अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन में वाणी की शक्ति

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डॉ. विकास मानव

 ध्वनि से वर्ण बने हैं. वर्ण से शब्द बनता है. सार्थक शब्दों के समुचित संयोग से वाक्य बनता है. व्याकरण में इतना तो आप पढ़े ही हैं. वाक् अविनाशी है. जो कुछ कहा जाता है, वह अनन्तकाल तक विद्यमान रहता है। शब्द का कभी क्षय नहीं होता। शब्द आकाश में रहता है। यह बात विज्ञान मान चुका है. गीता के उपदेश को शून्य से रिकॉर्ड करने की कोशिश में वैज्ञानिक कब से लगे हुए हैं.

आकाश को समुद्र भी कहते हैं. आकाशीय समुद्र एवं भौमिक समुद्र इन दोनों का कभी नाश नहीं होता। इसलिये वाक् भी अक्षय है।
वाग्वै समुद्रः। न वाक् क्षीयते न समुद्रः क्षीयते।
~ऐतरेय उपनिषद (२३/१)
शुष्क एवं सरस से हट कर वाणी का एक राक्षसी स्वरूप भी है।
यां वै दृप्तौ वदति यामुन्मत्तः सावै राक्षसी वाक्।
~ऐतरेय आरण्यक (६/७)
मनुष्य दृप्त (ढीठ) और उन्मत्त (विवेकच्युत) होकर जो वाक्य कहता है, उसे राक्षसीवाक् कहते हैं। निन्दा, गाली, भर्त्सना, कोपवचन, फटवाक्य आदि को राक्षसी वाकू कहते हैं।
खद् फट् जहि छिन्धि भिन्धि हद् इति वाचः कूराणि।
~तैत्तिरीय उपनिषद (४/२/१)
ये सभी वाणी के क्रूररूप हैं। इन्हें आसुरवाकू कहते हैं। मारणादि अभिचारों में इनका प्रयोग किया जाता है।

सारा संसार वाणी से बंधा हुआ है। वाणी प्राणियों को एक दूसरे से जोड़ती है तथा अलग भी करती है।
वाक्संयमो हि नृपते सुदुष्करतमो मतः।
अर्थवच्च विचित्रं च न शक्यं बहुभाषितुम्॥ १॥
अभ्यावहति कल्याणं विविधं वाक् सुभाषिता।
सैष दुर्भाषिता राजन्नार्थायोपपद्यते॥ २॥
रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।। ३।।
कर्णिनालीकनाराचान् निर्हरन्ति शरीरतः।
वाक्श्ल्यस्तु न निर्हर्त्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।। ४।।
वाक्सायका वदनान् निष्पतन्ति चैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य नाते ते पतन्ति
तान् पण्डितो नावसृजेत् परेभ्यः॥ ५॥
~महाभारत (उद्योगपर्व ३४/७६-८०)
विदुर, धृतराष्ट्र से :
हे राजन्, वाणी पर संयम रखना अत्यन्त कठिन है अर्थपूर्ण एवं वैचित्र्यपूर्ण वाणी भी अधिक नहीं बोलना चाहिये।
हे राजन् । मधुर शब्दों में कहीं हुई बात अनेक प्रकार से कल्याण करती है। किन्तु वही यदि – हे कटु शब्दों में कही जाय तो महान् अनर्थ की प्राप्ति होती है।
बाणों से विधा हुआ तथा फरसे से काटा हुआ वन भी अंकुरित (पल्लवित) हो जाता है। किन्तु, कटुवचन कह कर वाणी से किया गया भयानक भाव नहीं भरता।
कर्णि, नालौक, नाराच नामक बार्णो को शरीर से निकाला जा सकता है। परन्तु कटुवचन रूपी आण नहीं निकाला जा सकता। क्यों कि, वह हृदय के भीतर ऐसा रहता है।
कटुवचन रूपी बाण मुख से निकल कर दूसरों के मर्म स्थान पर चोट करते हैं। उनसे आहत मनुष्य रातदिन शोक करता रहता है। इसलिये विद्वान् पुरुष दूसरों पर उनका प्रयोग न करे।

