स्वदेश कुमार सिन्हा
दो दिन पहले हमारे प्रधानमंत्री जी समुद्र में डूबी द्वारका के दर्शन करने गए। वे गोताखोर की पोशाक पहनकर समुद्र में गए तथा कथित रूप से उन्होंने ध्यान लगाया, जब बाहर निकले तो बड़े प्रसन्न थे, उन्होंने बताया कि जब वे समुद्र में थे, तो उनके कान में कृष्ण जी की मुरली गूंज रही थी, बहुत दिव्य अनुभव था, वगैरह-वगैरह। अब चुनावी वर्ष है, तो उनकी समुद्र में गोता लगाने वाली और ध्यान करने वाली तस्वीरें इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में घूम रही हैं और जनता अभिभूत है।
हमारे प्रधान जी ईश्वर की खोज में कहां-कहां पहुंच जाते हैं। कुछ लोगों की भावना ज़रूर आहत हो सकती है, लेकिन सच्चाई जानना भी ज़रूरी है। हमारे देश में आम लोग ही नहीं पढ़े-लिखे लोगों तक में भी इतिहास और पुरातत्व की चेतना न के बराबर है। लोग पुराण, मिथक और इतिहास तीनों को एक ही समझ लेते हैं। अयोध्या में भी लोगों की इसी अज्ञानता का फ़ायदा उठाया गया।
मिथ्या प्रचार से किस तरह से पूरी पीढ़ी को मूर्ख बनाया जाता है, समुद्र में डूबी द्वारका नगरी भी इसका एक उदाहरण है। द्वारका हिन्दुओं का एक प्रमुख प्रसिद्ध तीर्थ है और चारों धामों में से एक है। पौराणिक मिथकों के अनुसार इस शहर का श्रीकृष्ण के साम्राज्य के रूप में वर्णन मिलता है और कहा जाता है कि बाद में गांधारी के शाप से यह नगरी समुद्र में समा गई। अब इसी प्राचीन द्वारका नगरी के खोज की बात की जाती है।
आपने प्रधानमंत्री जी का वीडियो देखकर कभी सोचा कि समुद्र में डूबी द्वारका की भव्य तस्वीरें, जो इंटरनेट पर घूमती रहती हैं, जिनमें द्वार पर रखी शेर की मूर्ति, भव्य सीढ़ियां एवं भवन के अवशेष और बड़े-बड़े खंभे दिखाए जाते हैं, लेकिन हमारे प्रधानमंत्री प्राचीन काल में जहाजों द्वारा समुद्र के किनारे लंगर डालने के लिए प्रयोग किए जाने वाले ’एंकर’ पर बैठकर पूजा करके क्यों आ गए। द्वारका के खिड़की-दरवाजों और खंभों की फोटो तो डाली ही नहीं।
प्राचीन द्वारका की सच्चाई क्या है, इसकी हम थोड़ी जांच-पड़ताल करते हैं। पिछली शताब्दी में हड़प्पा, मोहन जोदड़ो तथा सिन्धु घाटी सभ्यता के विभिन्न स्थलों की सफल खोज के बाद ब्रिटिश पुरातात्विक लोग बौद्धधर्म में वर्णित द्वारवती को ढूंढ रहे थे, जो प्राचीन समय का प्रमुख बंदरगाह बताया जाता है, यही द्वारवती आगे चलकर द्वारका के नाम से बुलाई जाने लगी।
एक ब्रिटिश खोजकर्ता ‘फेड्रिक पर्जिटर’ के द्वारा 1930 के दशक में द्वारवती के गुजरात में होने की संभावना जताई गई।1963 में समुद्र में डूबे इस ढांचे का पता चला और अगले दशकों में इस ढांचे को समझने के लिए कई समुद्री अभियान चलाए गए। इन दो-तीन दशकों में पुरातत्व की एक नयी शाखा ‘मैरीन आर्कलॉजी’ विकसित हुई, जिसके अन्तर्गत आधुनिक वैज्ञानिक तकनीक के द्वारा समुद्र में डूबे पुराने जहाज़ों, खजानों या फ़िर डूबी हुई पुरानी सभ्यताओं की तलाश की जाती रही है, इसमें ‘रडार इमेजिन’ जैसी आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
