ऊषा अहिरवार (जालौन)
_सुबह खबर आयी कि अफगानिस्तान पुलिस की पूर्व महिला कर्मी को गोली मार दी गयी है। क्यों और कैसे इसकी दुनिया में किसी को परवाह नहीं है तो हमें भी क्यों हो।अफगानिस्तान की एक यूनिवर्सिटी गेट से उन लड़कियों को लौटाया जा रहा है जिन्होंने बुरका नहीं पहना है। जाहिर है कि फिलहाल तालिबान प्रवक्ता यूरोप की यात्रा पर हैं।_
अफगानिस्तान में महिलाओं के संग जो हो रहा है वह इंटरनेट पर वायरल नहीं हो रहा है। ईरान में एक शख्स अपनी 17 की पत्नी की सिर काटकर सड़क पर लेकर आ गया। लड़की की जब12-15 साल की बच्ची थी तभी उसकी शादी हो गयी थी। वह पति से बचकर तुर्की भाग गयी थी।
_ईरानी पत्रकार कह रही हैं कि उस लड़की को ईरान वापस भेजने में ईरान के तुर्की दूतावास की भूमिका थी। वह देश लौटी तो पति ने गला काटकर सड़क पर जगजाहिर कर दिया। ईरान के एक इस्लामी विद्वान ने स्थानीय टीवी चैनल पर लड़की का गला काटकर घूमने वाले पति का बचाव करने का प्रयास किया।_
जाहिर है कि ऐसे मसलों पर इंटरनेट नहीं हिलता। लोकतान्त्रिक देशों को आजकल 'मुस्लिम महिलाओं' को बुरका पहनाने की ज्यादा चिन्ता है।
जाहिर है कि लोकतांत्रिक देशों में स्कूल में बुरका अधिकार बताया जा सकता है लेकिन अन्य देशों में यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ भी कपड़े के मामले में ‘माई च्वाइस’ नहीं कह सकतीं।
हमारे बीच कुछ लोग सेलेक्टिव सेकुलर हैं कि उन्हें अपने बच्ची के लिए कुछ और अच्छा लगता है, दूसरे की बच्चियों के लिए कुछ और। मासूमियत देखिए कि वो यह महान काम ‘धार्मिक अधिकारों की रक्षा’ के लिए कर रहे हैं। यह आम समझ है कि दुनिया के सभी प्राचीन धर्म मूलतः पितृसत्तात्मक हैं। उनकी जकड़ से महिलाओं को निकलने के लिए मूलतः धर्म की बेड़ियाँ ही तोड़नी पड़ती हैं।
रिलीजियस फ्रीडम का अधिकार मूलतः अपने मनपसन्द ईश्वर की पूजा करने का अधिकार है। स्वाभाविक सी लगने वाली यह बात अधिकार के रूप में दुनिया में क्यों प्रचारित की जाती है? क्योंकि कुछ धर्मों को लगता है कि केवल उनका ईश्वर ही सही है और उनकी पूजा-पद्धति ही सही है। इस मामले में हमारे देश में टू-मच डेमोक्रेसी रही है। कुछ देश तो ऐसे हैं कि उनके एक की जगह किसी दूसरे की तरफ हाथ जोड़ लिया तो जान गयी।
हमारे देश में 33 करोड़ देवी-देवता हैं। 33 करोड़ का जबका डेटा है उस समय के हिसाब से इस देश में पर-हेड तीन-चार देवी-देवता पड़ेंगे। तो फ्रीडम ऑफ फेथ एंड वर्शिप तो यहाँ का स्वभाव है।
कुछ लोग यह दिखाना चाह रहे हैं कि कर्नाटक विवाद की जड़ में केवल सत्ताधारी दल है। ऐसे लोग या तो मासूम हैं या चरमपंथी प्रोपगैण्डा नेटवर्क का हिस्सा हैं। सत्ताधारी दल मामले को हवा दे रहा होगा या उसका अपने चुनावी हित में इस्तेमाल कर रहा होगा लेकिन यह मामला उसके सत्ता में आने से बहुत पहले का है, उसकी सत्ता से बाहर की बहुत बड़ी दुनिया का है।
भारत में भी स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने का मामला केरल में हाईकोर्ट तक गया जहाँ आज तक भाजपा का दो विधायक या एक सांसद नहीं जीता।
अंतरराष्ट्रीय बुरका अभियान ने पहले चरण में नौजवान महिलाओं को टारगेट किया। उसके बाद वह स्कूली बच्चियों को टारगेट कर रहे हैं। इस्लामी देशों में बुरके के खिलाफ आन्दोलन चल रहे हैं। लोकतान्त्रिक देशों में बुरका पहनने को लेकर आन्दोलन चलाए जा रहे हैं।
पिछले 100 सालों में फैले इस्लामी चरमपन्थ के बहुत से मामलों की तरह इस मामले की भी जड़ में अमेरिका-यूरोप नजर आते हैं। एक बुरका-विरोधी आन्दोलन को शुरू करने वाली एक ईरानी पत्रकार ने सही सवाल पूछा है कि इस्लामी देशों में बुरके का विरोध करने वाली लड़कियाँ तो जेल, कोड़े या कत्ल किए जाने का रिस्क लेती हैं, लोकतांत्रिक देशों की लड़कियाँ क्या ऐसा रिस्क लेती हैं?
