आसनसोल। आसनसोल पश्चिम बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा शहर है। इसलिए चुनाव का माहौल भी देखते ही बनता है। जहां एक तरफ लक्ष्मी भंडार के नाम पर वोट मांगा जा रहा है तो दूसरी तरफ मोदी की गारंटी जनता का ध्यान अपनी ओर खींच रही है।
चुनाव प्रचार की गाड़ी से जहां एक ओर भाजपा उम्मीदवार सुरेंद्र सिंह अहलूवालिया आसनसोल के भूमिपुत्र होने का दावा करते हुए जनता से अपना कीमती मत देने की अपील कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ शत्रुघ्न सिन्हा लोगों से सिर्फ दीदी के काम पर वोट मांग रहे हैं।
आसनसोल में सीधी लड़ाई तृणमूल कांग्रेस और भाजपा की है। लेकिन इंडिया गठबंधन से माकपा की प्रत्याशी जहांआरा खान भी ग्रामीण इलाकों से टक्कर दे रही हैं। वह बेरोजगारी के मुद्दे पर वोट मांग रही है।
कल्याणकारी नीतियों को प्रचार
सड़कों पर चलती गाड़ियां, टोटो (बैटरी रिक्शा) में एक तरफ बज रहा “ऐ तृणमूल आर ना, आर ना, आर ना” अब प्रदेश में तृणमूल और नहीं चाहिए।
वहीं दूसरी ओर सबुज साथी, लक्ष्मी भंडार, स्वास्थ्य साथी कार्ड, रुपा श्री का बखान किया जा रहा है। खासकर महिला वोटरों को ध्यान में रखकर पांच सौ से बढ़ाकर एक हजार की गई लक्ष्मी भंडार की राशि को सबसे ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है।
लेकिन इन सबके बीच आसनसोल लोकसभा क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण बात पर किसी का कोई ध्यान नहीं है। किसी समय औद्योगिक हब कहलाने वाले इस क्षेत्र की कई फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं या फिर निजी हाथों को सौंप दी गई है। जिसके कारण इसमें काम करने वाले कर्मचारियों पर कई के तरह के संकट मंडरा रहे हैं।
साइकिल कंपनी बंद
राष्ट्रीय राजमार्ग 2 पर कई छोटी-छोटी कंपनियां नजर आ जाएगी। जहां 300 दिहाड़ी पर मजदूरी करने के लिए लोग तैयार हैं। उस पर किसी छोटी-मोटी गलती पर ठेकेदार द्वारा निकाल दिए जाने का अलग डर है।
आसनसोल में मुख्यत: पब्लिक सेक्टर में ईसीएल, हिंदुस्तान केबल, सेल, सेनरेल आता है। जिसमें सेनरेल साइकिल कंपनी ने घाटे के कारण साल 2002 में श्रमिकों को वीआरएस दे दिया गया।
हालांकि आसनसोल के पूर्व सांसद वंशगोपाल चौधरी के अनुसार “ साल 2009 में एक साइकिल कंपनी से 32 करोड़ का प्रस्ताव दिया था। इसकी जमीन पर नया साइकिल कारखाना लगाने का। लेकिन कानूनी जटिलताओं को कारण केंद्र सरकार से मंजूरी नहीं मिल पाई थी। यही कुछ स्थिति हिंदुस्तान केबल की भी रही।”
लेकिन ईसीएल इस मामले में थोड़ा लकी है। जनचौक की टीम ने आसनसोल की एक प्राइवेट और एक पब्लिक सेक्टर की कंपनी का दौरा किया और उसके पतन के बारे में जानने की कोशिश की। साथ ही वहां काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी के बारे में जानने की कोशिश की। जिनकी आवाज चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रही है।
