मनीष शर्मा
2004 को याद करिए, चमकता भारत या शाइनिंग इंडिया के नारे के साथ भाजपा, तुफानी चुनावी अभियान पर सवार थी,अटल बिहारी वाजपेयी के सामने, दूर-दूर तक कोई अखिल भारतीय नेता नज़र नहीं आ रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे ‘चमकते भारत’ ने अपने आक्रामक अभियान से, अंधेरे भारत को भी लगभग सहमत कर लिया है। सारे अनुमान भी इस बात से सहमत होते जा रहे थे कि अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा लौट कर आ रहे हैं। और फिर ज्यादातर एग्जिट पोल ने भी ऐलान कर दिया कि भाजपा ताकतवर होकर लौट रही है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ, चमकते भारत को वास्तविक भारत ने करारा झटका दिया, अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली भाजपा, सत्ता से बाहर हो गई। और अगले 10 सालों तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे, जिनकी मुख्य पहचान कम से कम राजनेता की नही थी। यानि अटल बिहारी वाजपेयी को सत्ता से हटाना ही जनता के लिए प्राथमिक कार्यभार बन गया था, जिसका आकलन एग्जिट पोल बिल्कुल ही नहीं कर पाए।
2014 में भी आपने ध्यान दिया होगा कि तमाम रणनीतिकार, विश्लेषक और लगभग ज्यादातर एग्जिट पोल यह अनुमान बिल्कुल ही नहीं लगा पाए कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा इतने प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने जा रही है। इसी तरह हाल-फिलहाल बंगाल में कई सारे एग्जिट पोल, भाजपा को 160 देकर, उसकी सरकार बनवा रहे थे, पर पता चला भाजपा वहां पर मात्र 77 सीटों पर सिमट गई। यही हाल 2015 बिहार विधानसभा चुनाव में हुआ, लगभग सारे एग्जिट पोल भाजपा के लिए 120 से 155 सीटों का ऐलान कर रहे थे, पर यहां भी भाजपा मात्र 53 सीटों तक ही पहुंच पायी।
कई बार एग्जिट पोल सही भी साबित हुए हैं पर ऐसे बहुत सारे उदाहरण हैं जब एग्जिट पोल अपने आकलन से 180 डिग्री उलट बिल्कुल ही गलत साबित हुए हैं
ऐसे में आज जब 2024 में, तमाम एग्जिट पोल द्वारा नरेंद्र मोदी के बड़े बहुमत से वापसी का ऐलान किया जा रहा है, तब एक बुनियादी बात की सचेतन उपेक्षा की जा रही है कि एग्जिट पोल, एग्जिट पोल होता है, इग्जैक्ट पोल बिल्कुल ही नहीं होता है। इन दो बिल्कुल भिन्न अर्थ वाले शब्दों के बीच एक महीन सी दीवार होती है। इस बिंदु पर जानबूझकर सावधानी नहीं बरती जा रही है और एग्जिट पोल को ही पूंजी व मीडिया की ताक़त के बल पर इग्जैक्ट पोल की तरह ही प्रचारित और स्थापित किया जा रहा है। जनता के बड़े हिस्से द्वारा एक ऐसे आकलन को जो कई बार ग़लत साबित होता रहा है। तथ्य मान लेने से भारतीय चुनावी व्यवस्था को कुछ बड़े संकटों का बार-बार सामना करना पड़ रहा है।
एक बड़ा संकट तो ये है कि कुछ दिनों के लिए समूचा चुनाव संवैधानिक संस्थाओं के हाथ से निकल कर एग्जिट पोल एजेंसियों के नियंत्रण में चला जा रहा है। यानि अंतिम चरण के चुनाव के समापन से लेकर वोट की वास्तविक गिनती की शुरुआत तक चुनाव आयोग लगभग अप्रासंगिक हो जा रहा है और पोल एजेंसियां अघोषित तौर पर समग्र चुनाव के केंद्र में आ जा रही है। और कुछ दिनों के लिए जैसे पूरे चुनाव का ही अपहरण कर लिया जा रहा है। यह भारतीय गणतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक और चिंताजनक पहलू है जिस पर समय रहते ध्यान देने की जरूरत है।
एग्जिट पोल के आक्रामक अभियान के चलते एक और बड़े संकट का बार-बार सामना करना पड़ रहा है। भारतीय मतदाताओं का बड़ा हिस्सा इन दिनों अनुमान को ही यथार्थ मान लेने की तरफ बढ़ता जा रहा है जिसके चलते वोटों की वास्तविक गिनती के पहले ही भारतीय मतदाताओं के बीच उपस्थित पक्ष और विपक्ष दोनों ही समूहों को किसी न किसी अतिरेक की ओर जाते देखा जा रहा है या तो उत्साह का अतिरेक या चरम निराशा की अवस्था,जनता के इस खास मनोदशा व अनुमान के आधार पर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के चलते वोटों की वास्तविक गिनती का दिन उनके लिए उतना प्रासंगिक नही रह जाता यानि जनता और कार्यकर्ताओं के एक हिस्से द्वारा एग्जिट पोल के आकलन को ही अंतिम मान लेने के चलते वोटों की वास्तविक गिनती का दिन उनके लिए लगभग महत्वहीन होता जा रहा है।