साल 2013 में न्यूयॉर्क में रहने वाली एक महिला ने एक फरवरी को हिजाब डे मनाने की शुरुआत की। 2013 से उसने शुरुआत की यानी इसकी भूमिका उसके पहले से बन रही थी। एक फरवरी वही दिन है जब ईरान की कथित इस्लामिक क्रान्ति के चलते अयातुल्लाह खुमैनी फ्रांस से ईरान लौटे! जरा सोचिए, ईरानी महिलाओं पर पर्दा थोपने वाला शख्स दुनिया के सबसे आजादख्याल मुल्क में पनाह लिए हुए था!
आज पचास साल बाद फ्रांस में सार्वजनिक स्थानों पर बुरके पर प्रतिबन्ध लग चुका है। इस प्रोपगैण्डा की शुरुआत बहुत साफ्ट तरीके से यह कहकर हुई कि मुस्लिम-द्वेष के खिलाफ साल में एक दिन हिजाब लगाना चाहिए।
इसकी शुरुआत एक लड़की ने की। जाहिर है कि हिजाब शब्द का चुनाव सोचसमझकर किया गया। कर्नाटक में भी विरोध-प्रदर्शन में शामिल ज्यादातर लड़कियाँ बुरके में नजर आ रही हैं लेकिन इंग्लिश मीडिया जानबूझकर हिजाब शब्द का प्रयोग कर रहा है। प्रोपगैण्डा युद्ध में शब्दों का चयन बहुत अहम है।
कर्नाटक विवाद में जिस स्कूल से ताजा विवाद शुरू हुआ है उसका नाम प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेज है।
जिन लड़कियों से विवाद शुरू हुआ वो 11-12वीं पढ़ती हैं लेकिन इस आन्दोलन के रणनीतिकारों ने यह सुनिश्चित किया कि कॉलेज शब्द का अस्पष्ट प्रयोग किया जाए क्योंकि भारत की बड़ी आबादी इस बात पर लड़कियों के साथ रहेगी कि कॉलेज की लड़की को अपनी मर्जी के कपड़े पहनने का हक है।
लेकिन यह कोई नहीं पूछेगा कि देश के किस-किस ग्रेजुएशन कॉलेज-यूनिवर्सिटी में लड़कियों के लिए ड्रेसकोड लागू है। ड्रेसकोड स्कूल तक ही लागू रहता है और यह प्रोपगैण्डा नेटवर्क स्कूल में बुरका लागू कराने के लिए ही सक्रिय है।
अपवाद छोड़ दिये जाएँ तो ज्यादातर स्कूली लड़कियाँ नाबालिग या 18 से कम ही होंगी। ताजा विवाद के बाद कल ऐसे पुराने विवादों के बारे में पढ़ रहा था तो पता चला कि इससे पहले एक विवाद में कक्षा 8 में पढ़ने वाली लड़की से स्कूल में बुरका पहनकर जाने की याचिका डलवायी गयी थी।
पॉपुलर फ्रंट केरल से निकला संगठन है। उसे अच्छी तरह पता है कि केरल में जब एक ईसाई स्कूल में बच्चियों के (जी हाँ, बच्चियों न कि महिलाओं के कपड़े जैसा कि प्रोपगैण्डा नेटवर्क ने स्थापित कर दिया है) के बुरका पहनने को लेकर मामला हाईकोर्ट पहुँचा तो अदालत ने न्याय दिया कि किसी एक बच्ची के अधिकार और संस्थान के अधिकार ( जो व्यापक समूह का अधिकार है) के बीच गतिरोध हो तो एक या कुछ व्यक्ति के अधिकार पर संस्था को तरजीह देनी पड़ेगी।
यह मामला भले अदालत पहुँच गया हो लेकिन इतना तो कॉमन सेंस होना चाहिए कि हर व्यक्ति की पसन्द के हिसाब से संस्था नहीं चल सकती।