आसनसोल साउथ विधानसभा क्षेत्र का बल्लभपुर ग्राम। इसमें ही स्थित है बल्लभपुर पेपर मिल, जो अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही है, जो देश के पांचवीं पेपर मिल थी। लेकिन धीरे-धीरे यह बंद होने की कगार पर है।
जनचौक की टीम वहां गई तो देखा कि सादे और नीले रंग के बड़े से गेट पर लिखा है बल्लभपुर पेपर मैन्युफेचरिंग लिमिटेड। इसी गेट के बगल में एक छोटा सा गेट था। जिससे स्टॉफ अंदर जाता होता। गेट पर एक प्राइवेट कंपनी का गार्ड था। नाम था अजय मुखर्जी।
उन्होंने बताया कि कंपनी में स्टॉफ तो नहीं आता। बस हमारी कंपनी के कुछ गार्ड इसके सामान की रखवाली करने आते हैं। इससे ज्यादा हमें कोई मतलब नहीं है।
कंपनी के बगल में ही इसके खंडहर पड़े क्वार्टर हैं। जिसकी कोई सुध लेने वाला नहीं है। बल्लभपुर गांव से ही कई लोग यहां काम करते थे। जो पिछले चार महीने से कंपनी बंद होने के कारण दिहाड़ी मजदूरी करने को मजबूर हैं। जिसमें कुछ स्थायी और अस्थायी दोनों तरह के कर्मचारी शामिल हैं।
बैटरी रिक्शा चलाने को मजबूर
उन्हीं में एक है संतोष भगत। जो पेपर मिल में एक स्थायी कर्मचारी हैं। इनके दो बच्चे हैं। जो सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं। संतोष के घर के बाहर एक बैटरी रिक्शा खड़ा हुआ था। शायद वह उसी वक्त चलाकर लेकर आए थे। मैंने उनसे पूछा ये आपने नया लिया या किसी से भाड़े पर लेकर चलाते हैं। जवाब आया सेकेंड हैंड खरीदा है। क्या करें चार महीने से कंपनी बंद पड़ी है। पहले दो महीने के लिए लोगों को सस्पेंड किया गया था। अब तो चार महीने हो गए हैं। सभी लोग परेशान हैं।
“जीविका तो किसी तरह चलानी है। भूखे तो रह नहीं सकते, इसलिए खरीदा है। ताकि थोड़ा बहुत कमाई हो जाए। महंगाई इतनी ज्यादा है, ऐसे में बिना काम के रह नहीं सकते हैं”।
संतोष कहते हैं कि आजकल सड़कों पर बहुत ज्यादा बैटरी रिक्शा हो गए हैं। इसलिए इससे भी कमाई ज्यादा नहीं हो पाती है। दिनभर काम करने के बाद 300-350 रूपए ही घर आ पाते हैं।
“मैं तो कहता हूं कंपनी हमें भले ही पुरानी चार महीने की सैलरी न दे लेकिन बंद पड़ी कंपनी चालू हो जाए। अगर कंपनी खुल जाएगी तो हमारे लिए कमाई के लिए एक उम्मीद जाग जाएगी। अगर हमें चार महीने की सैलरी दी जाती है और कंपनी नहीं खुलती है तो हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा”।
कंपनी में दो तरह के कर्मचारी काम करते हैं। पहले जो स्थायी हैं दूसरे अस्थायी, जिस दिन कोई स्थायी कर्मचारी काम पर नहीं आते तो उसके बदले में अस्थाई मजदूर काम करते हैं।
ऐसे ही हैं शान्तिलाल बाउरी। जो एक अस्थायी कर्मचारी है। एक पतली सी गली के बीच एक सरकारी आवास में रहते हैं। एक कमरे के घर में सरकारी शौचालय है। जहां गेट भी नहीं लगा है।
शान्तिलाल कहते हैं कि सरकार ने शौचालय तो बना दिया है, लेकिन गेट किसी ने नहीं दिया। घर में चूल्हे में खाना बनता है। परिवार में तीन लोग रहते हैं। दो बेटियों की शादी हो चुकी है।
