अग्नि आलोक
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भगवा ध्वजा … जो घृणा सिखाता है और हत्या के लिए उकसाता है……

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इंदरा राठौड़

कायरो,
क्या तुम बता सकते हो
कि किस ईश्वर के आख्यान में डूबकर
अपनी नसों में भरते हो यह घृणा ?

वैसे मेरा निजी अनुभव तो यही है
कि ईश्वर का नया नागर संस्करण,
एक ध्वजा है, जो घृणा सिखाता है
और हत्या के लिए उकसाता है

‘बसंत त्रिपाठी’ के यह कहते ही मेरे जेहन में सवाल कौंध गई कि बसंत आखिर किन जाहिलों को संबोधित कर पत्र लिखे हैं ? क्या सचमुच में ईश्वर नाम की कोई संस्था साबूत है जो जाहिलों के रक्त वाहिनियों में तैर रही है तथा उन्हें व्यग्र किए रहती है ?? वाकई क्या ईश्वर और जाहिलों का कोई नया नागर संस्करण हुआ ??? जिसका एक ध्वजा है, (भगवा है) जो घृणा सिखाता है और हत्या के लिए उकसाता है.

कविता बसंत त्रिपाठी के संग्रह ‘नागरिक समाज’ की है जो कविता ‘उन कायरों के नाम ख़त, जो धर्म रक्षा की खातिर बंदूक संभाले हुए हैं’ से है. वस्तुत: धर्म, कालांतर से ही सत्ता की पनाहगाह साबित हुई है. सत्ता, धर्म के पीठ पर बैठी सर्वाधिक सर्वाइव कर सकती है ! अभी और भी समय बचा है, यह हत्यारे को ठीक ठीक पता है. लेकिन, बसंत त्रिपाठी को जो पता है, वह ठीक और पक्के इरादों के साथ दोनों की कब्रें खोदने के उपक्रम को आगे बढ़ाता है.

कायरों, तुम्हारा वह जहरीला टैंक
जो तुम्हें ईधन उपलब्ध कराता है
बदल नहीं पाएगा दुनिया का हत्यारा पृष्ठ
क्या इतिहास से तुम कोई सबक नहीं लेते हो ?
क्या तुम देखते नहीं कि दुनिया के तमाम तानाशाहों की कब्रें
सूखी पत्तियों से ढंकी सुनसान पड़ी है ?
सिरायी गई हड्डियों को मछलियों झींगों तक ने कुतर दिया है
और सभ्यता घूम-घामकर भटक-बहककर
विचारों के पास ही पहुंचती है आखिरकार

मनुष्य के जीवन अथवा प्रकृति में, स्थायी कुछ भी नहीं है. कोई भी विचार, संवेदना, मूर्त्त-अमूर्त कला, शिल्प, सौंदर्य दृष्टि, यहां तक कि अंधविश्वास से उपजे ईश्वर भी आप्त नहीं है. यहां जो नि:सृत है अथवा छनकर आया है; वह भी स्थायी नहीं है. वह मनुष्य के उपक्रमों से ही सृजित है. अतः ईश्वर का सृजन भी मनुष्य निर्मित हुआ ! क़ाज़ी नजरूल इस्लाम इस बात की तस्दीक करते हैं, कहते हैं –

मनुष्‍य से घृणा करके
कौन लोग कुरान, वेद, बाइबिल चूम रहे हैं बेतहाशा
किताबें और ग्रंथ छीन लो जबरन उनसे

मनुष्‍य को मार कर ग्रंथ पूज रहा है ढोंगियों का दल !

सुनो मूर्खों !
मनुष्‍य ही लाया है ग्रंथ
ग्रंथ नहीं लाया किसी मनुष्‍य को !

नीलोत्पल उज्जैन की कविता में नफ़रत और घृणा के लिए कभी कोई स्पेस नहीं बचते. वे जितने सांप्रदायिक हिंसा के विरोधी हैं उतने ही मानवता के पुजारी भी हैं. एक ओर आक्रांताओं ने सावन के महीने को संप्रदायिक ट्रेंड से भरने की कवायद में, नाम पट्टिका की टैगिंग पद्धति से ज़हर भरी है तो नीलोत्पल जैसे कलाकार ने उसके खिलाफ बच्चों की दुनिया और उनके मुस्कान के हवाले देश दुनिया को छोड़ देने की कवायद की. यह पहला अवसर नहीं है कि देश आक्रांताओं से जूझी, बार-बार जूझती है और अपने पताकाएं भी फहरा लेती है इसलिए नीलोत्पल ठीक ही कहते हैं –

