अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

सावरकर के ‘वीर’ होने पर सवाल ?

Share
अवतार सिंह जसवाल

ब्रिटिशराज से आज़ादी के लिए देश की जनता ने करीब दो सौ साल तक लंबी लड़ाई लड़ी। उसमें सभी वर्गो, धर्मों, जातियों और समुदायों ने अपने-अपने ढंग से भाग लिया और कुर्बानियां दीं। उनकी बदौलत आखिरकार 15 अगस्त,1947 को भारत आज़ाद हुआ। लेकिन आज़ादी की लड़ाई के दौर में कुछ ऐसे नेता और संगठन भी थे, जिन्होंने इसमें में भाग लेना तो दूर, अंग्रेजी सरकार का साथ देना बेहतर समझा था। यही नहीं, उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ रही देश की जनता के बीच धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता का ज़हर घोलकर उसकी एकता और ताक़त को कमज़ोर करने की कोशिश भी की थी।

उसी साम्प्रदायिक नफ़रत के कारण बाद में हिन्दुस्तान के भारत और पाकिस्तान में दो टुकड़े भी हुए, लाखों निर्दोष लोगों ने जान गंवाई, बेघर और बर्बाद हुए। आखिर कौन थे इसके लिए जिम्मेदार? हिंदू संगठनों में आरएसएस और हिंदू महासभा और मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग थी। इस ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता गोलवलकर और हिन्दू महासभा के नेता सावरकर थे, जो देश को हिंदूराष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे, तो दूसरी ओर मोहम्मद अली जिन्ना था, जो पाकिस्तान चाहता था।

धर्म के आधार पर अलग हिंदूराष्ट्र की शुरुआत विनायक दामोदर सावरकर ने 1937 में ‘द्वि-राष्ट्र’ का सिद्धांत पेश करके कर दी थी। उसके बाद अंग्रेजों के उकसावे पर मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने भी मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की मांग करनी शुरू कर दी। फिर 1940 में मुस्लिम लीग ने अपने बम्बई (अब मुंबई) अधिवेशन में बाकायदा अलग पाकिस्तान का प्रस्ताव पास कर दिया। इस तरह आज़ादी से पहले हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक नेताओं ने धर्म के आधार पर देश के दो टुकड़े करने की बुनियाद रखी। ‘द्वि-राष्ट्र’ का सिद्धांत पेश करने से अंग्रेज सरकार ने सावरकर को 60/- रुपए महीने की पेंशन देनी शुरू कर दी थी, जो देश को आज़ादी मिलने तक जारी रही थी।

आज संघ-भाजपा और सावरकर के अनुयायी उसे ‘वीर’ स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रचारित करते हैं। क्या वी. डी. सावरकर वास्तव में एक ‘वीर’ था? इतिहास इस बारे में क्या कहता है?

लंदन स्थित इंडिया हाउस में रहकर भारत में ब्रिटिशराज के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने के लिए अंग्रेजों ने 1910 में विनायक दामोदर सावरकर को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चलाया और आजीवन कारावास का दंड देकर 1911 में उन्हें अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया था।। यह कोई साधारण जेल नहीं थी। हालांकि वह जर्मनी के कुख्यात, साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान जैसे यातना शिविरों जैसी नहीं थी, लेकिन भारत की आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देशभक्तों को उसमें खूब यातनाएं दी जाती थीं।

कहा जाता है कि सावरकर इन यातनाओं को सहन नहीं कर सके और अंदर से टूट गए थे। उस हालत में रिहाई की भीख मांगते हुए उन्होंने अंग्रेजी भारत सरकार को बार-बार, करीब आधा दर्जन बार, माफ़ीनामे लिखे थे। पहला माफीनामा उन्होंने वहां पहुंचने के 5 महीने बाद ही दिसंबर 1911 में लिखा था। प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी मजूमदार ने सावरकर के माफीनामों का जिक्र करते हुए उनके 14 नवंबर,1913 के माफीनामे को अपनी किताब Penal Settlement in Andamans में उद्धृत किया है। इस माफ़ीनामे के बाद अंग्रेज सरकार ने इस ‘वीर’ के बारे में सहानुभूतिपूर्वक विचार करना शुरू किया था।

आर.सी मजूमदार की यह किताब भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने जनवरी,1975 में प्रकाशित की थी। यहां यह बता देना उचित होगा कि मजूमदार कोई वामपंथी इतिहासकार नहीं हैं और वैचारिक तौर पर वह दक्षिणपंथी विचारधारा के नजदीक पाए जाते हैं। उन्हीं की उपरोक्त पुस्तक से हम सावरकर के उस माफीनामे को पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसके बाद ब्रिटिश भारत सरकार ने इस ‘वीर’ के प्रति नरमी का रुख अपनाया था।