शान्तिलाल बताते हैं कि “दिसंबर के बाद से कोई काम नहीं मिला है। पहले लगभग 28 से 30 दिन तक काम मिल जाता था। तो घर ठीक-ठाक चल जाता था। जनवरी से कंपनी बंद है अब मजबूरी में दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है। कभी मजदूरी मिलती है तो कभी नहीं”।
बढ़ती महंगाई में ज़रूरत की बहुत सारी चीजों को छोड़ देना पड़ता है। शान्तिलाल के अंदर चुनाव को लेकर कोई खास उत्साह नहीं है। वह कहते हैं जो कंपनी खुलावा दे वही हमारे लिए नेता है। सिर्फ सरकारी चावल आटे के सहारे कब तक जिंदगी चलेगी।
कर्मचारियों की इस लड़ाई में ट्रेड यूनियन सीटू उनका साथ दे रहा है। बल्लभपुर की ही सीटू कार्यकर्ता सरस्वती मित्रा ने हमसे बताया कि किसानों का मुद्दा जरुर चुनावी मुद्दा है, लेकिन मजदूरों को बारे में कोई नहीं सोचता है।
जनवरी के बाद से ही फैक्ट्री बंद है। अंग्रेजों के जमाने से ही यह कंपनी यहां स्थापित है। कभी प्राइवेट, कभी सरकारी होती इस कंपनी को अब निजी हाथों में दे दिया गया है। मालिक कोलकाता में बैठा है। जनता परेशान है इससे उसको कोई लेना-देना नहीं है।
सरस्वती बताती हैं कि जनवरी से ही हमारा संगठन मजदूरों के हक के लिए लड़ रहा है। प्रदेश के निर्माण विभाग के मंत्री मलय घटक हमसे मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर है फिर भी मजदूरों से मुलाकात करने नहीं आए। स्थानीय विधायक अग्निमित्रा पॉल कर्मचारियों के धरने का हिस्सा जरुर बनने आई लेकिन उससे कोई खास लाभ नहीं हुआ। अब सभी लोग अपनी नौकरी की आस खो चुके हैं।
चार महीने से बंद पड़ी कंपनी के कर्माचरियों की स्थिति खराब है और आस भी खत्म होती जा रही है। 54 वर्षीय अजीत दास साल 2009 से इस कंपनी में कार्यरत हैं। वह कहते हैं कि हमें 392 रुपए के हिसाब से दिहाड़ी दी जाती हैं। जबकि अस्थायी कर्मचारियों को 289 रुपये मिलते हैं।
अजीत के अनुसार जब तक नौकरी थी। तब तक राशन दुकान वाला कभी किसी चीज के लिए मना नहीं करता था। अब उन्हें भी लगता है कि हमें नौकरी वापस नहीं मिलेगी इसलिए वह उधार राशन देने से कतराते हैं। किसी तरह रिश्तेदारों से उधार लेकर जीवन चल रहा है। बाकी अब दिहाड़ी मजदूरी बाकी रह गई है। वही करने जाएंगे। कब तक फैक्ट्री खुलने की आस में बैठे रहेंगे।
अब दूसरी बात पब्लिक सेक्टर की कोल इंडिया की ईस्टर्न कोल्फील्ड्स लिमिटेड (ईसीएल) की। जिसकी कई खदानों को निजी कंपनियों को दिए जाने का मजूदर संगठन लगातार विरोध कर रहे हैं। ईसीएल में 12 एरिया हैं। इसमें से एक है सोदपुर एरिया। इसी एरिया की चिनाकुड़ी कोलियरी के बाहर “नो एंट्री फॉर प्राइवेट कंपनी” का एक बैनर टंगा हुआ है।
इससे साफ जाहिर होता है कि सोदपुर एरिया की इस कोयला खद्दान को निजी हाथों में दे दिया गया है। जिसके बाद यहां किसी ठेकेदार के अंदर मजदूर काम करेंगे। जिन्हें ईसीएल के कर्मचारी जितनी सुविधा नहीं दी जाएगी।
इन्हीं सभी को देखते हुए पिछले छह महीने से सभी संगठन मिलकर इसका विरोध कर रहे हैं। लेकिन विरोध का कोई खास असर नहीं दिखाई देता है।
चालू माइंस के निजीकरण की चिंता
भारतीय मजदूर संघ के एक नेता ने नाम ना लिखने की शर्त पर बताया कि “ हम कर्मशियल माइनिंग और एमडीओ प्रक्रिया के खिलाफ लड़ रहे हैं। इसी के तहत कोयला खदानों को प्राइवेट हाथों में दिया जा रहा है”।
वह बताते हैं कि नियम के अनुसार किसी भी चालू खदान को किसी भी निजी कंपनी को नहीं दिया जा सकता है, सिर्फ उन्हीं खदानों को प्राइवेट हाथों में दिया जाना है जो पूरी तरह से बंद हो चुकी है। लेकिन सोदपुर एरिया के अंदर एमडीओ के तहत तीन चालू और एक बंद कोलयरी को निजी कंपनियों को दे दिया गया है।
वह कहते हैं कि स्थिति यह हो गई है कि लोग रिटायर तो हो रहे लेकिन नई भर्ती नहीं की जा रही है। इतना ही नहीं कोलियरी के मजदूरों को दूसरी कोलियरी में शिफ्ट या ट्रांसफर किया जा रहा है।
ऐसा इसलिए किया जा रहा ताकि अधिक मैन पावर के बीच कम प्रोडक्शन दिखाया जा सके। जिससे इसे निजी कंपनियों को देने में किसी तरह की कोई परेशानी न हो।
बीएमएस के अनुसार साल 2022 में हुई investor meet/ launch of closed disconitued mines of CIL on revenue sharing model के तहत सीआईएल की सभी 20 बंद खदानों को दोबारा से खोलने की बात की गई थी। लेकिन अब स्थिति कुछ और है यहां चालू खदानों का भी निजीकरण किया जा रहा।
इसका सबसे बड़ा खतरा स्थानीय लोगों पर पड़ेगा। स्थानीय लोगों का रोजगार खत्म करके ठेकेदार अपने साथ बाहर से लोगों को लेकर आएंगे। फिलहाल लोगों को बिजली पानी ईसीएल की तरफ से मिलता है। इसके बाद यह मिल पाना संभव नहीं है क्योंकि ठेकेदार सिर्फ अपना मुनाफा कमाने आएगा।
चिनाकुड़ी की माइंस इन्वोटिव माइनिंग को दी गई है। अप्रैल में ही काम शुरू होने वाला था। फिलहाल कंपनी बैकपुट पर है। हो सकता है चुनाव खत्म होने के बाद फिर काम शुरु कर दिया जाए।
वहीं दूसरी ओर सीटू की मदर पार्टी माकपा तो इसी मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है। प्रत्याशी जहांआरा खान अपना भाषण में लगातार इस बात को उठा रही हैं।
कोलियरी में भी सीटू अन्य संगठनों के साथ मिलकर इस लड़ाई को लड़ रहा है। कोलियरी के सीटू नेता निशिक चक्रराज के अनुसार “हमें जैसे ही पता चला कि माइंस को निजी हाथों में दे दिया गया है। सभी संगठनों ने संगठित होकर इसका विरोध किया। आसपास के लोग इस विरोध का हिस्सा बने और ठेकेदार को कोलियरी का गेट पार नहीं करने दिया”।
उनके अनुसार चिनाकुड़ी की माइंस वन में फिलहाल 72 मिलियन टन और माइंस थ्री में 22 मिलियन टन कोयला बचा हुआ है। ऐसे में जो माइंस चालू है उन्हें क्यों निजी हाथों में दिया जा रहा है। हमारी लड़ाई बस इसी बात की है।
जब पहले ही यह निर्धारित किया गया है कि बंद कोलियरी को को निजी हाथों में दिया जाए तो चालू खदान को एमडीओ के तहत क्यों दिया जा रहा है।
अब जब शेयर की बात आई तो ईसीएल को पूरे प्रोड्क्शन का सिर्फ आठ फीसदी ही दिया जाएगा। बाकी सभी निजी कंपनी का होगा। ऐसे में मजदूरों पर ज्यादा प्रेशर डाला जाएगा। आठ घंटे की बजाए 12 घंटे काम कराया जाएगा।
हमने कोलियरी के निजीकरण के बारे में आसनसोल के एक वरिष्ठ पत्रकार से बातचीत की। नाम न लिखने की शर्त पर उन्होंने बताया कि यह पहली बार नहीं है जब कोलियरी में ठेका श्रमिक काम कर रहे हैं। यह काम पहले से ही किया जा रहा था।