राजा जनक के पुरोहित अश्वल ने याज्ञवल्क्य से पूछा :
हे याज्ञवल्क्य, संसार में जब हर वस्तु को मृत्यु व्याप रही है, सब मृत्यु के वश में हैं, तब किस प्रकार यजमान (यज्ञकर्ता) मृत्यु से छुटकारा पा सकता है ? यजमान को मृत्यु से मुक्त करने के लिये ‘यज्ञ’ किये जाते हैं। परन्तु मृत्यु तो सभी को व्याप रही हैं, फिर वह मृत्यु से कैसे छूट सकता है ?
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया :
होत्रा ऋत्विजाग्निना वाचा वाग्वै यहस्य होता तोयं वाक् सोऽयमग्निः स होता स मुक्तिः साऽतिमुक्तिः।
~बृहदारण्य उपनिषद (३/१/३)

होत्रा ऋत्विजा = होता नामक अत्विक से।
अग्निना = अग्नि (साधन) से।
वाचा= वाणी से ।
वाग वै = वाणी ही तो।
यज्ञस्य = यज्ञ (सब कर्मों) का।
होता = आगे बढ़ाने वाला (पथप्रदर्शक) है।
तद्= तो।
या इयम् वाक् = (शरीर में जो यह वाणी है।
सः अयम् अग्निः= (ब्रह्माण्ड में) वह ही यह अग्नि है।
सः होता= वह (अग्नि) होता है।
सः= वह (अग्नि)।
मुक्तिः = छुटकारा दिलाने वाला है।
सा = वह (वाणी)।
अति मुक्तिः= सर्वथा मोक्षप्रद है।
ब्रह्माण्डीय अग्नि पिण्ड में वाणी वन कर बैठा हुआ है। तभी तो कहा गया है-‘अग्निवार्क् भूत्वा मुखं प्राविशत्।’ अग्नि वाणी बन कर मुख में प्रवेश पाया है। यज्ञ में ‘होता’ यजमान को ‘वाणी’ को फिर से ‘अग्नि’ का रूप देता है। इसी से यजमान मृत्यु को जीत लेता है।

अपने पिण्ड को ब्रह्माण्ड से, व्यष्टि को समष्टि से मिला देना, इनमें सामञ्जस्य उत्पन्न कर देना- यही मृत्यु के पाश से छूट जाना है। होता, वाणी, अग्नि इन तीनों के सहयोग से मृत्यु का विरोध होता है।
यह जो पिण्ड में ‘वाणी’ है, यही ब्रह्माण्ड में ‘अग्नि’ है। ‘वाणी’ का ‘अग्नि’ रूप हो जाना ही ‘मुक्ति’ है। मृत्यु से छूटना ‘अतियुक्ति है।
होता का काम यजमान को ‘वाणी’ को ‘अग्नि’ का रूप देना है। जैसे अग्नि में सब मल भस्म हो जाते हैं, तेजस्विता आ जाती है, वैसे यजमान की वाणी अग्नि की तरह शुद्ध, सत्यरूप तथा तेजस्वी हो जाती है। यही मृत्यु को जीत लेना है। मनुष्य की रचना वाणी, मन और प्राण से है- यह सर्वविदित है। मृत्यु से टकरा कर सभी चल देते हैं, परन्तु जब मनुष्य अपने आप संसार के विषयों को छोड़ देता है, तब पृथिवी और अग्नि में जो ‘दैवीवाक् समा रही है, वह इसमें आकर प्रवेश कर जाती है। इसी ‘दैवीवाक्’ से वह जो कुछ बोलता है, वही वही हो जाता है।
पृथिव्यै चैनमग्नेश्च दैवीवागाविशति
सा वै दैवी वाग्यया यद्यदेव वदति तत्तद् भवति।
(बृह. उप. १/५/१८)

पृथिव्यै च= पृथिवी से।
एनम् इसको।
अग्ने चः= और अग्नि से।
दैवी वाग्= दिव्य वाणी है।
यय=जिससे।
यद् यद् एव= जो जो ही।
वदति= बोलता है।
तद् तद् भवति= वह वह होता है।
अध्यात्म उपासना जिसमें शरीर को ब्रह्म मान कर इसी में आनन्द का अनुसन्धान किया जाता है, वाक् बह्म का एक पाद है। उपासना की दो पद्धतियाँ हैं-अधिदैवत तथा अध्यात्म अधिदैवत पद्धति में ब्रह्माण्ड में ब्रह्मोपासना करते हुए आकाश को बह्म तथा अध्यात्म पद्धति में पिण्ड में ब्रह्मोपासना करते हुए मन को ब्रह्म मानकर जातक साधना करता है। यह ब्रह्म चार चरणों वाला है। पिण्ड में वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र- ये चार चरण हैं। ब्रह्माण्ड में अग्नि, वायु, आदित्य, दिशा ये चार चरण हैं।
तदेतच्चतुष्पाद ब्रह्म।
वाक् पादः।
प्राणः पादः।
चक्षुः पादः।
श्रोत्रं पादः।
इत्यध्यात्मम्। अथाधि दैवतम्। अग्निः पादो वायुः पाद आदित्यः पादो दिए पाद इत्युभयमेवादिष्टं भवत्यध्यात्मं चैवाधिदेवतं च॥”
~छान्दोग्य उपनिषद ( ३/१८/२)

ये दोनों अध्यात्म (पिण्ड सम्बन्धी) तथा अधिदैवत (ब्रह्माण्ड सम्बन्धी) उपासनाएँ अषियों ने कही हैं। पिण्ड में वाणी, ‘मनब्रह्म’ के चार चरणों में से एक चरण है। यह ‘आकाशब्रह्म’ के चारु चरण अग्निज्योति से प्रकाशमान तथा प्रदीप्त हो रही है जो उपासक ऐसा जानता है, वह कीर्ति से, यश से ब्रह्मतेज से प्रकाशमान एवं प्रदीप्त रहता है।
वागेव ब्रह्मणश्चतुर्थ पादः। सोऽग्निना ज्योतिषा भाति च तपति च। भाति च तपति च कीर्त्या यशसा ब्रह्मवर्चसेन य एवं वेद।
(छान्दोग्य उप. ३/१८/३)
इसी प्रकार जैसे वाणी अग्नि से प्रकाशित होती है वैसे ही प्राण वायु से, चक्षु आदित्य से तथा श्रोत्र दिशाओं से दीप्तिमान है। इस सत्य को जिसने हृदयंगम कर लिया है, वह लोक में यश से कीर्ति से तथा ब्रह्मतेज से शोभायमान होता है।
जो कथन वाक् के विषय में छान्दोग्य संहिता में है, वैसा ही कुछ बृहदारण्यक में है। वाकू बहा है किन्तु यह ब्रह्म का चतुर्थ (अंश) है। आगे तीन पाद और हैं- आयतन, प्रतिष्ठा और उसकी उपासना पिण्ड वाणी का आयतन (विस्तार) है। पिण्ड वाणी की प्रतिष्ठा (आवास) है। पिण्ड वाणी की उपासना (प्रज्ञता ) है। ब्रह्माण्ड आकाश का आयतन (फैलाव) है। ब्रह्माण्ड वाणी की प्रतिष्ठा (स्थान) है। ब्रह्माण्ड वाणी की उपासना (सर्वज्ञता) है।
वाचा वौ सम्राड् बन्धु प्रज्ञायते। ऋग्वेदो यजुर्वेद सामवेदो $थर्वागिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्राणि अनुव्याख्यानानि व्याख्यानानीष्टं हुतमाशितं पायितमयं च लोकः परश्च लोकः सर्वाणि च भूतनि वाचैव सम्राट् प्रज्ञायन्ते। वाग्वै सम्राट् परमं ब्रह्म नैनं वाग्जहति सर्वाण्येनं भूतान्यभिक्षरन्ति देवो भूत्वा देवानप्येति य एवं विद्वानेतदुपास्ते ।”
~बृहदारण्यक उपनिषद (४/१/२)
वाचा= वाणी से।
वै=ही तो।
सम्राइ= हे महाराज।
बन्धुः =आत्मा।
प्रज्ञायते= जाना जाता है।
वाणी से ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वांगिरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद्, श्लोक, सूत्र, अनुव्याख्यान व्याख्यान हट हुत, भोज्यपदार्थ, पेयपदार्थ, इहलोक परलोक तथा सब भूत जाने जाते हैं। है सम्राट् ! वाणी ही परम ब्रह्म है।
न एनम् = न इस (उपासक) को।
वाग्= वाणी (प्रज्ञता)।
जहाति = त्यागती है।
सर्वाणि = सभी।
एनम् = इस (उपासक) को।
भूतानि = प्राणी व पञ्चभूत ।
अभिक्षरन्ति = भीतर से परिपुष्ट करते हैं।
देवः भूत्वा = देवता बनकर ।
देवान् अपि एति = देवों को प्राप्त होता है उनमें मिल जाता है- देवता हो जाता है।
यः=जो।
एवम् = इस प्रकार।
विद्वान् = (वाक्प्रज्ञता) को जानने वाला।
एतद् = इस (ब्रह्म) की।
उपास्ते यः = उपासना करता है।
वाक् प्रकृति है। स्थूल जगत् वाक् का विकार है। क्रिया के पूर्व वाक् है। इच्छा वाप्रूप है। वाक् विचार रूप है। मन में विचार उठते हैं। ये विचार वाणी के अव्यक्तरूप हैं। ये विचार मुख से व्यक्त होते हैं- इन्हें बोला वा कहा जाता है। संकेतों से भी इन्हें व्यक्त किया जाता है। हाथ से लिखकर इन्हें चित्रित किया जाता है। स्थापत्य एवं ललित कलाओं द्वारा भी इन्हें दर्शाया जाता है। सृष्टि के रूप में ब्रह्म विचार का प्राकट्य हुआ है। सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्मविचार का मूर्त चित्र है।
वाणी ज्ञान का अधिष्ठान है। वाणीज्ञ महात्मा सुदुर्लभ होता है। शाश्वत ज्ञान की अधिष्ठात्री वाणी का आराधक मैं वाणी के सम्मुख नतमस्तक हूँ। यह जितना जानने देती है, उतना ही जान पाता हूँ।
उतत्व: पश्यन् न ददर्श वाचमुत
उतत्यः शृण्वत् न शृणोत्येनाम्।
उतो त्वस्यैतन्यं वि सस्रे
जायेव पत्य उशती सुवासाः॥
~ऋग्वेद (१०/७१/४)
•उत त्वः पश्यन् न ददर्श वाचम्= अरे ! वाणी को कोई देखते हुए भी नहीं देखता।
उतः एनाम् शृण्वन् न शृणोति= अरे !इस वाणी को कोई सुनते हुए भी नहीं सुनता।
उत उ अस्मै तन्वम् वि सस्रे= अरे सुपात्र के प्रति तो यह वाणी अपने को खोल देती है-आवरण होन करके परोसती है- अपना रहस्य दिखला देती है।
जाया इव त्यती सुवासाः= जैसे जाया स्त्री अपने पति के सम्मुख एकान्त में विवस्त्र करते हुए स्वयं को समर्पित करती है।
तात्पर्य यह है-वाणी जिसका वरण करती है, उसी के साथ रहती है, उसे सोचती है, रस पिलाती है संश्लिष्ट हो कर उसे तन्मय कर देती है। अधिकारी को ज्ञान का साक्षात्कार होता है। सरस्वती जिसे सुयोग्य समझती है, उसे सारस्वत (विद्वान्) बना देती है।