जहां तक तुम्हारी नफ़रत जाती है
उसके हर अंत पर बच्चे
मुस्कुराते हुए मिलते हैं

जहां तक तुम्हारी नफ़रत जाती है
उसके हर अंत पर बच्चें
मुस्कुराते हुए मिलते हैं
जैसे प्रेम की इबादत लिख रहे हो

यह कितना शर्मनाक है कि तुम्हारे हाथों में
बांटने वाले तमाम झंड़े
उनके सामने मिट्टी के खिलौने से ज़्यादा
हैसियत नहीं रखते

तुम्हें ऐसे रेत के महल नहीं बनाना चाहिए
जिनमें सारे धर्मों का कबाड़ और पांखड इकट्ठा हो
क्योंकि सारे बच्चे रेत के घरोंदे बना रहे हैं
और उन्हें पता है
लहर उन्हें मिटा कर
फिर से नयी संभावना रचती है

इस दुनिया को सिर्फ़ बच्चों की मुस्कान चाहिए..

नीलोत्पल की इस कविता के साथ तुर्की कवि नाज़िम हिकमत भी मुझे बार बार स्मरण हो आए जो कहते हैं –

सिर्फ़ एक दिन के लिए

यह दुनिया
चलो, बच्चों को दे दें
खेलने के लिए
आकर्षक, चमकते गुब्बारे की तरह
सितारों के बीच खेलें वे गाते हुए
चलो, यह दुनिया दे दें बच्चों को

रोटी के एक गर्म टुकड़े की तरह
एक बड़े विशाल सेब की तरह
सिर्फ़ एक दिन के लिए काफ़ी होगा
चलो, दे दें यह दुनिया बच्चों को

सिर्फ़ एक दिन के लिए
दुनिया सीख जाए दोस्ती करना
बच्चों को मिल जाए हमारे हाथों यह दुनिया
और वे लगा दें दुनिया में सनातन वृक्ष

(कविता का अनुवाद अनिल जनविजय के हैं)

देश को अडानी अंबानी के हाथों बेच दिए जाने का जिम्मा खुद देश के बरखुरदार उठा रहे हैं तो जियो परिवार को इससे भला कोई आपत्ति क्यों होगी ? क्यों नहीं अपने तेल, पानी, गैस, बिजली, मोबाइल सेवा के दाम बढ़ाएगी ? समस्या देश के कथित कर्णधारों का है, जो ठुमके लगाने में संकोच नहीं किए बल्कि बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. जाहिलियत के इस नमूने को देश देखता रहा और किसी लाचार असहाय मनुष्य-सा ठगा महसूस किया.

दुर्भाग्य है कि देश और जनता उन्हें ही पूजती है, उनका ही अनुसरण करती है जो उन्हें अर्श से फर्श पर पटक देने को उतारू हैं. इस पर मुझे दिलीप दर्श की यह ग़ज़ल स्मरण हो आई. आप भी पढ़ें दूरदास के पद वाले दिलीप दर्श उर्फ दूरदास को जो दूर की कौड़ी लाते, बिना चूके निशाना लगाते हैं –

किसी को बाढ़ में डूबे हुए धानों की चिंता है.
वहीं कुछ को कबूतर के लिए दानों की चिंता है.

किसे है फिक्र इस घर को लुटेरों से बचाने की
सभी सोये हैं ज्यों ये सिर्फ दरबानों की चिंता है.

बड़ी उम्मीद थी उनसे कि सोचेंगे अलग वे कुछ
उन्हें भी सिर्फ मस्जिद, चर्च, बुतखानों की चिंता है.

कहीं फुटपाथ पर ईंटों के तकिये लेके सोते लोग
कहीं डॉगी के कमरे, सेज-सिरहानों की चिंता है.

जिन्हें दो टूक कहने का हुनर है, चुप रहें क्यों वे
रहें वे चुप कि जिनको बिंब – उपमानों की चिंता है.

जब तक आप अपनी जड़ता पर वार नहीं करेंगे, उसे संरक्षित करेंगे; उसे प्रतिनियुक्ति देते हैं. जन्म से मैं हिंदू हूं, उसी के तौर तरीके आचार-विचार, व्यवहार को देखा तो हिंदू पर बात करता हूं. परन्तु इस पर अक्सर संघी, प्रतिक्रियावादी साथी बेवजह ही बिलबिला उठते हैं. जबकि मेरा विचार वस्तुत: यह रहता है कि धार्मिक कचरा हटाना है तो बात भी करना पड़ेगा और सीधे खिलाफ भी खड़ा होना पड़ेगा, जिसे विजय शंकर चतुर्वेदी साफ़ कर रहे हैं –

धार्मिक कचरा हटाना है तो…चाहे हिन्दू हो, इस्लाम हो, ईसाई हो, बौद्ध हो, सिख हो, जैन हो, यहूदी हो, पारसी हो… वुडू, यज़ीदी, जैन, शिंतो…यानी दुनिया का कोई भी धर्म अपने अनुयायियों को चंगुल से निकलने नहीं देता. बल्कि एक किस्म की छीनाझपटी चलती रहती है. इसके लिए हर धर्म ने सोकर उठने से लेकर पुनः सोने और जन्म होने से लेकर मृत्यु तक के विधान, कर्मकांड और संस्कार स्थापित कर रखे हैं. कुछ धर्म इनके पालन में कभी-कभार शिथिलता भी बरतते हैं.