ज्यादातर कॉलेजों में ड्रेसकोड लागू नहीं होता। ताजा विवाद और इससे पहले के विवाद भी स्कूल में बुरका पहनने को लेकर ही शुरू हुए। जब कॉलेज में बुरके पर रोक नहीं है तो स्कूल में बुरको को लेकर इतनी जिद क्यों! क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि लड़कियों की माहवारी शुरू होते ही वह छिपाने लायक हो जाती हैं।
ऐसी सोच वाले अपने बचाव में सबसे ज्यादा यह तर्क देते हैं कि फलाँ लोग भी पहले यही मानते थे आदि-इत्यादि। जाहिर है कि महिलाओं को अधिकार देने के मामले में कुछ लोग बाकी लोग से कई दशक या सदी पीछे चलते हैं। अफगानिस्तान जैसे देश तो उल्टी दिशा में चल पड़े हैं।
इस्लामी चरमपंथी स्कूली लड़कियों को बुरका पहनाने का अभियान चला रहे हैं। उनका अभियान इतना शातिर रहा कि ताजा विवाद में ग्रेजुएशन कॉलेज और यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ, प्रोफेशनल लड़कियाँ कह रही हैं कि उनके पास बुरका पहनने का अधिकार है।
उनसे यह कोई नहीं पूछ रहा कि यह अधिकार तो आपके पास पहले से ही है फिर आप स्कूली बच्चियों को बुरका पहनाने के अभियान में क्यों भागीदार बन रही हैं? ताजा मामले भी गर्ल्स स्कूल की लड़कियों के अभिभावक स्कूल प्रशासन से मिले।
उनका कहने का मतलब यही है कि जब माता-पिता के कहने से प्रशासन नहीं झुका तो वो कैम्पस फ्रंट के पास गयीं। ध्यान रहे कि ये स्कूल जाने वाली लड़कियाँ हैं। ज्यादातर अभी बालिग भी नहीं होंगी।
कुछ लोग यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि यह ‘अल्पसंख्यक’ का मुद्दा है तो उन्हें यह याद दिलाना जरूरी है कि इंटरनेट से कनेक्टेड ग्लोबल विलेज में सही मायनों में अल्पसंख्यक जैन, अहमदिया, पारसी इत्यादि ही कहे जा सकते हैं।
अन्य धर्मों का छोड़िए कम्युनिस्टों का भी इंटरनेशनल सपोर्ट नेटवर्क है तो वो भी डिजिटल संसार में अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते। हमारे देश में बहुत सारे लोगों की राय इस वक्त इसलिए बदली हुई है कि कर्नाटक या केंद्र में भाजपा सरकार है।
एक चर्चित महिला एंकर और एक मशहूर नोबेल विजेता जिन्हें स्कूल जाने के लिए ही गोली मारी गयी थी, के इस मामले से जुड़े विचार और पुराने विचार सोशलमीडिया पर वायरल हो चुके है।
यह पहला मामला नहीं है कि मुस्लिम महिलाओं के अधिकार को कट्टरपंथियों ने सरकार पर दबाव बनाकर दबाए हैं। हिन्दू धर्म में शामिल ज्यादातर महिला अधिकार सरकार और अदालत के रास्ते से आये हैं। यही बात मुस्लिम महिला के लिए भी सही है।
मुस्लिम महिलाओं के लिए भी सरकार-न्यायालय मुल्लाओं-अब्बाओं से ज्यादा उदार और आधुनिक साबित हुआ। आज ही एक हाईकोर्ट ने फैसला दिया है कि मृतक आश्रित की नौकरी पाने के मामले में बेटी का भी बेटे बराबर ही हक है। पिछले महीने अदालत का फैसला आया कि पिता की सम्पत्ति की इकलौती बेटी भी वारिस होगी। यह लिस्ट लम्बी है।