पुरुष किसी स्त्री के पास होने पर उसके वस्त्राभूषणों को देखता या छूता है, उसके प्रसाधित मुख को देखता है। वह उसके दैहिक सौष्ठव को जो कि वस्त्र से ढका होता है नहीं देखता, वह उसके गुह्यांगों से अनभिज्ञ रहता है। वह स्त्री प्रसन्न होती है तो अपने को निर्वस्त्र कर नग्न रूप में भोग हेतु समर्पित करती है। यदि वह भोक्ता को भोग शक्ति एवं भोग कला से सन्तुष्ट हुई तो अपने हृदय (अन्तर्मन के भावों) को प्रकट कर अपने को पूर्णतः खो देती है। ऐसे ही वाक् (ब्रह्मविद्या) जिस के निकट होती है, क्रमशः निकटतर एवं निकटतम होती जाती है। वे लोग धन्य हैं। जो ब्रह्मविद्या से सर्वथा अपृथक् हैं।
कहा गया है- ‘वागेव विश्वा भुवनानि जज्ञे। स तथा वाचा तेनात्मना इदं सर्वमसृजत् ।” वाणी की परम सत्ता होने के विषय में कोई सन्देह नहीं है। अषियों के ये वाक्य हैं। मैं इनका अनुमोदन करता हूँ। वाणी शक्ति है। इसे गौरी (गतिशीला) कहते हैं। यह शिव (परम शान्त) की अर्धांगिनी है। इसे मेरा नमस्कार । इस वाणी को ब्रह्माणी (सर्वोपरि) कहते हैं। यह ब्रह्म (ब्राह्मण विद्वान) के मुख में छिपी हुई रहती है और समय समय पर प्रकट होती रहती है। इस ब्रह्मवाणी को मेरा नमस्कार यह वाणी विष्णु (व्यापक दृष्टि बुद्धि एवं आचार वाले) को पत्नी है। इसे लक्ष्मी (लक्षणों से जाने जानी वाली वा मार्ग दर्शन करने वाली शक्ति कहते हैं। यह विष्णु की छाती पर विराजमान होती हुई उसका प्राणन करती रहती है। वाणी से होन मूक कहलाता है। वाणीयुक्त होकर भी उसे प्रकट न करने वाला मुनि (मौन वृत्ति वाला) होता है। वाणी को प्रकट करने वाला वाग्मी होता है। इन सबको मेरा नमस्कार वाणी का अर्थयुक्त होना प्रशस्त है। व्यर्थ में बोलने वाला महत्त्वहीन होता है। महत्वमयी वाणी की आगार संस्कृत भाषा एवं उसका साहित्य है। वेदवाणी ही वास्तविक वाणी है। यह अर्थवान् वाणी है। वेद के मन्त्र सत्य के निर्वाचक हैं। अमोघ वाक्य को वेदवाक्य कहते हैं। वाणी के समस्त रूप (लौकिक, अलौकिक, नाशक, पोषक) वेद में हैं।
चत्वारि वाक् परिमिता पदानि, तानि विदुर ब्राह्मणा ये मनीषिणः ।
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति,
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
~अथर्ववेद (९/१०/२७)
वाक् धर्म है। धर्म के चार पाद होने से वाणी के भी चार पाद हैं। ये चत्वारि परिमिता (नि) वाक् पदानि =जो चार मर्यादित पद है वाणी के वाणी चार परिमित स्थानों से / तक चलती है। इसका प्रथम पाद लोक द्वितीयपाद सूर्य लोक, तृतीय पाद भूलोक, चतुर्थपाद पिण्डलोक (मानवशरीर है। मनुष्यजात वाणी के भी चार पाद है। प्रथम पाद मस्तक में, द्वितीय पाद नाभि में तृतीय पाद हृदय में, चतुर्थपाद कण्ठ में है। मस्तकस्य वाणी परा, नभिस्य वाणी पश्यन्ती, हृदयस्थ वाणी मध्यमा, कण्ठस्थ वाणी वैखरी है। वाणी में भी तत्वों की तरह क्रम है। परा केवल है। पश्यन्ती के साथ परा भी है। मध्यमा के साथ परा पश्यन्ती दोनों हैं। वैखरी में अन्य तीनों (परा, पश्यन्ती, मध्यमा) हैं। वैखरी वाणी मुखकोटर से प्रस्फुटित होती है। मध्यमा मन में रहती है। पश्यन्ती अहंकार में स्थित होती है। परावाणी महत्तत्व (विराट् बुद्धि) में समाश्रित होती है। मूल प्रकृति वाणी शून्य है क्योंकि अव्यक्त है। यह वाकु चक्र(चक्र नीचें चित्र रूप मे संलग्न) है।