भारतीय सामुद्रिक संस्थान के तीन वैज्ञानिकों ए एस गौड़, सुंदरेश तथा शीला त्रिपाठी ने प्राचीन द्वारका के बारे में महत्वपूर्ण शोध किया है। वे अपने शोधपत्र में लिखते हैं कि इस साइट पर औसतन तीन से दस मीटर की गहराई पर लंगर के लिए प्रयोग होने वाले सैकड़ों एंकर मिले हैं-गोल, त्रिभुजाकार अथवा आयताकार शेप में पत्थर के बने इन लंगरों का औसत आकार एक से डेढ़ मीटर और औसत वज़न 100 से 150 किलो है, सबसे बड़े एंकर का वज़न 500 किलो है। इस साइट से अन्य खंभों के अवशेष भी मिले हैं,जो नावों की रस्सी बांधने के लिए इस्तेमाल किए जाते थे।
पत्थरों की बनावट आदि का ऐतिहासिक अध्ययन करके वैज्ञानिकों ने उनकी आयु 500 से 1000 साल तय की है। कुछ पत्थरों पर गुजराती लिपि में कुछ विवरण दर्ज हैं। गुजराती भाषा बारहवीं शताब्दी में अस्तित्व में आई। अब कोई यह तो नहीं स्वीकार कर सकता कि 5000 साल पहले श्रीकृष्ण गुजराती बोलते थे, इन्हीं सब विवरणों के आधार पर वैज्ञानिकों ने इस ढांचे को मध्यकालीन बंदरगाह माना है। इस विवरण में श्रीकृष्ण द्वारका कहां है, निष्कर्षत: कहीं भी नहीं।
ऐसे खोजों की पद्धति यह होती है कि पहले किसी स्थान का पौराणिक इतिहास अथवा किंवदंतियों में प्रचलित विवरण बताया जाता है, फ़िर उसका ऐतिहासिक विवरण, फ़िर वैज्ञानिक पक्ष की बात की जाती है। यूनेस्को की साइट से लेकर ऐसे सभी शोधपत्रों में यह पद्धति अपनाई जाती है। भक्त लोग पूरी रिसर्च पढ़ते नहीं,बस शुरू में दिए गए-’ऐसा माना जाता है’ विवरण को पढ़कर हर्षोल्लासित हो जाते हैं और फर्ज़ी ख़बरें तैयार करने लगते हैं।
द्वारका के बारे में 1979 में एक और पुरातत्व सर्वे में पानी के नीचे खुदाई का काम वर्तमान मौजूदा द्वारकाधीश मंदिर के पास से शुरू हुआ था, वहां पानी में कई मंदिरों के अवशेषों की एक श्रृंखला मिली है, जिसका मतलब यह है कि जैसे-जैसे पानी चढ़ता गया, वैसे-वैसे उन्हीं मंदिरों के नए प्रतिरूप बनते गए, यही कारण है कि खुदाई की जगह विभिन्न कलाकृतियों के अवशेष मिले, ये अवशेष वास्तव में पुराने ही मंदिरों ही के हैं।
वर्तमान द्वारकाधीश मंदिर 1000 से 1500 साल तक पुराना माना जाता है, लेकिन समुद्र में मिले अवशेष इससे पुराने हैं। इससे यह तो अवश्य सिद्ध होता है कि खुदाई स्थल मंदिर से बहुत पुराना है। द्वारका के नाम पर इंटरनेट पर जिन भव्य तस्वीरों को हम देखते हैं, वे वास्तव में अमेरिका के फ्लोरिडा में मौजूद ‘अंडरवॉटर नेपच्यून मेमोरियल रीफ़’ के हैं, जो वायरल कर दी गई है और सभी उसी को साझा करके ‘द्वारका मिल गई’ का सगूफा फैलाने में लगे हैं।
भाजपा के सत्ता में आने के बाद यह प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ी है कि हिन्दू पौराणिक मिथकों को इतिहास के रूप में प्रस्तुत किया जाए। इसके लिए इंटरनेट पर फोटोशॉप से लेकर पुरातत्वविदों तथा वैज्ञानिकों पर दबाव बनाने की प्रवृत्ति भी बहुत तेज़ी से बढ़ी है। पिछले वर्ष ही दिल्ली के पुराने किले में पुरातात्विक उत्खनन के दौरान यह प्रचारित किया गया कि यह जगह महाभारतकालीन है तथा महाभारत युद्ध के प्रमाण मिल गए हैं, हालांकि पुरातत्वविदों ने इस बात से इंकार किया कि वहां पर महाभारत के कोई भी प्रमाण मिले हैं।
मिथक को इतिहास बनाना कितना ख़तरनाक हो सकता है,यह हमने विगत वर्षों में अयोध्या में देखा। जब देश की एक पूरी पीढ़ी सामूहिक भ्रम की अफीम चाटकर छद्मगौरव से आनंदित है और देश के प्रधानमंत्री जी भी जब इस प्रवृत्ति में शामिल हैं, तब इतिहास और मिथक पर बहस करने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।(