मुस्लिम महिला को गुजाराभत्ता देने के शाह बानो का मामला रहा हो या ताजा एक बार में तीन तलाक देने का मामला। सोचिए जो त्वरित तीन तलाक दो दर्जन से ज्यादा इस्लामी देशों में मान्य नहीं है उसे बचाने के लिए हमारे देश की समूची लिबरल लॉबी उतर पड़ी।
भाजपा की हिंदुत्ववादी राजनीति जगजाहिर है लेकिन विडम्बना देखिए कि मुस्लिम महिलाओं को पूरी तरह संवैधानिक तौर पर त्वरित तीन तलाक से मुक्ति भाजपा सरकार ने दिलायी। उसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट के त्वरित तीन तलाक के खिलाफ दिए गए आदेश से ही कुछ मुस्लिम महिलाएँ न्याय हासिल कर पाती थीं।
भाजपा राज में मुसलमानों के खिलाफ नफरत के हर तरह के प्रदर्शन में अभूतपूर्व बढ़ोतरी देखी गयी है। लता जी के निधन पर शाहरुख खान को जिस तरह हिन्दू कट्टरपंथियों ने ट्रॉल किया वह उसका ताजा उदाहरण है। लेकिन क्या हम केवल मुस्लिम पुरुषों की सुरक्षा और न्याय के रक्षा के लिए चिन्तित रहते हैं?
महिला-पुरुष के सवाल क्या धर्म और जाति से परे नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि जो मर्द घर से बाहर शोषित हो वह भी घर में आकर पत्नी के सामने शोषक हो सकता है! क्या किसी भी समाज में एक ही समय में एक ही वैचारिक संघर्ष होता है? इस समय हमारे समाज में कई सामाजिक संघर्ष एक साथ नहीं चल रहे हैं?
इन सभी सामाजिक संघर्षों से जुड़े विमर्श एक साथ ही जारी रहते हैं। अपनी रुचि और क्षमता के हिसाब से लोग उनमें भागीदारी करते हैं।
हमारे ज्यादातर लिबरल मित्र उन आठ लड़कियों के साथ खड़े हैं जिनको गर्ल्स स्कूल के गर्ल्स क्लासरूम में भी बुरका (या हिजाब) पहनना है, लेकिन उसी स्कूल की उन 70-150 (अलग-अलग जगह भिन्न-भिन्न आँकड़े हैं।) मुस्लिम लड़कियों के साथ कौन खड़ा है जो गर्ल्स स्कूल में बुरका या हिजाब पहनकर क्लास नहीं करतीं! या नहीं करना चाहतीं!.
उनके पास स्कूल के नियमों के अलावा कौन सी ढाल है? और स्कूल के बाद तो वो यूनिफार्म के मामले में पूरी तरह आजाद होती हैं। उनके ऊपर जो भी पाबन्दी होती है वो परिवार द्वारा थोपी गयी होती है। बुरके के समर्थन में मर्दों की संख्या देखिए और उनके द्वारा दिए गए तर्क देखिए। क्या बुरका का विकल्प केवल बिकिनी है?
क्या आप सचमुच मानते हैं कि बुरका या हिजाब नहीं पहनना नंगा रहना है? क्या आप सचमुच मानते हैं कि हजार साल पुरानी प्रथा के शिंकजे से आजाद होने से ज्यादा अहम है, उस शिकंजे को अपने ऊपर लादने का अधिकार हासिल करना? कौन सी ऐसी महिला-विरोधी कुप्रथा है जिसे महिलाओं के एक वर्ग का समर्थन नहीं प्राप्त है?
15-16 साल की सौ लड़कियाँ कल शादी करने का अधिकार माँगने लगें तो आप क्या स्टैण्ड लेंगे? मुझे पूरा भरोसा है कि दूसरे की बेटी का मामला होगा तो बहुत से लोग उसे भी ‘फ्रीडम ऑफ च्वाइस’ कहेंगे। फर्क ये होगा कि गरीब-निम्नमध्यमवर्गीय बेटियों को अक्सर 15 में ब्याह की च्वाइस चूज करते देखा जाएँगी और इलीट बुद्धिजीवियों की बेटियाँ पढ़-लिखकर देश-दुनिया घूमने और अफसर बनने की च्वाइस चूज करेंगी।
कितनी अच्छी आजादी है, शेर को शिकार करने की आजादी, मेमने को शिकार होने की आजादी।
कुछ घाघ संविधान की दुहाई दे रहे हैं जबकि इस मामले में अदालतें बहुत पहले साफ कर चुकी हैं कि संस्थान या समाज का अधिकार व्यक्ति के अधिकार के ऊपर है। अगर किसी व्यक्ति का अधिकार संस्थान के अधिकार के प्रतिकूल है तो संस्थान के अधिकार को प्राथमिकता दी जाएगी क्योंकि वह सामूहिक अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है।
इस तरह के तर्क देने वाले में वो लोग ज्यादा हैं जो कट्टरपंथी नेटवर्क के सीधे प्रभाव में होते हैं। उन्हें प्रोपगैण्डा नरेटिव के औजार सौंपे जाते हैं जिनका वो इस्तेमाल करते हैं। ऐसे लोगों को इन्फ्लुएंसर कहते हैं। राइट-लेफ्ट, हिन्दू-मुस्लिम-कम्युनिस्ट कोई भी समूह हो उसका एक प्रोपगैण्डा नेटवर्क होता है और उसके कुछ इन्फ्लुएंसर होते हैं जो अपने नीचे वाली जमात को बहसबाजी-कठदलीली के लिए कुतर्क-कुतथ्य उपलब्ध कराते हैं।
थोड़ी बात बुरका-हिजाब पर भी जरूरी है। गौरतलब है कि कर्नाटक विवाद में अबी तक जितनी तस्वीरें-वीडियो आये हैं उनमें ज्यादातर में वो लड़कियाँ बुरके में नजर आयी हैं लेकिन वो खुद और लिबरल ईकोसिस्टम के इन्फ्लुएंसर बुरके के लिए ‘हिजाब’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं।.
हिजाब इस्लामी पर्दे का सबसे मॉडरेट रूप है। हिजाब और बुरके में सबसे बड़ा अन्तर चेहरा दिखाने-छिपाने का है। कोई लड़की अपने सिर पर दुपट्टा बाँधे हुए है यह कम से कम हमारे देश में कभी आपत्ति का कारण नहीं है। लेकिन प्रोपैगण्डा नेटवर्क को जब सेकुलर यूनिफॉर्म के खिलाफ दलील देनी होती है तो वो सबसे पहले हिजाब का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि हिजाब देखने में अफेंसिव नहीं लगता।
इससे नौजवान मुस्लिम लड़कियों और गैर-मुसलमानों की सहानुभूति हासिल करने में आसानी होती है। हिजाब और बुरका शब्द के प्रयोग के मनोवैज्ञानिक प्रभाव में बहुत फर्क है लेकिन तर्क एक ही है। अगर आपने यह स्वीकार कर लिया कि मुस्लिम स्कूली बच्ची को उसके दीन के हिसाब से ‘हिजाब’ पहनना जरूरी है तो आप यह मान लेते हैं कि उस बच्ची को ‘हिजाब न पहनने की आजादी’ नहीं है क्योंकि उसके धर्म में ऐसा लिखा है।
उसके बाद हिजाब-नकाब-बुरका केवल इंटरप्रिटेशन का मामला हो जाता है। ईरानी हिजाब, भारतीय बुर्के और अफगानिस्तानी बुर्के के बीच आप फर्क देख सकते हैं? और यहाँ से नारीवादियों के पिछले 100 सालों में हासिल किया गया वह नरेटिव कफन-दफन हो जाता है जिसमें ‘स्त्री के शरीर पर उसका हक’ माना जाता है।
रिलीजियस स्टडी का सामान्य विद्यार्थी भी जानता है कि पितृसत्तात्मक धर्म सबसे ज्यादा औरत के शरीर से बौखलाता है। उसका मानना है कि औरत के शारीरिक उभारों और बालों में वह ‘पाप’ छिपा हुआ है जिससे वो खतरे में पड़ जाती हैं।
बुरकानशीं समाजों में महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराधों के आँकड़ों से ये धर्माधिकारी मुँह चुरा लेते हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में बुरका ही प्रचलित है। हिजाब भारत में नया फैशन है। बहुत पहले एक मुस्लिम मित्र से पूछा कि जब ज्यादातर मुस्लिम देशों में बुरका-नकाब चलता है तो हज में महिलाएँ हिजाब क्यों पहनकर जाती हैं?