लेकिन धर्मानुयायी अपने अवचेतन में भरा हुआ धार्मिक कचरा हरगिज़ साफ न करने पाएं, इसके लिए भागवत कथा, अखंड मानस, जगराता, तीर्थ यात्राएं, नमाज, रोजा, इफ्तार, ताजिया, हज, उमरा, जियारत, मास, चंगई के कार्यक्रम, कब्रिस्तान में मोमबत्तियां जलाना, पितृ पूजा, धार्मिक और पूजाघरों में हाज़िरी बजाना, प्रवचन, धार्मिक तकदीरें, तबलीग आदि… पूरी दुनिया में रोज़ बदस्तूर संपन्न होते हैं. अंधविश्वास, तंत्र-मंत्र, झाड़-फूंक, डायन, जिन्न, क्रास, अंगूठी, रत्न, कवच, गंडा-तावीज वाले एजेंट तो गली-गली मिल जाएंगे.

इस धार्मिक कचरे को साफ करती है प्रगतिशील और वैज्ञानिक विचारधारा, जिससे हर धर्म के सड़े हुए ठेकेदार घोर नफरत करते हैं और भयभीत भी रहते हैं. वामपंथ के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार और दुश्मनी इसी डर का नतीजा है. जिनके दिमाग़ में धार्मिक कचरा कूट-कूट कर भरा हुआ है, वे पूंजीपतियों के दलाल दक्षिणपंथी मक्कारों, षड्यंत्रकारियों, मानव द्रोहियों, लुटेरे लफ़्फ़ाज़ों की सरकारें धर्मध्वजाधारियों की सरपरस्ती में चुनते हैं.

इसीलिए भारतीय संविधान की मूल भावना के मुताबिक हर मामले में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाइए, यह मां के दूध में तुलसी के रस जैसा कारगर सिद्ध होगा. यह आपका सत्य से साक्षात्कार कराएगा. और हां, संघ की बीजेपी सरकार के घोर हिन्दू विरोधी और देशभंजक होने के सबूत भी आपको स्पष्ट नज़र आने लगेंगे.

यह बात इसलिए सामने आ रही है कि जब मैं लिखता हूं तो सेलेक्टिव लेखन का मुझ पर आरोप लगता है. ऐसे में एक लेखक लिखे तो क्या लिखे ? और कैसे लिखें, बड़ा सवाल है ?? अब जब पत्रकारिता भी गोदी मीडिया के चंगुल में है, कि वह सत्य भी नहीं कह पा रहा है, चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया माध्यम हो या प्रिंट मीडिया माध्यम,

एक लेखक की जिम्मेदारी बहुत बड़ी हो जाती है कि वह चयन और विवेक सम्मत होकर दबे-कुचले, निर्बल, असहाय, किसान, मजूर तथा जरूरतमंदों के पक्ष को लिखे. वह किसी पूंजीपति, सामंत, कारपोरेट की बातों को न लिखे. लिखे धर्म सांप्रदायिकता के खिलाफ लिखे. ऊंच-नीच, भेद-भाव, जातिवाद के खिलाफ लिखे. स्त्री के गैर बराबरी और द्वितीय नागरिकता के खिलाफ लिखे.

नफरती चिंटू गैंग के विरोधाभास से परे रह कभी पाकिस्तान से घृणा न लिखे. लिखे तो फिलिस्तीनी नागरिकों के ऊपर बर्बर इजरायली प्रशासन के खिलाफ लिखे. विश्व शांति की कामना में प्रत्येक तानाशाह को टारगेट करें और लिखे कि अमेरिका की दादागिरी दुनिया के लिए खतरा है. उसके हथियारों की अवहेलना कर हथियारों की जरूरत को ख़ारिज़ करें. लोगों को बताए कि सेलेक्टिव लेखन और पक्षधरता में बहुत बड़ा अंतर है. जो वह कर रहा है वह फ़ासिज़्म के खिलाफ कर रहा है. साबित करें कि हमारा लिखना सलेक्टिव नहीं है, मानवता के पक्ष को मजबूत बनाने पक्षधर हो, लिखना है.

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