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चुनाव जीतने की जरूरत बन गई हैं भाजपा के लिए रेवड़ियां

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क्रांति शुक्ल

भारतीय राजनीति फिलहाल करवटें बदलती दिख रही है। सत्तासीन भाजपा और मुख्यधारा की मीडिया जनता को दी जाने वाली लोक-लुभावनी योजनाओं को एक समय मुफ्तखोरी या रेवड़ियां बांटना कहती थी। आज यही रेवड़ियां भाजपा के लिए चुनाव जीतने की जरूरत बन गई हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कभी जिसे रेवड़ी कल्चर कह कर विकास की राह का रोड़ा बताया था वह कैसे आज ‘गारंटी’ जैसे शब्दों की चाशनी में डूब कर भाजपा सरकार के लिए चुनाव जीतने का जरिया बन चुकी हैं।

जनकल्याणकारी योजनाओं और इन तथाकथित रेवड़ियों में फर्क क्या है? और क्या वास्तव में जिन्हें तथाकथित रेवड़ियां कहा जा रहा है वह देश के विकास में अवरोधक बन रही है?

इन प्रश्नों का उत्तर भी अलग-अलग नजरिये से अलग-अलग हो सकता है लेकिन अब यह एक सच्चाई है। राजनैतिक पार्टियां ऐसे लोकलुभावन वादों के सहारे अपना राजनैतिक भविष्य देख रही हैं इसलिए इसे एकेडमिक बहस में उलझाने की जरूरत नहीं हैं। हम इन्हें दूरगामी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए संचालित लोक-कल्याणकारी योजनाओं और उसके पीछे की अंतर्निहित वैचारिक पृष्ठभूमि के बरख़िलाफ़ जनता को तात्कालिक लाभ पंहुचाने के उद्देश्यों से संचालित इन गारंटियों का आर्थिक विश्लेषण करें? या इसे मध्यवर्गीय चेतना से संचालित होकर देश के टैक्सपेयर के धन की फिजूलखर्ची का माध्यम मानें?

बेशक! इन्हें रेवड़ियां कह कर व्यंग करने वाली भाजपा भी आज इस मामले में सबसे आगे निकल चुकी है तो इसकी वजह केवल इस देश की राजनीतिक परिस्थितियां और इन कल्याणकारी घोषणाओं के इर्द-गिर्द होने वाले राजैतिक ध्रुवीकरण की प्रवृतियां हैं जो उसे ऐसा करने पर मजबूर करती हैं। पहले भाजपा अपने मध्यवर्गीय जनाधार को सन्देश देने के लिए फ़्रीबीज को देश के लिए चिंता का विषय बताती थी लेकिन आज यह उसकी राजनीतिक जरूरत बन गई है। यह कहना गलत न होगा कि उसने इस मामले में अन्य राजनैतिक दलों को पीछे छोड़ दिया है।

मोदी की गारंटियों की सफलता के पीछे मुख्य कारण उसके जमीनी संगठनिक नेटवर्क और मुख्यधारा की मीडिया का उसके लिए प्रचार माध्यम होना है। फिर भी यदा-कदा जहां कहीं भी कांग्रेस और विपक्ष की सक्रियता, कारगर रणनीति और उसके नेताओं की सही जमीनी पहल सामने आती रही है जहां उसे मुंह की खानी पड़ती है। हम इसे पूर्व में कर्नाटक और हिमाचल के चुनावों में देख चुके है।

विगत पांच राज्यों के चुनाव परिणामों को अगर हम इस आलोक में देखते हैं तो पाते हैं कि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जहां क्रमशः भूपेश बघेल और अशोक गहलोत की लोकप्रिय सरकारें थी जिन्होंने अपने प्रदेश की जनता के लिए बेहतरीन योजनाएं प्रस्तुत की थीं, बावजूद इसके कांग्रेस को अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा। इन चुनाव परिणामों की तरह- तरह से समीक्षाएं हो रही हैं लेकिन यह बात साफ है कि मध्यप्रदेश सहित इन तीनों प्रदेशों में भाजपा की विजय की पटकथा के पीछे दो तत्वों का कॉम्बो पैक है जिसने उसे कांग्रेस पर बढ़त दी है। इसी कॉम्बो पैक से उसने अपने जमीनी संगठनिक नेटवर्क के माध्यम से जनता को पक्ष में मोड़ने में सफलता पाई।

