अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

 *मानव में मानवीय संवेदनाएं होना ही धर्म है*

Share

शशिकांत गुप्ते

सीतारामजी आज मिलने आए, मैने पूछा कौन से विषय पर व्यंग्य लिखा है?
सीतारामजी मेरा प्रश्न सुनकर कहने लगे काहे का व्यंग्य,आज तो मेरा मूड ही ऑफ हो गया है।
मैने पूछा ऐसा क्या हो गया?
सीतारामजी ने कहा आज उन्हे उनका मित्र राधेश्याम मिला था।
राधेश्याम को मै भी जानता हूं।
वह कैलेंडर के पन्नों पर ही इक्कीसवीं सदी में पहुंचा है,मानसिक रूप में अभी भी वह पंद्रहवीं सदी की लकीर पीटता रहता है।
सीतारामजी ने कहा आज तो राधेश्याम ने हद ही कर दी,मिलते ही कहने लगा, हमें सांप्रदायिक सौहार्द का समर्थन करना चाहिए।
मैने कहा यह तो अच्छे विचार हैं।
सीतारामजी ने कहा क्या ख़ाक अच्छे विचार है,राधेश्याम गिरगिट जैसे रंग बदलता है। वह स्वार्थी है। सांप्रदायिक सौहार्द की वकालत करने के पीछे भी निश्चित ही उसका कोई स्वार्थ होगा।
मैने पूछा आप ऐसा क्यों बोल रहें हैं।
सीतारामजी ने कहा राधेश्याम बहुत ही दकियानूसी सोच रखता है,जब भी मैं उससे कहता हूं।अपना देश धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश है।
राधेश्याम कहता है सब किताबी बातें हैं। व्यवहारिक जीवन में हम सामाजिक बंधनों में बंधे हैं।
सामाजिक बंधनों में भी हम जाति व्यवस्था का विरोध नहीं कर सकते हैं।
सीतारामजी ने कहा अब आप ही बताइए ऐसे व्यक्ति के मुंह से सांप्रदायिक सौहार्द की बात मिथ्या ही लगेगी।
मैने कहा सीतारामजी आप की बातें सुनकर मुझे आज का विषय मिल गया।
सांप्रदायिक सौहार्द के लिए हमें अपनी मानसिकता से कट्टरता को त्यागना पड़ेगा। कट्टरता ही संकीर्ण सोच की जनक है। संकीर्ण सोच यथास्थितिवादी मानसिकता का पोषक है।
यथास्थितिवादी मानसिकता परिवर्तन की घोर विरोधी होती है।
इसीलिए गांधीजी ने समाज के कल्याण के लिए सुधारवादी तरीके को त्याग कर परिवर्तनकारी तरीका अपनाया था।
प्रगतिशील विचारक सुधारवाद को दरकिनार कर परिवर्तन के ही पक्ष धर होते हैं।
सीतारामजी ने कहा वाह व्यंग्यकार आपने मेरी बातों में आज के लिए विषय ढूंढ ही लिया।
मैने कहा यह यथार्थ है।
सांप्रदायिक सौहार्द के लिए धर्म को समझना जरूरी है।
प्रसिद्ध विचारकों और चिंतकों के निम्न सुविचार उपर्युक्त विषय पर सटीक उपदेश हैं।
विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है।
धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है, विज्ञान के बिना धर्म अंधा है।
भूदान के प्रणेता गांधीजी के अनुयायी विनोबा भावे ने कहा है।
दो धर्मों का कभी भी झगड़ा नहीं होता है। सब धर्मों का केवल अधर्म से ही झगड़ा होता हैं।
संत तुलसीदासजी की यह चौपाई भी प्रासंगिक है।
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई

शशिकांत गुप्ते इंदौर

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें