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इतने महान तो नहीं थे रतन टाटा….?

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     (काटे गए 10 हाथों के अंतिम संस्कार तक नहीं हुए)

टाटा के पुरखो जैसे काम महात्मा चन्द्र शेखर आज़ाद, महात्मा भगत सिंह, महात्मा उधम सिंह जी जैसे लोग नही कर पाए. तभी तो उनकी बरसी पर लोग पोस्ट नही लिखते और प्रोफाइल पिक नही बदलते।     काश ये लोग भी कुछ ‘अच्छे काम’ जो रतन टाटा के पुरखो ने किये वैसा कर लेते तो आज सभी भारतीय इनके वंशजो को भी जानते और मानते। 

       ~>  रिया यादव 

     रतन टाटा की मृत्यु के बाद समूचे भारत मे लोग उनके लिए पोस्ट लिख रहे है. यहां तक कि प्रोफाइल पिक बदल रहे है.  मुझे महसूस हुआ कि यदि उनके बारे में नही लिख रही हूँ तो कही मैं कोई गुनाह तो नही कर रही हूँ। इसलिए ऐसी शख्सियत के बारे में लिखना आज बड़ा जरूरी हो गया। 

       रतन टाटा को कौन नही जानता. आज के समय पर भारत मे टाटा ग्रुप इतना बड़ा ब्रांड है की भारतीयों के जीवन मे हर पहलू में वो मौजूद है. यहां तक कि भारतीय अपने बच्चों को किसी मेहमान की विदा के समय उन को ‘टाटा’ बोलना ही सिखाते है। 

    सिखाये भी क्यो न, टाटा ने हमारे लिए क्या कुछ नही किया। आज़ादी के पहले से इनके पुरखो ने इतने अच्छे कार्य किये की, अंग्रेज, टाटा ग्रुप को झारखंड में मात्र 999 साल के लिए कोयले की खदान दे गए.

इसमें कोयला खोदने पर टाटा को 25 पैसे प्रति बीघा की भारी रॉयल्टी भारत सरकार को देनी पड़ती हैl

     अब अगर वो कोयला 16000 रुपये प्रतिटन के भाव बाजार में बिक रहा है और देश की प्राकृतिक सम्पत्ति का पैसा यदि एक टाटा ग्रुप को जा रहा है तो ये तो गौरव करने वाली बात है.  भई देश का पैसा देश मे तो है. तुम्हारी हमारी जेब मे नही. तो क्या हुआ टाटा की जेब मे ही सही। 

      वैसे भी हम भारतीयों को अपनी पैतृक सम्पत्ति ही अपनी संपत्ति नजर आती है. बाकी देश मे क्या हो रहा है उससे हमारा क्या लेना देना। अब कोई मुझ जैसी व्यक्ति कहे कि ‘खनिज मुनाफा बटवारा कानून’ लागू करवाने से देश के सभी खनिजो से प्राप्त होने वाली राशि समान रूप से सभी नागरिकों में बराबर बटेगी तो, ये तो, अधिकतर भारतीय नागरिको को  गुनाह ए अजीम मालूम पड़ेगा।     

    इसलिए कि ये समस्त देश की सम्पत्ति नागरिको की थोड़ी न है ये तो ‘सरकार’ की है. सरकार जिसे चाहे उसे देती रहे. अपने क्या लेना देना.

      मुझे लगता है टाटा के पुरखो जैसे काम महात्मा चन्द्र शेखर आज़ाद, महात्मा भगत सिंह, महात्मा उधम सिंह जी जैसे लोग नही कर पाए. तभी तो उनकी बरसी पर लोग पोस्ट नही लिखते और प्रोफाइल पिक नही बदलते।     काश ये लोग भी कुछ ‘अच्छे काम’ जो रतन टाटा के पुरखो ने किये वैसा कर लेते तो आज सभी भारतीय इनके वंशजो को भी जानते और मानते। 

टाटा की नेकियों की फेहरिस्त में एक और काम भी आता है जिसे बताना जरूरी है. वो ये है कि हम भारतीय पिछले हज़ारो वर्षो से प्रकृतिक संसाधन जैसे कि हिमालय, साम्भर झील और समुन्दर के द्वारा प्राप्त ‘नमक’ जिसमे 80 से ज्यादा मिनरल होते है, उसका सेवन करते आ रहे है। 