फिर यहीं से जनता और कार्यकर्ताओं की सुस्ती या मुस्तैदी में कमी का नकारात्मक इस्तेमाल कर लेने राज्य मशीनरी की ताक़त के बल पर एग्जिट पोल के आंकड़े को ही वास्तविक आंकड़ों में बदल देने की कोशिश की जा सकती है। और आज जबकि ईवीएम पर सवाल है, चुनाव आयुक्त के चयन प्रक्रिया पर सवाल है, तो फिर ऐसे सर्वसत्तावादी समय में बिल्कुल ही इस बड़े ख़तरे से इंकार नहीं किया जा सकता है।
एग्जिट पोल की पूरी प्रक्रिया अवैज्ञानिक है यह बिल्कुल ही नहीं कहा जा रहा है पर यह जरूर है कि एक लगातार बदलते हुए समाज में यह विकसित होता हुआ ज्ञान है, जिसमें गलती होने की संभावना हर वक्त बनी रहती है। और कोई भी एग्जिट पोल एजेंसी इससे इंकार करती भी नही है।
और यह भी कि एग्जिट पोल विधा यूरोप से होता हुआ भारत पहुंचा है। यूरोप और भारतीय समाज की संरचना रूप और अंतर्वस्तु में विशाल अंतर है। यानि भारतीय समाज को एग्जिट पोल के आईने में देख पाना वनिस्पत ज्यादा मुश्किल काम है। सांस्कृतिक,भाषाई व क्षेत्रीय विविधता, वर्णवादी दबाव, पितृसत्तात्मक वर्चस्व, शहरी और ग्रामीण भारत के अभिव्यक्ति की अलग-अलग आदतें, आदि अन्यान्य वजहों से भारतीय समाज की एकता, बेहद जटिलता के साथ सामने आती है, जो अधिकतर बार समाज विज्ञानियों और राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाती रहती है। इसीलिए अगर हम एग्जिट पोल एजेंसियों की मंशा पर शक न भी करें तब उनके आईने में भारतीय समाज को ठीक-ठीक देख पाना अधिकतर बार संभव नही होता है।
एग्जिट पोल और चुनाव पर बात करते समय हमें यह भी देखना पड़ेगा कि हमारा समय किस दिशा में बढ़ रहा है। आज जब कि पूरी दुनिया में दक्षिण पंथ का उभार आम प्रवृत्ति के बतौर चौतरफ़ा दिखने लगा है। बहुमत को तानाशाही के लिए प्रमाणपत्र के बतौर देखने-समझने की प्रवृत्ति का विस्तार हो रहा है। दुनिया के कई देशों में सर्वसत्तावादी राजनेताओं ने चुनाव के पूरे कवायद को अपनी निरंकुशता को जायज़ ठहराने वाले जनमत संग्रह में तब्दील कर दिया है। अमेरका, रूस, इसराइल, तुर्की सहित अनगिनत मुल्कों में हम यह सब कुछ खुली आंखों से होते देख रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि भारत भी ठीक-ठीक इसी दिशा में बढ़ता जा रहा है बल्कि इस तरह के कई मामलों में भारत तो बढ़-चढ़कर नेतृत्व करता हुआ दिखने लगा है। यानि आज का भारत कारपोरेट वर्चस्व, सांविधानिक संस्थानों पर नियंत्रण और क्रोनी कैपिटल का क्लासिक उदाहरण बनकर सामने आ चुका है। यहां से खड़ा होकर एग्जिट पोल एजेंसियों के वास्तविक चरित्र को देखने की प्रक्रिया में ही हम सही निष्कर्ष के करीब पहुंच पाएंगे और इसके वास्तविक ख़तरे को समझ पाएंगे।
आज अब यह बिल्कुल साफ़ होता जा रहा है कि जो सर्वे एजेंसियां ओपिनियन पोल और एग्जिट पोल हमारे लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बन कर आयी थी, एग्जैक्ट पोल से पहले ही जनता की आकांक्षाओं के आकलन को व्यक्त करने का माध्यम भर थी, आज उनके निरंकुश ताकतों के हाथों का हथियार बन जाने का ख़तरा पैदा हो गया है।
भारतीय गणतंत्र को अपने लोकतांत्रिक और उसकी संवैधानिकता को बचाने, बहाल करने के लिए आज बहुत सारी नकारात्मक तत्वों से विदा लेने का समय आ गया है। दो महीने की लंबी अवधि वाली चुनाव प्रक्रिया जब हमें स्वीकार्य है तो तीन और दिन भारतीय जनता बिना एग्जिट पोल के वास्तविक गिनती वाले दिन का इंतजार क्यों नहीं कर सकती है और यह भी सोचना है कि बाधा बन रहे एग्जिट पोल,ओपिनियन पोल और सर्वे एजेंसियों को समय रहते अंतिम विदाई क्यों नहीं दी जा सकती है।
(मनीष शर्मा पालिटिकल एक्टिविस्ट और कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक हैं।)