परा वाणी से हमारी बुद्धि सिक्त रहती है। इसमें पूर्वजन्मों के संस्कार निहित होते हैं। पश्यन्ती से हमारा अहंकार ओतप्रोत होता है। इसमें मातृपितृ पक्ष के बीज भरे होते हैं। मध्यमा में इस जन्म के संस्कार पड़े होते हैं। वैखरी में देश काल व्यक्ति का प्रभाव प्रकट होता है।
तानि मनीषिणः ब्रह्मणा विदुः =उन्हें मनस्वी ब्राह्मण लोग जानते हैं। जो भूत से भविष्य पर्यन्त देखते हैं, वे मनीषी (चिन्तक, विचारवान् तत्वज्ञ, द्रष्टा) हैं। ब्रह्म (वेद) में स्थिति है जिसकी, वह ब्राह्मण है। वेद में प्रविष्ट, वेदाध्यायी, वेदानुचान, वेदविष्ट को ब्राह्मण कहते है। तानि से पदानि का बोध / संकेत है। वाणी के चार प्रकारों, उनके स्थानों उनकी शक्तियों (देवताओं) तथा शीलों से अवगत पुरुष ब्राह्मण है।
त्रीणि गुहा (याम्) निहिता (नि) (ते) न इङ्ग यन्ति =वाणी के तीनों पद गुफा में स्थित होते हैं. (इसलिये) प्रकट नहीं होते। वाणों के जो पद कपाल, नाभि एवं हृदय में होते है, वे अप्रकट है। अर्थात् परा पश्यन्ती एवं मध्यमा वाणी को सुना नहीं जाता।
तुरीयम् वाचः मनुष्याः वदन्ति= चौथी वाणी वैखरी को मनुष्य बोलते हैं-व्यवहार में लाते हैं।
ये भी वाक् हैं :
१. समुद्र, नदी, पर्वतों की वाणी।
२- वृक्ष, वनस्पति, ओषधियों की वाणी।
३- पशु, पक्षी, कीटक्रिमियों की वाणी।
मनुष्य की बाणी समेत इन वाणियों को जो जानता है, वह विदुर (ज्ञानी) है।
भौगोलिक विविधता के कारण मनुष्यों को अनेक भाषाएँ हैं। एक भाषा भाषी परस्पर वैखरी वाणी द्वारा व्यवहार करते हैं। समुद्र बोलता / गर्जता है। बादल बोलते / गड़गड़ाते हैं। पर्वत बोलते / साँय साँय करते हैं। वृक्ष बोलते / हरहराते हैं। वनस्पतियाँ बोलती / सरसराती हैं। औषधियाँ बोलती / स्पन्दती हैं। पशु चिल्लाते हैं। पक्षी चहचहाते हैं। कोट किटकिटाते, मनमनाते, भनभनाते हैं। मनुष्य वार्तालाप करते है। प्रकृति सब ओर से बोलती हैं। समस्त महगण एवं नक्षत्रगण प्रकृति के माध्यम से बोलते हैं। इनकी भाषा को जानने वाला कालज्ञ है। चराचर समस्त प्राणियों की भाषा समझने वाला दैवज्ञ है।