” सेवा में,
गृह सदस्य,
भारत सरकार।

मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदुओं को प्रस्तुत करता हूं: जून 1911 में जब मैं यहां आया, मुझे मेरी पार्टी के अन्य दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के दफ्तर ले जाया गया। वहां मुझे डी यानी डेंजरस (खतरनाक) कैटेगरी के कैदी का दर्जा दिया गया जबकि मेरे साथ के दोषियों को डी श्रेणी में नहीं रखा गया। उसके बाद मुझे 6 महीनों तक अकेले कोठरी में बंद रखा गया। अन्य को नहीं रखा गया। मुझे नारियल कूटने के काम में लगाया गया जबकि मेरे हाथों से खून टपक रहा था। उसके बाद मुझे तेल निकालने की चक्की में लगाया गया, जो जेल में कराए जाने वाला सबसे मुश्किल काम है। इस बीच हालांकि मेरा व्यवहार बेहद अच्छा रहा परंतु फिर भी मुझे 6 महीने बाद यहां से रिहा नहीं किया गया जबकि मेरे साथ के लोगों को रिहा कर दिया गया। अब तक जितना हो सके मैंने अपने व्यवहार को संगत बनाए रखने की कोशिश की है।

जब मैंने तरक्की के लिए प्रार्थना की तो मुझे बताया गया कि मैं खास श्रेणी का कैदी हूं इसलिए मुझे तरक्की नहीं मिल सकती।जब हमारे किसी साथी ने अच्छे भोजन और अच्छे व्यवहार की मांग की तो हमें कहा गया तुम साधारण कैदी हो, इसलिए तुम्हें वही खाना मिलेगा जो दूसरे कैदी खाते हैं। इस तरह से, सर, आप देख सकते हैं कि हमें खास तौर पर तकलीफ देने के लिए ही इस श्रेणी में रखा गया है।

जब मुकदमे में मेरे साथ के ज्यादातर लोग छोड़ दिए गए, तो रिहाई के लिए मैंने भी अर्जी दी। हालांकि मुझ पर ज्यादा से ज्यादा दो-तीन बार मुकदमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया जबकि जिन्हें छोड़ा गया उन पर तो 12 से ज्यादा बार भी मुकदमा चला है। मुझे उनके साथ रिहा नहीं किया गया क्योंकि मेरा मुकदमा चल रहा था। परंतु जब आखिरकार मेरी रिहाई का हुकम आया, उस समय संयोग से कुछ राजनीतिक कैदियों को जेल में लाया गया। क्योंकि मेरा मुकदमा उनके साथ चल रहा था, इसलिए मुझे उनके साथ ही बंद कर दिया गया।

अगर मैं किसी भारतीय जेल में होता तो अब तक मुझे काफी राहत मिल गई होती। मैं अपने घर अधिक पत्र लिख पाता, लोग मुझसे मिलने भी आते। अगर मैं आम कैदी होता तो अब तक जेल से रिहा हो चुका होता और टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता। लेकिन मौजूदा समय में ना तो मुझे भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है और ना ही इस जेलखाने के नियम मुझ पर लागू हो रहे हैं। इस तरह मुझे एक नहीं दो-दो मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए, हजूर, क्या आप मुझे भारतीय जेल में भेजकर या अन्य कैदियों की तरह आम कैदी घोषित करके इस विकट स्थिति से निकालने की कृपा करेंगे? मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक कैदी होने के नाते मैं किसी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी उम्मीद कर सकता था! मैं तो बस सुविधाओं और कृपा की मांग कर रहा हूं जिस के हकदार सब से वंचित दोषी और पेशेवर अपराधी भी होते हैं।

मुझे हमेशा के लिए जेल में बंद रखने की मौजूदा योजना के मद्देनजर मैं जिंदगी की उम्मीद बचाए रखने में निराश होता जा रहा हूं। निश्चित वर्षों के लिए बंद कैदियों की स्थिति अलग है, परंतु हुजूर मेरी आंखों के सामने 50 साल लंबा समय नाच रहा है। इतना लम्बा समय क़ैद में बिताने के लिए मैं नैतिक साहस कहां से जुटाऊंगा, जबकि मुझे तो वे सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं, जिनकी आशा सबसे खूंखार कैदी भी अपने जीवन को आसान बनाने के लिए कर सकता है। या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए ताकि मैं वहां (एक) सजा में छूट हासिल कर सकूं,.( दो) हर 4 महीने बाद मैं अपने लोगों से मिल सकूं। जो लोग बदकिस्मती से जेल में हैं, वही यह जानते हैं कि अपने रिश्तेदारों, करीबी लोगों से जब-तब मिलना कितना सुख देता है, और (तीन) सबसे ऊपर मेरे पास बेशक कानूनी नहीं, लेकिन14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा। अगर मुझे भारत नहीं भेजा जा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी और कैदी की तरह जेल से बाहर निकलने की आशा तो दी जाए, 5 वर्षों के बाद मुलाकातों की इजाजत तो दी जाए, मुझे टिकट-लीव तो दी जाए ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं ।

