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संघ की चुनाव में एंट्री का मकसद !

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सुसंस्कृति परिहार
खासकर उत्तरप्रदेश विधानसभा के दो चरणों के मतदान की गुप्त रिपोर्ट से आहत होकर अब सीधे संघ प्रमुख को चुनाव में अपनी आहुति देने मज़बूर होना पड़ा है। उन्हें ये कहने मज़बूर होना पड़ा है कि संघ कार्यकर्त्ता वहां जुटें। जैसा कि पूर्ववत यह बात ज़ाहिर सी है कि भागवत , योगी आदित्यनाथ से बड़ी उम्मीदें लगाए हुए हैं वे उन्हें हिंदू राष्ट्र के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देख रहे हैं इसलिए मोदी और शाह को ज्यादा लिफ्ट नहीं दे रहे हैं ।जब से नागपुर से अधिक हर क्षेत्र में गुजरात का एकाधिकार बढ़ा है तब से भाजपा में अंदर अंदर कस के ठनी हुई है इसीलिए भगवा वेष धारी योगी को वे आगे प्रोजेक्ट किए हुए हैं।भगवा ध्वज के साथ जब भगवा पोशाकधारी  नये संसद भवन में जब योगी पहुंचेगा तब भारत अपने पुरातन स्वरुप में लौट आयेगा।वह तब स्थायी  होगा। मनुस्मृति लागू होगी। चुनाव ,संविधान ,जनाधिकार सब ख़त्म । महिलाएं सिर्फ घर गृहस्थी संभालेंगी। दलित और पिछड़े गुलाम होंगे वगैरह वगैरह। नेपाल में भले ही हिंदू राष्ट्र मिट गया किंतु उसका जवाब भागवत भारत से दुनिया को देंगे।
मगर इस सपने को दो चरणों में जनता ने चकनाचूर कर दिया।भला ये कैसे संघ बर्दाश्त कर सकता है गांधी की हत्या के बाद से जिस लक्ष्य को लेकर संघ आगे बढ़ा है सत्ता तक पहुंच गया उस पर आंच कैसे आने देगा। एक बार सत्ता मिल जाने के बाद यह सितम वह सह नहीं सकता उसका लक्ष्य साफ है येन केन प्रकारेण हिंदु राष्ट्र बनाना है।उत्तर प्रदेश यह सिला देगा  संघ ने कभी सोचा भी ना होगा।वे तो मस्त रहे राममंदिर और योगी चुनाव जिता देगा।उधर चुनाव आयोग भी समझदार है सात चरणों में चुनाव रखें ताकि बिगड़ी बनाई जा सके। अभी दो चरण ही निपटें हैं पांच चरण बाकी हैं और उनमें प्रशासन और चुनाव आयोग की मदद के अलावा दहशत का माहौल बनाकर क्या नहीं किया जा सकता है ? लगता है इसकी तैयारी में संघ एक जुट होगा।नया रास्ता भी खोजा जा सकता है।
ऐसे माहौल में ज़रूरत इस बात की है मतदाता निडर होकर वोट करें । जागरुक रहें । प्रलोभन में ना आएं।अपनी पसंद के उम्मीदवार को वोट करें। संघ के इस अप्रत्याशित आव्हान का मकसद और क्या हो सकता है।भागवत के बाद अमित शाह तो मतदाताओं से सिर्फ एक अपील कर दिए, करहल बस जिता दो तीन सौ सीटों हम जीत लेंगे।करहल सीट से ज्ञातव्य हो समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव उम्मीदवार हैं। यह कैसा संदेश है? क्या अखिलेश की हार का ऐसा असर हो सकता है।स्मृति इरानी को याद करिए जब पहली बार अमेठी हारीं तो मानवसंसाधन मंत्री बन गई थीं। ममता बनर्जी को हार के बावजूद बंगाल का मुख्यमंत्री बनाया गया।तो अखिलेश क्यों नहीं?तीन सौ सीटें कैसे लेंगे यह एक सवाल बनता है?
झूठ ,फरेब और गद्दारी का तमगा लेने वाला संघठन अब उत्तरप्रदेश के शेष चुनाव में  जब डटेगा तो ज़रा संभल के रहना क्योंकि इन्हें हत्याओं और दंगों का अच्छा खासा अनुभव है।देखना यह है कि मतदाता इस संकट से कैसे अपने प्रत्याशी को जिताते हैं।आशा बंधती है उन अधिकारियों और कर्मचारियों से जो चुनाव निष्पक्ष कराने की जिम्मेदारी पिछले चरणों में बखूबी निभाए हैंऔर आगे भी निभाएंगे सारा दारोमदार उनके कांधों पर है।

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