वेदों में वाग्देवी :
ऋग्वेद के अतिमहत्त्वपूर्ण सूक्तों में वाग्देवी और श्रद्धादेवी से सम्बद्ध दो सूक्त (ऋगू० १०.१२५.१ से ८ और ऋ० १०.१५१.१ से ५) हैं। इनमें वाग्देवी और श्रद्धादेवी के स्वरूप, कार्य और महत्त्व का वर्णन है।
ऋग्वेद के १०.१२५ सूक्त के आठ मंत्रों का ऋषि ‘वाग् आम्भृणी’ है। इसका देवता या वर्ण्य विषय आत्मा या वाक्तत्त्व है। इन आठ मंत्रों में वाग्देवी उत्तम पुरुष में आत्मविवेचन के रूप में अपना स्वरूप प्रकट करती है।
इस सूक्त का महत्त्व इस बात से प्रकट होता है कि आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान के प्रोफेसर सईस (Prof. Sayce) ने अपने ग्रन्थ ‘Science of Lan- guage’ भाग १ के पृष्ठ १ पर भाषाशास्त्रियों का ध्यान इस सूक्त की ओर आकृष्ट किया है।
प्रो० सईस का कथन है कि इन आठ मंत्रों में वैदिक ऋषि का वाक्तत्त्व के विषय में जो वक्तव्य है, वह बहुत ही गम्भीर, विचारपूर्ण, भाषाविज्ञान के दृष्टि से सत्य तथा बहुत दूरदर्शितापूर्ण है।
इन आठ मन्त्रों में वाग्देवी का महत्त्व इस रूप में वर्णन किया गया है :
१. मैं (वाग्देवी) रुद्रों (प्राणतत्त्व, एकादश रुद्र), वसुओं (पृथिवी आदि आठ वसुओं, आदित्यों (१२ आदित्य, सूर्य) तथा विश्वदेवों (सभी देवों, सभी दिव्य विभूतियों) के साथ विचरण करती मैं मित्र और वरुण (सौर तत्त्व और जलीय तत्त्व) तथा इन्द्र और अग्नि (सौर तत्त्व और अग्नि तत्त्व) को धारण करती हूँ। मैं दोनों अश्विनीकुमारों (प्राण और अपान तत्त्व) को धारण करती हूँ। ऋग्वेद के १०.१२५ सूक्त के आठ मंत्रों का ऋषि ‘वाग् आम्भृणी’ है। इसका देवता या वर्ण्य विषय आत्मा या वाक्तत्त्व है। इन आठ मंत्रों में वाग्देवी उत्तम पुरुष में आत्मविवेचन के रूप में अपना स्वरूप प्रकट करती है।
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि-अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्मि अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा।।
(मंत्र १)