यदि मुझे यह रियायतें दी जाती हैं, तो मुझे बस एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ मेरी गलती का दोषी माना जाए, न कि दूसरों की गलती का। यह बड़ी दयनीय स्थिति है कि मुझे उन सभी चीजों के लिए फरियाद करनी पड़ रही है,जो हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। ऐसे वक्त में, जब यहां एक तरफ 20 राजनीतिक कैदी हैं जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी ओर जेल की इस बस्ती के नियम-कानून हैं, जो विचार और आजादी की अभिव्यक्ति को कम से कम स्तर पर सीमित रखने वाले हैं। क्या यह जरूरी है कि हम में से कोई भी अगर जब किसी नियम-कानून को तोड़ता पाया जाए, तो उसके लिए हम सभी को दोषी ठहराया जाए? ऐसे में तो मुझे बाहर निकलने की कोई उम्मीद ही नज़र नहीं आती।

आखिर में, हुजूर मैं आपको यह याद दिलाना चाहता हूं कि आप दया दिखाते हुए मेरी सज़ा माफी की 1911 में भेजी गई अर्जी पर फिर से विचार करें और इस को भारत सरकार को भेजने की सिफारिश करें।

भारत में राजनीति के ताजा घटनाक्रमों और सरकार की सबको साथ लेकर चलने की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर से खोल दिया है। अब भारत और मानवता की भलाई का इच्छुक कोई भी इंसान अंधा होकर उन कांटों भरी राह पर नहीं चलेगा, जैसा 1906-07 की निराशा भरी उत्तेजना के माहौल ने शांति और प्रगति के रास्ते से हमें भटका दिया था। इसलिए सरकार अगर अपनी अथाह नेकनियति और दया भावना से मुझे रिहा करती है, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेजी सरकार का वफादार रहूंगा, जो विकास की पहली शर्त है।

‌हम जब तक जेल में हैं तब तक महामहिम की सैकड़ों-हजारों वफादार प्रजा के घर में वास्तविक खुशी और सुख नहीं आ सकते, क्योंकि खून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता। अगर हमें छोड़ दिया जाता है, तो लोग खुशी और एहसान के साथ सरकार के पक्ष में, जो सजा देने और बदला लेने से अधिक क्षमा करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे।

इससे भी अधिक मेरा संविधानवादी रास्ते का धर्मरूपांतरण भारत के भीतर और बाहर रहने वाले भटके हुए नौजवानों को, जो कभी मुझे अपना पथ-प्रदर्शक मानते थे, सही रास्ते पर लाएगा। मैं भारत सरकार की जैसी वह चाहे उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण मेरी अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह भविष्य में मेरा व्यवहार भी होगा। मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला लाभ मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले फायदे के सामने कुछ भी नहीं है।

जो ताकतवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार बेटा सरकार के दरवाजे के अलावा और भला कहां जा सकता है! उम्मीद है, हुज़ूर मेरी दरख्वास्त पर दयापूर्वक विचार करेंगे।

वी डी सावरकर “

इस तरह बार-बार रिहाई के लिए गिड़गिड़ाते हुए दया की भीख मांगने वाले ‘वीर’ सावरकर को आखिरकार 1921 में अंग्रेजी सरकार ने महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में एक बंगला और ₹60/-महीने की पेंशन देकर उसकी सेवाएं लेनी शुरू की थीं। इस तरह यह माफीबहादुर ‘वीर’ सावरकर देश को आज़ादी मिलने तक अंग्रेजों की पेशन पर जीते रहे थे। उन्होंने अंग्रेजों की ‘ फूट डालो और राज करो ‘ नीति की मदद करते हुए 1923 में देश की एकता के लिए घातक ‘हिंदुत्व’ जैसी किताब लिखी और फिर ‘द्वि-राष्ट्र’ जैसे सिद्धांतों को जन्म दिया। इन सिद्धान्तों ने आगे चलकर भारतीयों की एकता को नष्ट करते हुए देश के भविष्य को साम्प्रदायिकता के हवाले कर विभाजन की आग में झोंकने का काम किया था।

आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा ‘वीर’ ढूंढे से नहीं मिलता, जो यातनाओं से डर कर उसकी तरह अंग्रेजों के हाथों में भारत की एकता और अखंडता को तोड़ने का हथियार बना हो। इसे भारतीय लोकतंत्र की विडंबना ही कहा जा सकता है कि आज़ादी के बाद अटलबिहारी वाजपेई के नेतृत्व में जब पहली बार भाजपा सरकार केन्द्र में सत्ता में आई, तो (सन् 2003 में) संसद भवन के केंद्रीय हॉल में उसने सावरकर की तस्वीर को उस गांधी की तस्वीर के ठीक सामने लगाया, जिसकी हत्या के षडयंत्र में वह भी एक आरोपी था।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें