रामस्वरूप मंत्री
सैकड़ों आंदोलनों का नेतृत्व करते हुए अस्सी बार जेल जाने का रिकार्ड बनाकर ह्यलोकबंधुह्ण बने स्मृतिशेष राजनारायण (जिनकी आज पुण्यतिथि है) के बारे में सबसे सुखद तथ्य यह है कि 2017 में गुजर चुकी उनकी जन्मशताब्दी के सात साल बाद भी उनकी स्मृतियों पर विस्मृति की धूल नहीं पड़ी है। उनका जिक्र छिड़ जाए तो आज भी लोग उल्लसित होकर स्वत:स्फूर्त ढंग से बताने लग जाते हैं कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को दो साल में दो बार हराकर ऐसा रिकार्ड बनाया था, जो अभी तक अटूट है : 1975 में उन्होंने श्रीमती गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तो 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता के न्यायालय में शिकस्त दी थी और जायंट किलर के नाम से मशहूर हो गए थे।
तथ्यों पर जाएं तो 1971 के लोकसभा चुनाव में वे रायबरेली लोकसभा सीट से श्रीमती गांधी के खिलाफ चुनाव लड़े तो एक लाख से ज्यादा वोटों से हार गये थे। लेकिन हारकर भी हार न मानने की अपनी आदत के तहत उन्होंने उनके निर्वाचन को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी, जिसने 12 जून, 1975 को उसे अवैध घोषित कर दिया। साथ ही चुनावी गड़बड़ियों का दोषी करार देकर श्रीमती गांधी के 6 साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। इसके चलते प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे की विपक्ष की लगातार प्रबल होती मांग से घबराई इंदिरा गांधी ने देश पर इमर्जेंसी व अखबारों पर सेंसरशिप थोप दी, प्राय: सारे विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया और नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिए। लेकिन 1977 में उन्होंने इस उम्मीद में लोकसभा के चुनाव करवाये कि फूलती-फलती दिख रही इमर्जेंसी आसानी से उनकी सत्ता में वापसी करा देगी, तो भी राजनारायण ने रायबरेली में उन्हें कड़ी चुनौती दी। नतीजे आये तो मतदाताओं ने न सिर्फ इंदिरा गांधी की सत्ता से बेदखली का फैसला सुना दिया था, बल्कि रायबरेली सीट पर भी उनके नाम शिकस्त लिख दी थी। राजनारायण ने उन्हें पचास हजार से ज्यादा वोटों से हरा दिया था। देश में किसी पदासीन प्रधानमंत्री के चुनाव हारने की यह पहली और अब तक की एकमात्र मिसाल थी।
1977 में जनता पार्टी की मोरार जी देसाई सरकार बनी और दो साल में ही उसके घटक दलों की अंदरूनी कलह के चलते पतन के कगार तक जा पहुंची तो उन्होंने चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने की कसम खाकर उनको अपना ‘राम’ बना डाला और खुद के लिए उनके ‘हनुमान’ की भूमिका चुन ली। दरअसल, दोहरी सदस्यता के बहुचर्चित मुद्दे को मोरारजी सरकार के गले की फांस बनाने और उस फांस को बड़ी करने में राजनारायण ने खासी बड़ी भूमिका निभाई थी। इसको लेकर मोरार जी ने पहले उनको स्वास्थ्य मंत्री पद यानी अपनी कैबिनेट से बर्खास्त, फिर जनता पार्टी से भी निष्कासित करा दिया तो उन्होंने जैसे भी बने, उनको अपदस्थ कर उनके प्रतिद्वंद्वी चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री बनवाने की कसम खा ली। और खा ली तो कांग्रेस के समर्थन से कुछ ही दिनों में ऐसा कर भी दिखाया। लेकिन कांग्रेस द्वारा समर्थन वापस ले लेने के चलते चरण सिंह को जल्दी ही प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देना पड़ा और उनकी सरकार लोकसभा का मुंह देखे बिना ही चली गई।
बात इतने तक ही रहती तो गनीमत होती, लेकिन शीघ्र ही वह चरण सिंह से राजनारायण के मतभेदों और खुन्नस तक भी पहुंच गई। 1980 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में टुकड़े-टुकड़े हो चुकी जनता पार्टी का उनका गुट अपनी सारी संभावनाएं गंवा बैठा तो यह खुन्नस और बढ़ गई और 1984 के लोकसभा चुनाव तक इतनी विकट हो गई कि राजनारायण ने अपने ‘राम’ को ही ‘रावण’ करार देकर खुद को हनुमान के बजाय ‘विभीषण’ बना डाला।
अनंतर, उन्होंने इंदिरा गांधी की ही तरह चरण सिंह को भी चुनौती देने की ठान ली और उनकी बागपत लोकसभा सीट से निर्दल प्रत्याशी के तौर पर उनके खिलाफ ताल ठोक दी। कहने लग गए कि उनको राम करार देना उनके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी गलतियों में से एक था और वे इस गलती को सुधार कर उनके ‘साम्राज्य’ का खात्मा कर देंगे। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि चरण सिंह लोकतंत्र के दुश्मन हैं और उनके क्षेत्र में अल्पसंख्यकों, दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को मतदान ही नहीं करने दिया जाता। साथ ही प्रतिज्ञा कर डाली कि बागपत में चरण सिंह को हराने के बाद ही वे अपनी दाढ़ी बनवाएंगे।
लेकिन वे बागपत में रायबरेली जैसा करिश्मा नहीं दोहरा सके। उन्हें चरण सिंह के मुकाबले सिर्फ 33,666 वोट मिले और नतीजे में वे तीसरा स्थान ही पा सके। इतना ही नहीं, उनकी जमानत भी नहीं बचा पाई। उनके निर्दल ताल ठोंकते समय जिन पार्टियों ने उन्हें भरपूर समर्थन देने का वचन दिया था, उन्होंने भी अपने राजनीतिक स्वार्थों के मद्देनजर ऐन वक्त पर हाथ खींच लिए, जिसके फलस्वरूप उनको शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा।
बहरहाल, इससे साबित होता है कि राजनारायण ने अपने जीवन व संघर्ष के लिए जो सिद्धांत बनाए, उनसे कभी भी समझौता नहीं किया। न ही राजनीतिक नफे नुकसान की सोचकर अपनी राह बदली। जब भी जिस रूप में भी और जिस मंच पर भी जरूरी हुआ, अपनी बात जोरदार ढंग से रखते रहे। 31 दिसंबर, 1986 को उनका निधन हुआ तो बिना बुलाए ही हजारों लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए सड़कों पर निकल आए थे! उनकी सामाजिक व सांस्कृतिक जड़ों ने उन्हें स्वीकृति ही कुछ ऐसी दिला रखी थी।
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