२. मैं (वाग्वेदी) सोमतत्त्व की पालक और रक्षक हूँ। मैं त्वष्टा (विश्लेषक तत्त्व), पूषन् (पोषक तत्त्व) और भग (ऐश्वर्य) की पालक हूँ। मैं यज्ञकर्ताओं को ऐश्वर्य से समृद्ध करती हूँ।
अहं सोममाहनसं बिभर्मि अहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम्।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते।।
(मंत्र २)
३. मै राष्ट्र-निर्मात्री शक्ति हूँ। मैं वसुओं (पृथ्वी आदि आठ वसुओं) को संबद्ध करने वाली हूँ। मैं विज्ञानमय हूँ। मैं पूजनीयों में अग्रगण्य हूँ। देवों (विद्वानों, भाषाशास्त्रियों) ने मुझे नाना (भाषाओं का) रूप देकर नाना प्रकार से प्रतिष्ठित किया है।
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा, भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम्।।
(मंत्र ३)
४. जो मेरा (वाग्देवी या प्रतिभा) का साक्षात्कार करता है, जो मुझको हृदय में धारण करता है और मेरे कथन को सुनता हूँ, वह भौतिक जगत् का उपभोग करता है। दो मुझ पर विश्वास नहीं करते हैं, वे स्वयं नष्ट हो जाते हैं। मैं श्रद्धा के योग्य इस वचन को स्वयं कहती हूँ।
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति या ई शृणोत्युक्तम्।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रधिवं ते वदामि।।
(मंत्र४)
५. मैं स्वयं यह कहती हूँ कि देवता और मनुष्य सभी मेरी उपासना करते हैं, मेरा आश्रय लेते हैं। मेरी जिस पर दयादृष्टि होती है, उसको मैं उग्र (तेजस्वी) बना देती हूँ । उसको ब्रह्म (ब्रह्मवेत्ता, आत्मतत्त्वज्ञ) बना देती हूँ। उसको ऋषि और मेधावी बना देती हैं।
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्।।
(मंत्र ५)

६. मैं ब्रह्मद्वेषी के विनाश के लिए रुद्र को धनुष से सुसज्जित करती हूँ। मैं जन- कल्याण के लिए युद्ध करती हूँ। मैं द्युलोक और पृथिवी में सर्वत्र व्याप्त हूँ।
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ।
अहं जनाय समदं कृणोमि-अहं द्यावापृथिवी आ विवेश।।
(मंत्र६)
७. मैं (वाग्देवी) इस संसार के शिरोभाग में चुलोक को उत्पन्न करती हैं। बुद्धिरूपी समुद्र के अन्तस्तल (ईश्वरीय ज्ञान) में मेरा निवास स्थान है। उसी स्थान से में सारे विश्व में व्याप्त हूँ। मैं अपने शरीर से द्युलोक को स्पर्श करती हूँ ।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि।।
(मंत्र ७)
८. मैं ही वायु के तुल्य सर्वत्र बह रही (व्याप्त) हूँ। मैं सारे संसार का निर्माण करती हूँ। मैं द्युलोक और पृथिवी से परे हैं, अर्थात् इनमें अलिप्त होकर रहती हूँ। मैं अपने सामर्थ्य से ही प्रकट होती हूँ।
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव।।
(मंत्र ८)

इन मंत्रों में वाग्देवी के इन गुणों का विशेषरूप से उल्लेख है :

