~ डॉ. विकास मानव
मैं ऋषिकेश में था। एक संन्यासिन पद्मा मिलने आई। वह बात बात में अपने गुरु के लिए ‘गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरु साक्षात परब्रह्म.” बोलने लग जाती थी।
हमने उसे टोका और कहा :
पद्मा ये शब्द नहीं हैं. ये वो बेशकीमती गहने हैं. ये वास्तविक गुरू के लिए हैं. इनसे कोई-कोई शिष्य ही अपने गुरु का श्रृंगार करता है।
जिस पर ये जवाहरात जँचते हैं वो गुरु और ही होता है। वो सिर्फ गुरु होता है : भिखारी, दुराचारी, षड्यंत्रकारी, ज़िस्म और दौलत का भूखा नहीं, सर्वस्व दाता।
जो इतने बेशकीमती नगों से अपने गुरु का श्रृंगार करता है वो शिष्य भी सामान्य नहीं होता है। आदि शंकर ने सबसे कीमती इन हीरों से अपने गुरु का श्रृंगार किया है। न तुम्हारे गुरू वैसे हैं न तुम. क्या तुम्हें लगता है पद्मा कि तुम्हारा गुरु इन जवाहरातों को धारण करने की पात्रता रखता है ? क्या तुम वो शिष्या हो जो इन चोरी के हीरों से सही, अपने कथित गुरु का श्रृंगार करोगी ?
मतलब? उसने पूछा.
मैंने स्पस्ट किया :
ये शब्द आदिशंकर के हृदय से अपने गुरु के लिए प्रकट हुए हैं। ये आदि शंकर के हृदय का द्रावण है। आदि शंकर का हृदय जब अपने गुरु के लिए द्रवित हुआ तब ये शब्द अपने आप ही झरे हैं। ये शब्द राम और कृष्ण ने भी अपने गुरुओं के लिए उपयोग नहीं किये हैं।
ये शब्द आदि शंकर के हृदय से झरना बनकर फूटे हैं। जब गुरु के सानिध्य से कुछ जाना तब हृदय कृतज्ञता में स्वयं ही द्रवित हो गया। ये द्रावण मनुष्य जीवन में कभी-कभी ही होता है।
जब इंसान सच में किसी के प्रेम में होता हो तो जिह्वा नहीं बोलती है, बस आँखें बहती हैं। तुम्हें लगता है तुम्हारे जीवन में कभी ऐसा क्षण आया है ?
तुम सब कुछ के बारे में विचार करो। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसमें से तुम्हें विरासत की कमाई से क्या और कितना मिला है और तुम्हारी अपनी कमाई से क्या और कितना?
एक शब्द भी तुम्हारे तथाकथित गुरुओं की अपनी कमाई का नहीं है। सबकुछ चोरी का है। जिन मोटे-मोटे पोथन्नों से ये सभी बात करते हैं, वो इनके बाप दादों तक ने भी नहीं लिखे हैं। जब तुम्हारा पंथ अलग है, पूजा, प्रसाद सामग्री अलग है तो शब्द भी अलग होनी चाहिए। अपने हृदय के अंदर झाँको वो क्या कहता है, अपने गुरु के लिए ?
“बात तो सही कहा आपने, लेकिन…” वह “लेकिन” पर रुक गई. मैंने ही स्पस्ट किया :
सोचो बहना, सबके सामने बोलने में अच्छा लगता है, और बंद कमरे में ? अगर तुम्हारी अपने गुरु में इतनी श्रद्धा है तो इन शब्दों से हटकर कुछ और शब्दों से स्तुति गाकर दिखाओ ?
अगर मुझे किसी से प्रेम है तो? तो हर बार जब हम मिलते हैं तो यहीं से बात शुरू नहीं होती है कि ‘मुझे तुमसे प्रेम है |’ एक बार कह दिया बात खत्म। जब तुम कहती हो “गुरूर ब्रह्मा .” तो ऐसा लगता है अपने गुरु को आईना दिखा रही हो।
“तो मैं गलत राह पर चल रही हूँ मानव! अब?”