लेकिन उस वक्त उनके काम डिपॉर्टमेंट के हिसाब से होते थे। उनका वेतन और बोनस उससे ही निर्धारित होता था। ईसीएल के सिविल विभाग का काम इसी तरह चला आ रहा है। जबकि अब पूरी तरह से निजी कंपनियों को दिया जा रहा है।
उन्होंने ठेके पर काम के चार तरीकों के बारे में बताया
1- ईसीएल के भीतर नॉन प्रोड्क्शन ग्रुप जो मुख्य रुप से सिविल का काम करता है।
2- वैसे भी ठेका श्रमिक है जो प्रोड्क्शन का काम के लिए खदान के भीतर जाते हैं।
3- Out source के तहत पूरी खदान ही निजी कंपनी को दे दी जाती है और ईसीएल काम को देखती है।
4- अब MDO के तहत प्रबंधन और उत्पादन दोनों ही निजी कंपनियों को दे दिया जाएगा।
फिलहाल दो विपक्षी पार्टियों के प्रचार में यह मुद्दे पूरी तरह से गायब हैं। जो आसनसोल का सबसे महत्वपूर्ण और जरुरी मुद्दा है।भाजपा प्रत्याशी से हमने जब उद्योगों को विनाश का कारण जानना चाहा तो उन्होंने सारा ठीकरा लेफ्ट की सरकार के ऊपर फोड़ दिया।
उनके अनुसार लेफ्ट की सरकार के दौरान आसनसोल की कई छोटी-छोटी फैक्ट्रियां पार्टी की गलत नीतियों के कारण बंद हो गई। जिसके कारण उनके पिता जी की भी नौकरी चली गई।
मौजूदा राज्य सरकार पर भी उन्होंने वही आरोप लगाया है। केंद्र सरकार द्वारा हाल के सालों में कोल खदानों को एमडीओ के तहत निजी कंपनियों को दिए जाने के सवाल पर भी आलहुवालिया ने गोलमोल जवाब देते हुए कहा कि “साल 1991 में मजदूर संगठनों द्वारा पीवी नरसिम्हा राव की सरकार के साथ मिलकर एक एग्रीमेंट किया था। जिसके कारण उन्हें सभी कोयला खदानों को प्राइवेट किया जा रहा है”।
वहीं दूसरी ओर इंडिया गठबंधन की उम्मीदवार जहांआरा खान जोरों शोरों से इस मुद्दे को उठा रही है। वह अपनी पदयात्रा, रैली सभी में लोगों को आगाह कर रही हैं कि अगर इनकी सरकार आई तो कोयला खदानों को बेच दिया जाएगा और शिल्पांचल बन नहीं पाएगा।
जनचौक से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “कांग्रेस की सरकार के दौरान कोयला खद्दानों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। अब निजीकरण किया जा रहा है। जिसके कारण कर्मियों की सुरक्षा पूरी तरह खत्म हो जाएगी”।
वह आगे कहते हैं कि फिलहाल स्थायी कर्मचारियों को तरह-तरह की सुरक्षा सुविधा दी जाती है। यहां तक की अगर मजदूर के साथ कोई घटना हो जाती है तो उसके आश्रित परिवार को नौकरी से लेकर मेडिकल तक हर तरह की सुविधा मिलती हैं।
लेकिन ठेका मजदूरों के साथ ऐसी सुविधा निजीकरण के बाद नहीं मिलेगी। उनसे मशीन की तरह काम कराया जाएगा। यहां तक उनकी सुरक्षा पर भी ध्यान नहीं दिया जाएगा।
तृणमूल के प्रत्याशी शत्रुघ्न सिन्हा से हमने कई बार मिलने के कोशिश की लेकिन नहीं मिल पाए।
एक सर्वे के अनुसार साल 1992 के बाद से लगभग 22 कोल खदानों को बंद कर दिया गया है। जिसमें कुछ को प्राइवेट कंपनियों को देने की बात चल रही है।
(आसनसोल से पूनम मसीह की रिपोर्ट)