके तहत उनका उद्देश्य लोगों को यह समझाना था कि सभी इंसान समान हैं। वर्ष 1955 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से अलंकृत किया गया। 1958 में उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया। n