मैं बोला :
हमसे कहा गया गुरु की आलोचना नहीं करना है। परिणाम ये निकला लोगों ने सत्य कहना भी बंद कर दिया। यही तो चाहिए होता है धूर्तों को गुरु बनने के लिए, बस कोई सवाल न करे। पिछले आठ सौ साल में एक शब्द भी नया आया है क्या ?
बस मेकओवर सीख लिया है सबने। मुझे एक गुरु का नाम बताओ जो पिछले आठ सौ साल में पैदा हुआ हो। तुमसे तो पुराना भी ठीक से नहीं सम्हल रहा है।
पद्मा तुमको अब भी गंगा नहानी पड़ रही है। मुहूर्त देखना पड़ रहा है। मैं धिक्कारता हूँ ऐसे संन्यास को।
मुझे ये सोचना पड़ रहा है आखिर संन्यासी को स्वामी क्यों कहा जाता है। जगत मिथ्या है और गुरु सत्य है। ऐसा ढोंग तुम्हीं परोस सकती हो। अगर जगत मिथ्या है तो गुरु भी तो जगत में ही है। वो सत्य कैसे हो सकता है?
शब्द “गुरूर ब्रह्मा….।” ये शब्द मेरे आत्म-गुरु पर भी ठीक से जँचते नहीं हैं। जब कभी मेरे अंतःकरण में हूक उठती है तब मैं भी अपने अंतस-गुरु से संवाद करता हूँ। लेकिन वो मेरे हृदय का उद्गार होते हैं। उसमें चोरी उधारी के शब्द नहीं होते हैं। सच तो यह है कि मेरे पास शब्द ही नहीं होते हैं। बस आँखें सजल होकर बता देती हैं, अंदर कुछ तो घटा है।
आदि शंकर भिक्षा के लिए गए। एक गरीब महिला के घर आवाज लगाई। उस वृद्ध महिला की उत्कट इच्छा है कुछ दे। लेकिन घर में कुछ था ही नहीं तो रो पड़ी | वो रोई नहीं थी, गहन दुख के कारण हृदय से पीड़ा बह निकली थी। चाहे पीड़ा से हो या खुशी से या फिर आनंद से जब भी हृदय द्रावण होता है तब आसमान हिलता है। आदि शंकर उस वस्तुस्थिति को जान गए। उस महिला की पीड़ा से आदि शंकर का हृदय दयाद्र होकर द्रवित हो गया।
उनके उस हृदय के द्रवित होने से स्वर्ण वर्षा हो गई। उस महिला के हृदय द्रावण से आदि शंकर का हृदय द्रवित हुआ। उस समय आदि शंकर के हृदय से, मुख से जो निकला वो कनक धरा हो गई। कई बार तुम्हारे सबके जीवन में भी ऐसा कुछ घटा होगा। जब शब्द कम पड़ गए होंगे और रोना ज्यादा रहा होगा।
आदि शंकर के आठ सौ साल के बाद उसी कनक धरा से आज तक कोई स्वर्णवर्षा नहीं करा पाया है। वही शब्द, वही स्त्रोत, वही लक्ष्मी लेकिन आज तक कोई सफल नहीं हुआ स्वर्ण वर्षा कराने में। अब ये मत कह देना कि वो शिव का अवतार थे। ये तुम्हारा गुरु ही कह सकता है वो शिव का अवतार थे। इन गुरुओं की औकात नहीं है। जो ये खुद कर सकें तो बहाना पहले से ही सोच रखा है। अगर वो शिव का अवतार थे तो तुम उनके शब्दों को चोरी नहीं कर सकती हो।
जब आदि शंकर के शब्दों से तुम्हारे गुरु की आरती होती है तो तुम्हारा गुरु बड़ा प्रसन्न हो जाता है। जब आदि शंकर जैसा कुछ करने की बात आती है तो मुंह पर ताला लग जाता है।
तुम्हारे अनुसार तुम्हारा गुरु तो बड़ा सिद्ध है जो देखते ही पहचान लेते हैं, शिव और उनके अवतारों को। ये कोई ढोंगी ही कह सकता है। इस द्रावण के महाविज्ञान को समझने के लिए दृष्टि चाहिए होती है।
वो हृदय पैदा करना होता है। जिसमें द्रावण होता है। पद्मा तुम्हारा क्या द्रवित हुआ जो तुम्हारे मुंह से ये स्तुति निकल पड़ी। मुंह में च्युंगम जैसे शब्दों को घुमाने से कुछ न होगा। घुन घुनाओ मत, मैं न हजम होने वाला हूँ तेरे से और न ही मैं पानी-पानी होने वाला हूँ। ये चोरी उधारी की जमीन पर खेती में कुछ नहीं पैदा होगा। ये ऊसर जमीन है, इसमें कुछ पैदा नहीं होने वाला है।
“अब क्या करूँ मैं स्वामी?” उसने पूछा.