१. वाग्देवी रुद्र, आदित्य, वसु आदि सभी देवों की रक्षक और पालक है।
२. वाग्देवी सोम्य गुणों की दात्री है।
३. वह भक्तों को सभी ऐश्वर्य प्रदान करती है।
४. वाग्देवी राष्ट्रीय भावना प्रदान करती है। इसमें संगठन की शक्ति है। वाग्देवी (भाषा) को ही विविध रूप देकर विद्वानों ने विश्व की समस्त भाषाओं को जन्म दिया है।
५. जो वाग्देवी को प्रसन्न कर लेता है, वह संसार के सारे सुख भोगता है। जो वाग्देवी का निरादर करता है, उसका सर्वनाश हो जाता है ।
६. वाग्देवी के अनुग्रह से ही मनुष्य ब्रह्मर्षि, महर्षि, ज्ञानी, विज्ञानी और मेधावी होता है।
७. वाग्देवी निरादर करने वाले को समाप्त कर देती हैं। वह लोकहित के लिए संघर्ष करती हैं और सारे संसार में व्याप्त है।
८. वाग्देवी सारे संसार की निर्मात्री है।
९. सृष्टि निर्माण वाग्देवी का कार्य है। वह सर्वत्र व्याप्त होने पर भी निर्लेप, निरंजन और निष्काम है।

ग्रन्थों में वाग्देवी (विद्या, सरस्वती) के आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है।
१. वाग्देवी ब्रह्म स्वरूप है। वह ब्रह्म का विराट् रूप है। वह समुद्र की तरह अनन्त और अक्षय है। वह कभी नष्ट नहीं होती।
(क) “वाग् ब्रह्म।
(गोपथ ब्रा० १.२.१०)
(ख) “वाग् वै ब्रह्म।
( ऐत०ब्रा० ६.३ । शत०ब्रा० २.१.४-१० )
(ग) “वाग् वै विराट्।
(शत० ब्रा० ३.५.१.३४ )
(घ) “वाग् वै समुद्रो न वै वाक् क्षीयते न समुद्रः।
( ऐत० ब्रा० ५.१६)

२. वाग्देवी ही विद्या, बुद्धि और सरस्वती है।
(क)” वाग् वै धिषणा।
(शत० ब्रा० ६.५.४.५)
(ख) “वाग् वै मतिः।
( शत०ब्रा० ८.१.२.७)
(ग) “वागेव सरस्वती।
( ऐत०ब्रा० २.२४)

३. वाग्देवी कामधेनु है। वह सभी कामनाएं पूर्ण करती है।
(क)”वाग् वै धेनुः (कामधेनुः)।
( गोपथ० १.२.२१ )
(ख) ‘वाचं धेनुम् उपासीत।
( शत०ब्रा० १४.८.९.१)
४. वाग्देवी राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय भावना और राष्ट्रप्रेम देती है।
वाग्वै राष्ट्री।
( ऐत० १.१९)
५. वाग्देवी विश्वकर्मा है। वह सब कुछ बना और बिगाड़ सकती है।
वाग्वै विश्वकर्मा ऋषिः। वाचा हीदं सर्वं कृतम्।
( शत० ८.१.२.९)

६. वाग्देवी सारे देवों की प्रतिनिधि है।
(क) वागिति सर्वे देवाः।
( जैमि० उप०ब्रा० १.९.२)
(ख) “वागेव देवाः।”
( शत० १४.४.३.१३)
७. वाक और मन दोनों संबद्ध हैं। मन के भावों की अभिव्यक्ति का साधन वाणी है।
(क) “वाक् च वै मनश्च देवानां मिथुनम्।”
( ऐत०ब्रा० ५.२३)
(ख)” तस्य (मनसः ) एषा कुल्या यद् वाक्।”
(जैमि० उप०ब्रा०१.५८.३)
८. मन, वाक् (वाणी) और प्राण अमर हैं। ये प्रजापति के अमर रूप हैं। “अथैता अमृता मनो वाक् प्राणः।”
(शत० १०.१.३.४)

९. वाक् आग्नेय तत्त्व है। इसमें आग्नेय गुण दाहकता, शोधकता आदि है।
“वागेवाग्निः।”
( शत० ३.२.२.१३ )
१०. वाक् ओषधि है। यह सब रोगों की चिकित्सा है। मधुर और सान्त्वनापूर्ण वाणी रोगी का कष्ट दूर करती है। मन्त्र-चिकित्सा का आधार वाक्तत्त्व ही है।
“वागु सर्व भेषजम्।”
(शत० ७.२.४.२८)

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