शशिकांत गुप्ते
सीतारामजी आज मिलते ही कहने लगे, निर्वाचन और नियुक्ति पर बहस होना चाहिए।
मैने पूछा इस मुद्दे पर बहस करने की कोई खास वजह है?
सीतारामजी ने कहा निर्वाचन मतलब चुनाव का लोकतंत्र में बहुत महत्व है। गांधीजी ने लोकतंत्र में चुनाव को लोक शिक्षण कहा है।
नियुक्ति शब्द सामंती सोच को दर्शाता है।
सामंती युग में जो भी राजा होता था। वह अपने चहेते व्यक्ति को अपना सिपहसालार नियुक्त करता था। इस नियुक्ति का व्यक्ति की योग्यता से कतई सम्बंध नहीं होता था। कारण राजा,स्वयं की स्तुतिगान करने वाला मतलब हाँ में हाँ मिलने वाला मातहत चाहता था।
सामंती युग समाप्त हो गया लेकिन सामंती मानसिकता हमारे समाज के कुछ लोगों में आज भी विद्यमान है।
अपने देश को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का गौरव प्राप्त है।
अपने देश में चुनाव होतें हैं। जनप्रतिनिधियों का निर्वाचन होता है। कुछ दशकों से एक अलोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई है। अपने देश में प्रधानमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद की प्रतिष्ठा चेहरे में समिट गई है। अपने दल की पहचान अन्य दलों से अलग दर्शाने वाले भी चुनाव के पूर्व मुख्यमंत्री का चेहरा प्रस्तुत करने में गर्व महसूस करतें हैं। स्वयं के दल के आजीवन मुखिया बने रहतें हैं।
अपने देश में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का सीधे निर्वाचन नहीं होता है। लेकिन कुछ दशकों से राजनैतिक दल के हाईकमान के द्वारा उक्त दोनों पदों के लिए दल के किसी एक व्यक्ति को ही योग्य समझा जाता है। चुनाव के बाद संसदीय दल के नेता और विधायक दल के नेता के निर्वाचन की औपचारिकता का निर्वाह मात्र होता है।
इसका मुख्य कारण है,राजनेताओं में अवलंबन की मानसिकता के साथ व्यक्ति,पूंजी और सत्ता केन्द्रित राजनीति के प्रचलन को प्रश्रय देना है।
उक्त सारी प्रक्रिया अलोकतांत्रिक है।
अपने देश में तकरीबन सभी राजनीतिक दलों में संगठनात्मक चुनाव नहीं होतें हैं। संगठनों में नियुक्तियाँ होती है। नियुक्तियों की योग्यता क्या होना चाहिए यह गोपनीय होते हुए भी सर्वविदित है।
इसीतरह स्वायत्त संस्थाओं की नियुक्ति पर भी प्रश्न उपस्थित होतें हैं। इनदिनों आननफानन में की गई नियुक्ति पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी संज्ञान लिया है।
लोकतंत्र के महत्व को सझते हुए जनता में जनप्रतिनोधियों से सीधे सवाल करने का साहस जागृत होना अनिवार्य है।
जनता को भावुक मुद्दों को दरकिनार कर बुनियाद मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
असहमति लोकतन्त्र की बुनियाद है।
वर्तमान में असहमति को बर्दाश्त नहीं किया जा रहा है।
शिक्षा,चिकित्सा,रोजगार,आर्थिक विषमता,और महंगाई जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने बजाए, वर्तमान में राजनिति, देश की पहचान अनेकता में एकता के व्यापक स्वरूप को संकीर्णता में बांधने का असफल प्रयास कर रही है।
उक्त सभी सवालों का एक मात्र जवाब है। हरएक क्षेत्र में वैचारिक क्रांति।
इतना कह कर आज सीतारामजी ने बौद्धिक मुद्दे को प्रकट किया
शशिकांत गुप्ते इंदौर