मैं बोला, अब मैं तुम्हारा स्वामी कैसे? स्वामी एक होता है. वह तुम्हारा कथित गुरू है. वह तुम्हारा सबकुछ है क्योंकि ब्रह्मा विष्णु सब वही है. तो तुम अपने गुरु की खूब तेल मालिश करो. अब तक जैसे की वैसे ही उसके लिए अपनी टाँगे चौड़ी करो। लेकिन याद रखना, ऐसी भक्ति से कोई गंगा नहीं निकलने वाली है। जगत मिथ्या है और गुरूर ब्रह्मा : ऐसे कॉकटेल से तो क्षण भर को भी नशा नहीं होता है। कभी हुआ हो तो बता दो ?
कहां से आएंगे तेरे पास शब्द ? बीस साल से ज्यादा तेरे संन्यास को हो गए हैं। पहले से भी ज्यादा नरक में उतर गई। क्या मिला ऐसी संन्यास से? सिर्फ ऐसे गुरू रूपी गोरूओं के लिए अपनी टांगें चौड़ी की.
स्तुति हृदय से गई जाती है और हृदय तो संन्यासी के पास होता नहीं है। जब हृदय होता ही नहीं तो तुम तंत्र, मंत्र, भक्ति, स्तुति कुछ नहीं कर सकती हो। बस ऐसे ही ऐसों के द्वारा दुरूपयोग की जा सकती हो.
कहते है गुरु की आलोचना करोगे तो नरक में जाओगे। जब हृदय बचा ही नहीं तो आलोचना भी नहीं बची, स्तुति भी नहीं बची और नरक भी नहीं बचा और गुरु भी नहीं बचा।
थोड़ा दिमाग पर जोर डालो जिस दिन तुम पैदा हुई थी उसी दिन तुम्हारे बाप ने यदि खुद का पिंडदान कर दिया होता तो तुम आज कहां होती ? मैंने आज तक किसी लावारिस को अपने बाप का पिंडदान करते नहीं देखा है |
पद्मा रोने लगी. बोली, “मुझे अपने चरणों में लो. मेरे गुरू बनो प्रभु!”
मैंने कहा, “फिर वही गलती कर रही हो. ऐसे कितनी बार, कितने जन्म तक करोगी?”
वह और विह्वल हो उठी.
मैंने कहा, पहले सारे गुरुओं से मुक्त होकर दिखाओ. सारे पास्ट की कालिख साफ करो. कोरा कागज बनो. तब इस काजग पर मै तुमको लिखूंगा, तुम्हारी ही इच्छा, आवश्यकता के अनुसार.
“इसके लिए क्या करूं?” उसने पूछा.
मैंने कहा, “इसके लिए घर वापस लौटो. वहीं से मेरे टच में रहो. ज़ब मुझे लगेगा कि तुम कोरा कागज बन गई हो, ज़ब मुझे दिखेगा कि, तुमको सच में मेरी जरूरत है तब मैं तुम्हें बुलाकर अपना लूंगा.”
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