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शहादत दिवस पर वीरेंद्र विद्रोही की याद

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– संतोष सहर 

30 जनवरी 1993 की शाम जहानाबाद जिले के कुर्था में एमसीसी से जुड़े अपराधियों ने कामरेड वीरेंद्र विद्रोही की हत्या कर दी थी। यह खबर आग की लपटों की तरह पूरे जिले में फैल गई। सैकड़ों गरीबों के घरों में उस शाम चूल्हा नहीं जला। रातोंरात हजार लोग वहां पहुंच गए और बीच सड़क पर मृत पड़ी उनकी देह को घेर खड़े हो गए। अगले दिन दोपहर बाद तक यह तादाद पांच हजार तक जा पहुंची। राज्य की सरकार और आला अधिकारियों के पसीने छूटने लगे थे। ढेर सारी घोषणाओं, बहुतेरे आश्वासनों और रात से ही हाथ जोड़कर की जा रही मिन्नतों के बाद गरीबों ने अपने कंधों पर अपने प्रिय नेता और साथी का शव उठाया। नदी के किनारे उमड़ते जनसैलाब के बीच उनको अंतिम विदा दी गई।

वीरेंद्र विद्रोही की शहादत ने एक बार फिर से कुर्था-अरवल में वैसी ही हलचल पैदा की जैसी हलचल शहीद जगदेव प्रसाद की पुलिसिया हत्या ने 20 साल पहले पैदा की थी। विडम्बना देखिये कि जिस समय विद्रोही की शहादत हुई, कुर्था शहीद जगदेव के जयन्ती समारोह के भव्य सरकारी समारोह के आयोजन में डूबा हुआ था। जगदेव की हत्या का आरोप कांग्रेस पर था। ‘विद्रोही’ लालू राज की हिंसा का शिकार हुए।

इस शहादत के तुरत बाद ही मगह क्षेत्र के चर्चित बिरहा गायक बंसी ने यह बिरहा गाया था –

‘वीरेंद्र विद्रोही रहलन वीर पुरुष महानवा हो,
ललनवा माई के ना!
जानवा रणवा में गंववलें हो ललनवा माई के ना!’

अरवल प्रखंड के बहादुरपुर में जन्मे विद्रोही जब 1975 रांची में नौकरी करते थे, भाकपा-माले से जुड़ाव हुआ। चार साल बाद नौकरी करना छोड़ वे घर लौट आये। कुर्था के राणानगर, जो उनकी पत्नी ललिता का गांव है, में रहते हुए उन्होंने एक पूर्णकालिक माले कार्यकर्ता के बतौर काम शुरू किया।

11 अगस्त 1989 की रात जहानाबाद जिले के दमुंहा-खगड़ी गांव में एक अपराधी गिरोह ने 11 गरीबों को जान से मार डाला। इसी गिरोह ने 18 जून को नोन्ही-नगवां में भी एक बड़ा जनसंहार रचाया था। मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद वहां पहुंचे थे और कहा था कि राज्य की सारी ताकत और कानून को हत्यारों के खिलाफ लगा दिया जाएगा। 13 अगस्त को वे दमुंहा-खगड़ी में भी ऐसी ही घोषणाएं करने पहुंचे। का. विद्रोही ने उनके मुंह पर कालिख पोत कर देश-दुनिया को कांग्रेसी हुकूमत का काला चेहरा दिखा दिया था।

वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त इस वाकये को याद करते हुए बताते हैं: “मैंने एक लंबे सुंदर जवान को आजाद की तरफ बढ़ते देखा। हाथ पीछे किये हुए। बिजली की गति से उसने उनके मुंह पर कालिख पोत दी। किशन का कैमरा कौंधा। युवक इस बीच पुलिस के शिकंजे में था। मैंने किशन को अपना स्कूटर लेकर तुरत भागने को कहा। उनके पास अब एक ऐतिहासिक तस्वीर थी।”

वे बताते हैं “लेकिन तुरत ही मुझे उस युवक की चिंता होने लगी। पुलिस उसका खून पीने पर आमादा थी। मैंने आगे बढ़कर अपना परिचय दिया। मैं थाने तक गया। कुछ और पत्रकार भी साथ चले। हमने विद्रोही को तुरत कोर्ट या जेल को सौंपने का दबाव डाला।”

अगले दिन विद्रोही जेल में थे। लेकिन उनका नाम बिहार की जनता की जुबान पर। उन्होंने अपनी इस भावना, कृत्य और जेल यातना के अनुभव को अपनी एक कविता में व्यक्त किया जो ‘जनमत’ में छपी थी –
‘मेरे शरीर के एक-एक अंग में
हजार-हजार दर्द हैं
मेरे चेहरे पर पहला वार
अहिंसा ने ही किया
— — —
मर्दों, औरतों और बच्चों का कत्ल
यही उनका जश्न है
— — —
डंडे की पहली चोट
फिर दूसरी, फिर तीसरी
डंडा हर बार
मेरी दिमाग तक दौड़ता है
— — —
माँ! पिताजी!
तुमने मुझे इतना मजबूत क्यों बनाया?
वे सब बुरी तरह थक गए
उनकी समझ में नहीं आता
मारना मुश्किल है या आसान?
अब मैं फिर खड़ा हूँ
जिंदगी और उसकी खूबसूरती के लिए
मैं फिर से लड़ सकता हूँ!

कुछ दिनों बाद, भागवत मुख्यमंत्री पद से हटा दिए गए। 1990 का विधानसभा चुनाव आया। विद्रोही ने गया जेल में रहते हुए कांग्रेस के नए सूबेदार जगन्नाथ मिश्र के खिलाफ झंझारपुर से चुनाव लड़ा। जनकवि नागार्जुन समेत देश के चर्चित कवि-लेखकों ने उनके पक्ष में अपील जारी की। उनके लिये वोट मांगे।

विद्रोही खुद भी तो जनकवि थे, चित्रकार थे, रंगकर्मी थे। गीत और कविताएं लिखते थे। जेल के अंदर से उनकी लिखी ‘आजाद के नाम खुली चिठ्ठी’ काफी चर्चित हुई थी। एक प्रसंग यह भी है कि गया जेल में उनके साथ ही बंद थे पंजाब के रंगकर्मी अमरजीत सोही। उसी समय हुई चर्चित रंगकर्मी सफदर हाशमी की हत्या के खिलाफ दोनों ने मिलकर जेल के भीतर ही प्रतिवाद किया। सोही रिहा होने के बाद कनाडा चले गए। अभी वे वहां की सरकार में मंत्री हैं।

साथी कवि बासुकि प्रसाद ‘उन्मत्त’ ने उन्हीं दिनों वीरेंद्र विद्रोही पर एक लम्बी गीतमय कविता लिखी थी –

‘धन्य है बिहार का सामंतवाद के विरुद्ध
घोर दुर्धर्ष युद्ध, क्रुद्ध जन-जन है
काली घटा-सा है भूमिपति का आतंक
विद्युत की कौंध-सा प्रतिरोध क्षण-क्षण है’

पत्नी ललिता बताती हैं: “वे बिल्कुल निडर थे, मस्तमौला आदमी। अपने बच्चों व परिवार से बहुत ही स्नेह रखनेवाले, लेकिन फिर भी हर गरीब के लिए अपने।”

– संतोष सहर 

डॉक्टर वीरेंद्र विद्रोही ने अपने छात्र जीवन से ही 1980 में जयप्रकाश नारायण आंदोलन में उभरे देशव्यापी छात्र संगठन 

“छात्र युवा संघर्ष वाहनी”  से जुड़कर सामाजिक परिवर्तन हेतु कार्य करने का रास्ता चुना। कई सामाजिक संगठनों के निर्माण और जन आंदोलनों में उन्होंने नेतृत्वकारी भूमिका निभाई। बीएससी के उपरांत साथी वीरेंद्र ने राजस्थान विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में स्नातकोत्तर, एम. फिल. और फिर महात्मा गांधी की विचारधारा पर डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की। साथी वीरेंद्र विद्रोही एक प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता के साथ साथ सामाजिक विचारक और समाज के वंचित वर्ग के मुद्दों पर अपनी विद्वता के साथ प्रखर एवं ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने न केवल राजस्थान प्रदेश में अपितु देश भर में वंचित समुदायों के बीच कार्य कर रहे संगठनों और व्यक्तियों को हर संभव मदद प्रदान करने में अग्रणी भूमिका निभाई।

डॉक्टर वेद कुमारी साथी वीरेन्द्र की मुख्य प्रेरणा स्रोत थीं जो न सिर्फ हम सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच अपितु समाज के बड़े हिस्से में वेद दीदी के नाम से लोकप्रिय रहीं हैं।

जय प्रकाश नारायण स्थापति छात्र युवा संघर्ष वाहनी में 1980 में अलवर सयोंजक, राजस्थान समग्र सेवा संघ सह सचिव, वर्तमान में अलवर सर्वोदय मण्डल अध्यक्ष, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, मत्स्य मेवात शिक्षा और विकास समिति आदि कई संगठनों में अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी के  साथ साथ प्रदेश में नेशनल अलाइंस फॉर पीपल्स मूवमेंट और इंसाफ की स्थापना की। साथी वीरेंद्र राजस्थान में ज्ञान विज्ञान आंदोलन के भी एक प्रमुख स्तंभ रहे। 

मात्र 61 वर्ष की आयु में उनका असमय चले जाना न केवल हम सामाजिक बदलाव हेतु संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं के लिए बल्कि पूरे समाज के लिए अपूरणीय क्षति है।

साथी वीरेंद्र विद्रोही को क्रांतिकारी सलाम के साथ भावपूर्ण श्रद्धांजलि।

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