उनका जवाब था कि वहाँ इतनी बड़ी संख्या में महिलाएँ होती हैं कि यह जरूरी हो जाता होगा। हो सकता है कि सऊदी या ईरान या तुर्की में हिजाब के प्रचलन के पीछे कोई और वजह हो। हिजाब में महिलाएँ एक छोटी चादर सिर के चारों तरफ लपेट लेती हैं जिससे उनके बाल न दिखें। बाकी वो सामान्य कपड़े पहनती हैं।
हिजाब मूलतः बेहद प्रचलित बुरका और आधुनिक जरूरतों के बीच समझौते की कड़ी जैसा लगता है। कल ही किसी ने किसी भारतीय राज्य में बुरके में फुटबॉल खेलती लड़कियों का वीडियो शेयर किया है। जाहिर है कि लड़कियों का फुटबॉल खेलना हर धर्म में कभी न कभी अस्वीकार्य रहा है। ये लड़कियाँ आज बुरके में फुटबॉल खेल रही हैं तो कल बिना बुरके के खेलेंगी।
रही इस विवाद के समाधान की तो अब इस बात पर लगभग सहमति है कि ऐसे विवादों का अन्तिम निपटारा सुप्रीमकोर्ट करेगा। ज्यादा बड़ा मसला होगा तो संविधान पीठ करेगी। उससे बड़ा मसला होगा तो और बड़ी संविधान पीठ करेगी।
. कर्नाटक हाईकोर्ट ने भी मामले को बड़ी पीठ के पास भेज दिया है। न्यायालय जो कहेगा वही हम जैसे मानेंगे। केरल हाईकोर्ट के फैसले के बाद यह मामला स्पष्ट हो जाना चाहिए था लेकिन वकील और प्रोपगैण्डिस्ट अगर नुक्ताचीनी न कर सकें तो बेरोजगार हो जाएँगे।
यह भी याद रहे कि मौजूदा सरकार 2014 में आयी है, शायद 2024 में रहे, न रहे। इस सरकार से जुड़े मुद्दे इस सरकार से पहले भी थे, इसके बाद भी रहेंगे, हिन्दू चरमपंथ की समस्या मुख्यतः भारत की सीमा तक महदूद हैं लेकिन धर्मपोषित पितृसत्ता और स्त्री का संघर्ष कई हजार साल से चल रहा है और पूरी दुनिया में चल रहा है।
इसे अपने फौरी एजेंडे या फायदे तक सीमित न करें। पोस्ट की शुरुआत एक बुरी खबर से हुई है। अंत एक अच्छी खबर से करना चाहूँगा। कश्मीर की जबीना बशीर अनुसूचित जनजाति (मुस्लिम गुर्जर समुदाय) से आती हैं। उन्होंने NEET की परीक्षा पास कर ली है। जबीना के अनुसार वो यह उपलब्धि हासिल करने वाली अपनी जाति की पहली लड़की हैं। उनके पिता साधारण किसान हैं।
उसी खबर में पढ़ा कि पिछले साल तमिलनाडु की आदिवासी मालासर समुदाय की लड़की ने NEET निकाला था और यह उपलब्धि हासििल करने वाली अपने समुदाय-गाँव की पहली लड़की बनी थी।
चेतना विकास मिशन