बीती 12 मई की शाम प्रो. चौथीराम यादव का अकस्मात निधन हिंदी के बौद्धिक व परिवर्तनकामी समाज के लिये एक बड़ा आघात है। विगत कुछ दशकों के दौरान उन्होंने अपनी ओजस्वी वक्तृता और आंदोलनकारी सक्रियता से जिस तरह बुद्ध, कबीर, फुले और आम्बेदकरवादी चेतना को हिंदी के बौद्धिक समाज के बीच विमर्शकारी बनाया था वह उनका बड़ा योगदान था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी से मुक्त होने के बाद जिस जनबुद्धिजीवी की भूमिका का उन्होने वरण किया, वह अकादमिक जड़ता को नकारते हुए वृहत्तर समाज से उनके जनसंवाद का परिणाम था।

हिंदुत्व के उभार के साथ ज्यों ज्यों बौद्धिकों का वर्चस्वशाली वर्ग मनुवादी सत्ता संरचना से टकराने के बजाय, वास्तविक मुद्दों का अमूर्तन कर बचाव की मुद्रा अपनाने लगा, त्यों-त्यों चौथीराम जी ने परम्परा की पुनर्व्याख्या कर प्रतिरोध को विमर्शकारी बनाया। बुद्ध, कबीर, फुले और आम्बेदकर से सूत्र ग्रहण करते हुए उन्होंने मार्क्स के वर्गसंघर्ष और प्रतिरोधी अस्मिता के समन्वय का नया मुहावरा रचा था। वे ऐसे विरल बौद्धिक थे जो प्रगतिशीलों, आम्बेदकरवादियों और बहुजन विमर्शकारों के बीच समान रूप से स्वीकार्य थे। गोष्ठियों, सेमिनारों से लेकर प्रदर्शन व जलसा जुलुसों तक वे हर कहीं तथ्यों व तर्कों के साथ हस्तक्षेपकारी भूमिका में मौजूद रहते थे। दलित, आदिवासी, स्त्री व बहुजन विमर्श को उन्होने नयी त्वरा दी थी।

अस्सी के दशक में अपने जिगरी दोस्त कथाकार काशीनाथ सिंह के संग-साथ ने उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियों से जोड़ा था। मेरी उनसे पहली मुलाकात 1980 में प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ सम्मेलन में हुई थी। अपने इस शुरुआती दौर में वे अपेक्षाकृत कम मुखर रह कर एक प्रेक्षक की भूमिका में अधिक रहते थे। उनके ओजस्वी वक्ता होने पहला परिचय मुझे सज्जाद ज़हीर के जौनपुर में आयोजित जन्मशताब्दी समारोह (2005) के दौरान मिला, जब उन्होने प्रगतिशील आंदोलन के सूत्र कबीर की परंपरा के साथ जोड़ते हुए एक व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के कबीर सम्बंधी चिंतन को डा. नामवर सिंह ने जिस ‘दूसरी परम्परा” के रूप में चिन्हित किया था, प्रो. चौथीराम यादव ने उसे सिद्धों-नाथों की परम्परा से जोड़कर सम्पूर्णता प्रदान की थी।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति आन्दोलन में तुलसी को केंद्रीयता प्रदान करते हुए कबीर को नकारने का जो उपक्रम किया था, प्रो. चौथीराम यादव ने अपने लेखन व वक्तृता द्वारा उसे हाशिये के समाज का परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हुए बहुजन वैचारिकी को नई धार दी। विगत वर्षों प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘लोक और वेद आमने सामने’ में उन्होने अपने इस चिंतन को जिस बेलाग तार्किकता के साथ प्रस्तुत किया, इस दौर में वह एक साहसपूर्ण हस्तक्षेप सरीखा था।
प्रो. चौथीराम यादव सही अर्थों में ग्राम्सी की परिभाषा के ‘आवयविक बौद्धिक’ थे। अकादमिक दुनिया की हस्तिदंत मीनारों से बाहर आकर उन्होंने स्वयं को जनसंघर्षों के साथ जोड़ा था और अपने वैचारिक अवदान से उसे समृद्ध किया था। उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के एक साधारण किसान परिवार में जन्में चौथीराम यादव ने उच्च अकादमिक उपलब्द्धि के बावजूद स्वयं को उस निम्नवर्गीय (सबाल्टर्न) सोच के प्रवक्ता की जोखिमभरी भूमिका में ढाला, जो आज के समय में साहसिक व धाराविरुद्ध है। हाशिये के समाज की विभिन्न धाराओं के लिये उनकी उपस्थिति अभिभावक व मार्गदर्शक सरीखी थी। वे अंत तक बौद्धिक रूप से सजग व सक्रिय थे। उनका न रहना सचमुच एक बड़ी रिक्ति है। अपने इस अग्रज बौद्धिक योद्धा को हार्दिक श्रद्धांजलि व सादर नमन।
(वीरेंद्र यादव आलोचक हैं)