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अपराधियों के आश्रम बने हुए हैं राजनीतिक दल

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गुलाब कोठारी

चुनावों में शुचिता लाने की दृष्टि से उच्चतम न्यायालय ने एक अहम मुद्दे को उठाते हुए केन्द्र सरकार तथा चुनाव आयोग से जवाब भी मांगा है कि जो नेता आपराधिक मामलों में दोषी करार दिए जाते हैं, वे चुनाव लड़कर संसद या विधानसभाओं में वापस कैसे आ सकते हैं? ऐसे दोषी नेताओं के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध क्यों नहीं? लोक प्रतिनिधित्व कानून की धारा-8 और 9 में प्रावधान है जिसमें दोषी की सजा पूरी होने के छह साल तक और भ्रष्टाचार में बर्खास्त व्यक्ति को पांच साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध है। कोर्ट भी राजनीति के अपराधीकरण को बड़ा मुद्दा मानता है। दोषी व्यक्ति को दल का पदाधिकारी भी नहीं बनाया जाना चाहिए। यह राष्ट्रीय मुद्दा है। राजनीति अपराध मुक्त रहनी ही चाहिए। इसके बिना लोकतंत्र की मजबूती और पारदर्शिता संभव नहीं है।

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में 46 प्रतिशत सांसदों के विरुद्ध आपराधिक मामले थे, जिनमें 31 प्रतिशत पर तो बहुत गंभीर थे। वर्ष 2009 की 31 प्रतिशत की संख्या आज बढ़कर 46 प्रतिशत हो गई। देश का कैसा विकास हुआ। लोकतंत्र तो शर्मसार हुआ, राजनेता रावण हो गए। लोकसभा की कुल 543 सीटों पर चुनाव लड़ने वाले 8338 प्रत्याशियों में 20 प्रतिशत पर गंभीर आपराधिक मामले थे। चिन्ता इस बात की है कि साफ छवि वाले 4.4 प्रतिशत के मुकाबले जीतने वाले आपराधिक प्रवृत्ति वाले 15.3 प्रतिशत, यानी तीन गुणा से अधिक थे। इनके चुनाव जीतने के अपने ढंग होते हैं। वर्ष 2019 से 2024 के मध्य 16 सांसदों और 135 विधायकों पर महिला अपराधों के मामले दर्ज हैं। राजनीतिक दलों के ऐसे ही चेहरे कमाऊ पूत होते हैं। उनको देश तथा लोकतंत्र से ज्यादा इन लाड़लों से अधिक प्यार होता है। हर चुनाव में ऐसे अपराधियों पर नरम रुख रखने के लिए आकाओं के फोन भी आते हैं, प्रलोभन भी दिए जाते हैं।

यह एक तथ्य है कि आज हम संतों के आचरण पर अंगुली उठाते हैं, किन्तु राजनीतिक दल तो खुलेआम अपराधियों के आश्रम बने हुए हैं। कोई दूध का धुला नहीं है।‘समरथ को नहीं दोष गुंसाई’। चुनाव के समय भाजपा के 39 प्रतिशत, कांग्रेस के 49 प्रतिशत, सपा के 57 प्रतिशत, तृणमूल के 45 प्रतिशत और डीएमके के 59 प्रतिशत सांसदों पर आपराधिक मामले लम्बित थे। सरकार के 42 प्रतिशत मंत्रियों पर भी गंभीर मामले थे। प्रत्येक दल इन महारथियों पर गर्व करता है। अकेले राजस्थान में ही मौजूदा 21 विधायकों के खिलाफ 24 आपराधिक मामले लम्बित हैं। कोई भी इनको कपूत नहीं मानता। इनको वोट देने वाला मतदाता ही कठघरे में खड़ा रहता है।

कानून भी जान-बूझकर ऐसे बनाए जाते हैं कि दलों की इच्छापूर्ति में बाधा न आए।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-आठ में किसी भी दोषी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है, लेकिन मामला लम्बित होने तक कार्रवाई नहीं होती। पिछले 75 वर्षों का इतिहास है कि इसी बहाने अपराधी राज करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’! सभी दल अपराधियों को बचाते रहते हैं। ईश्वर की तो शपथ ही खाई जाती है, उससे डरता कौन है?

आप पिछले इतिहास में झांक लें। हर चुनाव में जीत-हार का मुद्दा कोर्ट में गया तो पांच साल पूरे वहीं कर लेता है। इन मामलों की समयावधि 3-6 माह से अधिक नहीं होनी चाहिए। प्रभावी लोग न्यायप्रक्रिया पर हावी हो जाते हैं। दोष, हत्या-बलात्कार जैसा है तो उसे झूठा सिद्ध करने की जिम्मेदारी आरोपी की होनी चाहिए। तब तक अपराधमुक्त नहीं माना जा सकता। आम नागरिक की भांति उसे भी जेल में रहना चाहिए, निर्दोष सिद्ध होने तक। तब वह पूरी शक्ति लगाकर जल्दी ही दोषमुक्त होने का प्रयास करेगा/करेगी।

राजनीतिक दलों को भी संकल्प लेना ही चाहिए कि भले ही मामला लम्बित हो, ऐसे अपराधी को साथ नहीं रखेंगे। अब तो युवावर्ग का मतदाता बढ़ रहा है, हमें उसकी विवेकशीलता पर विश्वास करना चाहिए। वह अपने स्तर पर अभियान चलाकर मतदाताओं को प्रेरित करे कि अपराधी को वोट नहीं दिया जाए। सामाजिक-औद्योगिक संगठनों को भी ऐसे अभियानों से जुड़ना चाहिए। अब जाति-धर्म-वंशवाद की तो चिता जला देनी चाहिए। पूरे पांच साल अपराधियों से मुक्ति के लिए ईश्वर से भी प्रार्थना करते रहना चाहिए। वही उनको दण्डित कर सकता है।

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