    1980 के दशक में समूचे देश को पेड मीडिया ने इल्म करवाया की बिना पैकेट युक्त इस प्रकार के ‘नमक’ के सेवन से हम को कोई फायदा नही। तो इस विकट समस्या से देश को बचाने हेतु टाटा ने गुजरात स्तिथ अपनी कम्पनी टाटा केमिकल्स में waste के रूप में निकलने वाले NACL को चमचमाती पैकिंग करके मार्किट में टाटा साल्ट के रूप में भारतीयों को उपलब्ध करवाया। 

   इसके बाद से हज़ारो वर्षो से खाये जाने वाले हिमायल, साम्भर झील और समुंद्री नमक जो कि मिनरल्स से भरपूर है, उससे भारतीयों को निजात मिली। 

     अब यदि पैकेज्ड ‘NACL’ खाकर भारतीयों के शरीर मे सोडियम की मात्रा थोड़ी बहुत बढ़ भी गयी है और हाई बीपी और उसके बाद हार्ट अटैक में भारत अव्वल नम्बर पर पहुच रहा है तो गौरव की बात ही है. किसी सेक्टर में तो अव्वल हुए.

    और यदि बीमार नही पड़ेंगे तो इकॉनमी कैसे चलेगी. बीमार पड़ने से अस्पताल, डॉक्टर, फ़र्मा कम्पनी, केमिस्ट, फलवाला इतने लोगो को रोजगार मिलता है. तो देश मे कितना रोजगार पनपा ‘NACL’ की बदौलत। हुई ना महानतम देश भक्ति.

     टाटा की ‘काबिलियत’ का बखान और क्या ही करूँ. कभी भी पेड मीडिया के किसी अखबार या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हिम्मत नही हुई कि वो टाटा को मिली हुई खदान के बारे में लोगो को बता सके।

     टाटा की ‘सूझबूझ’ की एक मिसाल और देखिए कि अडानी और अम्बानी को पानी पी-पी कर गालियाँ देने वाले केजरीवाल और राहुल गांधी ने कभी अपने भक्तों को टाटा की इस खदान के बारे में नही बताया. बताते भी कैसे. आखिर टाटा हैं ही इतने महान।

*अब तक नहीं हुए काटे गए हाथों के अंतिम संस्कार :*

      2006 में उड़ीसा के कलिंगनगर में टाटा स्टील प्लांट के लिए पुलिस ने 14 आदिवासियों की हत्या कर दी थी. पांच आदिवासियों के हाथ भी काट कर ले गई. आज तक उन कटे हुए हाथों का अंतिम संस्कार नहीं हुआ है.

   सुकमा के गोमपाड़ में भी पुलिस ने कब्र खोदकर आदिवासियों के हाथ काट लिए थे, ताकि फोरेंसिक जांच में उनके निहत्थे होने की बात साबित ना हो सके. 

      मिडिल क्लास जो पूंजीपतियों की लूट में से मिले हुए टुकड़े खाकर जिंदा है, वह ही पूंजीपतियों की मौत पर उनकी शान में कसीदे पढ़ सकता है.

मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है : हमराह लोगों से, इंसाफ से और सच्चाई से.

*असार बनाई गई सारपूर्ण बातें :*

        गोरे अपने वफ़ादार जवाहर लाल को लाल क़िला और टाटा को झारखंड में अगले 999 वर्षों तक कोयला खोदने के राइट्स फ़्री में देकर गये थे.