इस पैक में उसने अपने हिंदुत्व के आजमाए एजेंडे के साथ-साथ कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत योजनाओं से कमोबेश मिलती-जुलती गारंटियां /घोषणाएं समायोजित कीं। ऐसा उसने उन योजनाओं के जमीनी स्तर व्यापक असर को देखते हुए किया। इस प्रकार उसने जनता को सही-गलत तरीके से अपने पक्ष में खड़ा करने में सफलता भी प्राप्त की। यह बात दर्शाती है कि अब उसका काम सिर्फ हिंदुत्व और अंध-राष्ट्रवाद के एजेंडे मात्र से चलने वाला नहीं है और उसे जनता के समक्ष ऐसी गारंटियां पेश करनी पड़ेंगी।

देश मे विपक्ष की शक्तियां इन चुनाव परिणामों से हतप्रभ तो हैं ही और वे इसकी काट भी खोज रही होंगी। लेकिन यहां यह कहना लाजिमी है कि अब यह तथाकथित रेवड़ियां (फ़्रीबीज) जिन्हें हम जनता के हित में दी जाने वाली गारंटी की शक्ल में रियायतें कह सकते हैं, एक राजनैतिक सच्चाई बन चुकी हैं।

घोर मंहगाई, बेरोजगारी, अशिक्षा से जूझ रही इस देश की आम जनता जिसमें किसान, मजदूर, महिलाएं और छात्र-युवा आदि तबके अपने लिए भाजपा की डबल इंजन सरकारों से कोई खास उम्मीद नहीं कर पा रहे हैं। इनको केंद्र में रख कर राष्ट्रनिर्माण की कोई वस्तुगत नीति लगभग इन दस वर्षों में प्रस्तुत करने में मोदी सरकार पूरी तरह असफल साबित हुई है। भाजपा सरकार से इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है क्योंकि उसकी प्राथमिकता में क्रोनी कैपिटालिस्टों के हित सर्वोपरि हैं जिन्हें उसने लाखों करोड़ की रियायतें-छूट और ऋणमाफी के जरिये लाभान्वित किया है।

उसका तथाकथित विकास मॉडल सड़कों, पुलों के निर्माण तक सीमित है और इसी सेक्टर में थोड़े बहुत रोजगार भी लोगों को मिल सके हैं। अंग्रेजों ने भी एक जमाने मे सड़कों-पुलों का निर्माण किया था जिसका उद्देश्य देश के कोने-कोने से भारतीय संसाधनों की अधिकतम लूट सुनिश्चित करना था। यहां भी मोदी सरकार इन विकास के मॉडलों के सहारे अधिकतम माल ढुलाई में समय और संसाधनों की बचत के उद्देश्य से अपने कारपोरेट मित्रों को सहूलियत प्रदान कर रही है और जनता को इसी विकास मॉडल से दिग्भ्रमित करने के जतन भी कर रही है। क्रोनिज्म से उसके खुलेआम गंठजोड़ और उसे वैध-अवैध तरीके से लाभान्वित करने के एवज में मोदी सरकार इन कारपोरेट घरानों से चुनावी बॉन्डों से बेशुमार चंदा, मीडिया की पक्षधरता और अन्य संसाधनों का लाभ प्राप्त कर रही है जो उसे अन्य राजनैतिक दलों पर बढ़त देते हैं।