      नागरिकों की इस संपत्ति को टाटा ने लूटा और लूट के इस पैसे के लगभग 20% हिस्से का निम्नवत बँटवारा किया : 

     (1) लूट का एक हिस्सा मीडिया पर खर्च किया ताकि इस लूट के बारे में जनता को पता न लगे। 

      (2) कुछ हिस्सा नेताओ पर खर्च किया ताकि प्रधानमंत्री / मुख्यमंत्री आदि गोरो द्वारा दिये गये मुफ़्त के ये माइनिंग राइट्स ख़त्म न कर दे। 

       (3) एक हिस्सा चैरिटी पर खर्च किया, और जितना चैरिटी पर खर्च किया उसका 4 गुणा इस चैरिटी को प्रचारित करने में खर्च किया। ताकि अपनी छवि चमका कर रखी जा सके। 

   डाकू ज़ालिम सिंह भी जब डाका डालते थे, तो लूट के माल को जायज़ और नैतिक बनाने के लिए कबूतरों के आगे धान और गायों को चारा डाल दिया करते थे। 

     पर ज़ालिम सिंह और टाटा में एक फ़र्क़ है :

     चूँकि ज़ालिम सिंह उच्च शिक्षित नहीं थे इसीलिए 100 रू लोगो से लूटते थे और 20 रू कबूतरों और गायों के खाते में खर्च कर देते थे। दूसरे शब्दों में उन्होंने पैसा ताकतवर से खींचकर कमजोरो की तरफ़ भेजा। और बदनाम हुए। 

      टाटा अलग ही तरह के रॉबिनहुड थे। वे नागरिकों का 100 रू लूटते थे तो उसमें से 80% ख़ुद रख लेते थे, 20% मीडियाकर्मियों, जजो और नेताओ जैसे ताकतवर लोगो को दे देते थे, और सिर्फ़ 5% की चिल्लर चैरिटी के रूप में उन नागरिकों पर खर्च कर देते थे, जिनसे 100 रू लूटा गया है !! और चैरिटी पे खर्च की गई राशि के बराबर टैक्स में छूट भी प्राप्त कर लेते थे। इस तरह दान दिया गया यह पैसा फिर से उनके पास लौट आता था। 

        महान आदमी थे। बिना घुमाव फ़िराव के प्लेन बिज़नेस करते थे। फ़्री में कोयला खोदते थे, और बाज़ार में बेच देते थे। न रॉयल्टी जमा कराने का झंझट न हिसाब किताब का झगड़ा। जिस भी भाव में बिके, पूरा मुनाफ़ा ही है। 

.       यदि खनिज रॉयल्टी सीधे नागरिकों के खाते में भेजने का क़ानून पास कर दिया जाता तो प्रत्येक नागरिक को प्रति महीने 3,000 (पाँच सदस्यीय परिवार को 3,000×5= 15,000 महीना) प्राप्त होता है। पर चूँकि टाटा मुफ़्त में कोयला खोद रहे थे, और रॉयल्टी नहीं चुकाना चाहते थे, अत: रतन टाटा ने अंतिम साँस तक “खनिज का पैसा सीधे नागरिकों के खाते में भेजने” के क़ानून का विरोध किया। 

   टाटा ने देश की बेंड बजाने के लिए और क्या क्या कांड किए है, इस बारे फिर कभी और विस्तार से लिखा जाएगा। 

      हमारे यहाँ परंपरा है कि परलोक सिधार चुके व्यक्ति की निंदा नहीं की जाती। पर मेरे विचार में यह बात ठीक नहीं है। व्यक्ति के सत्कर्मों के साथ ही कुकर्मों को भी इंगित किया जाना चाहिए। और ऐसा करना तब और भी अपरिहार्य हो जाता है जब किसी व्यक्ति के कर्म सार्वजनिक हितों (larger public interest) प्रभावित करते हो। वर्तमान में भी और भविष्य में भी। 

          एक प्रश्न यह है कि, टाटा ने जो अच्छे काम किए मुझे उस पर भी तो लिखना चाहिए, मैं सिर्फ़ उनके कुकर्मों पर ही क्यों लिख रही हूँ, सत्कर्मों पर क्यों नहीं ? 

     जवाब यह है कि उनके सत्कर्मों की चर्चा प्रसारित करने के लिये कई लाख करोड़ का पूरा टाटा ग्रुप+पेड मीडिया मौजूद है, और वे अपना काम 1946 से ही भलीभाँति कर रहे है। कुकर्मों के बारे में कोई नहीं कर रहा। इसीलिए हम संतुलन लाने का प्रयास कर रहे है।

      चूँकी अब वे मोह-माया के बंधन से मुक्त होकर परलोक गमन कर चुके है, अत: ईश्वर से प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे। (चेतना विकास मिशन).

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