संसाधनों से लैश और संघ की जमीनी संगठनिक उपस्थिति से दो-चार होने के लिए विपक्ष की शक्तियों को उसके हिंदुत्व के एजेण्डे को चुनौती देने के लिए विभिन्न सामाजिक सामाजिक तबकों के व्यापक राजनैतिक अधिकारों और उसके हक़ की आवाज़ उठाने पर खुद को केंद्रित पड़ेगा। जातियों के समीकरणों पर आधारित आसान फार्मूले और उनके गंठजोड़ मात्र से इसका जवाब नहीं दिया जा सकता। जातीय ध्रुवीकरण अगर राजनैतिक सचाई है तो उसके अंदर निहित वर्गीय हित भी उतना ही असरकारक भूमिका का निर्वहन करते हैं। इसलिए विपक्ष को जातीय रणनीति से बाहर रोजी-रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ, बिजली-पानी, खाद-बीज जैसे जनता के मुख्य सवालों को प्राथमिकता देनी पड़ेगी जिनसे वह रोज़मर्रा की जिंदगी में जूझ रही है।

विपक्ष के लिये जातीय जनगणना का मुद्दा और उसपर ईमानदार पहल कारगर हथियार साबित हो सकती है लेकिन उन जातियों के अंदर निहित वर्गीय हितों को भी उसी अनुपात में मुद्दा बनाया जाना आवश्यक है। विपक्ष की शक्तियों को मुख्यतया कांग्रेस को, अपने संगठन पर विशेष काम करने पर ध्यान देना होगा क्योंकि वस्तुगत स्थितियों के अनुकूल होने के बावजूद वह जमीनी स्तर पर अपनी अनुपस्थिति से बहुत कुछ खोने को अभिशप्त होने को बाध्य होती रही है। भाजपा-संघ के संगठनिक ताने-बाने को विच्छिन करने के लिए उसे निचले स्तर तक संगठन को अपनी ताकत बनाना पड़ेगा जो आसान काम नहीं लगता। बगैर इसके भाजपा की जमीनी स्तर पर काट पेश करना दूर की कौड़ी लगती है।

इंडिया गंठबंधन को व्यापक उद्देश्यों से प्रेरित हो कर अपने निहित राजनैतिक स्वार्थों की सम्भव हद तक तिलांजलि देनी पड़ेगी। वरना पूर्व अनुभवों की तरह वह भानुमति का पिटारा साबित हो सकता है। अगर मुद्दों और कार्यक्रमों को प्राथमिक बनाने की बजाय इंडिया गंठबंधन कुछ सीटों के तालमेल और बांट-बखरे के मंच तक खुद की सीमित कर ले तो उससे भाजपा द्वारा पेश की जा रही चुनौतियों से पार पाना उसके लिए सम्भव न होगा।

जनता के लिए तो अब ये रेवड़ियां या यूं कहें कि चुनावी गारंटीयां उन राहतों की तरह हैं जैसे बाढ़ग्रस्त इलाके के भूखे प्यासे लोगों के लिए सरकारें भोजन-पानी के पैकेट हेलीकॉप्टरों से गिराती हैं। भूखी-प्यासी जनता तो उसे लपकने को आतुर होगी ही लेकिन यह हमारे लिए गर्व का विषय कत्तई नहीं हो सकता। उसके लिए फाइव ट्रिलियन की इकोनॉमी और 21 वीं सदी के भारत के विश्वगुरु बनने का सपना एक छलावा मात्र हैं। उस 81 करोड़ भारतीयों के लिए मोदी सरकार के इस अमृत काल का फल पांच किलों अनाज भर है।

रेवड़ियां भी आरक्षण की तरह किसी स्वस्थ और बराबरी वाले समाज के लिए एक आवश्यक बुराई की तरह है जो असमानता खत्म होने तक बरकरार रह सकती है। देश की जनता अब पांच साल में आने वाले इन चुनावों में अपने वोट की कीमत समझने लगी है और इन फ़्रीबीज को अपनी बार्गेनिंग हैसियत समझने लगी है जिसे सरकार परोस रही है।

मिर्ज़ा ग़ालिब के शब्दों में कहें तो … “मैंने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’, मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है।”

(क्रांति शुक्ल वर्ल्ड विजन फाउंडेशन के निदेशक और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं।)

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