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त्रिपुरा व मेघालय में भाजपा को मिल रही चुनौती से भगवाई असहज

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संजय रोकड़े

इस समय पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में चुनाव को लेकर खासी गहमा- गहमी है। त्रिपुरा,मेघालय और नगालेंड। यहां होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर जनता के बीच में खासा उत्साह देखा जा रहा है।

त्रिपुरा और मेघालय में भाजपा ने सत्ता के दौरान जिस हिंसा को नजरअंदाज किया था उसको लेकर यहां के मतदाताओं में अच्छा खासा विरोध दिखाई दे रहा है।

ये विदित है कि हिन्दुत्व के झंडा बरदारों व भगवाधारियों ने त्रिपुरा में मुस्लिम और मेघालय में इसाईयों को बुरी तरह से परेशान किया था। त्रिपुरा में तो बड़ी तादात में मुस्लिमों के घरों के साथ ही व्यावसायिक प्रतिस्ठानों को आग के हवाले कर दिया था वहीं मेघालय में धर्मांतरण के आरोप में चर्चों को खाक कर दिया था। सौ- सौ साल पुराने चर्चों को आग के हवाले कर ईसाई समुदाय के लोगों के साथ हिंसा कर मारकुट की गयी थी।

अबकि त्रिपुरा और मेघालय के विधानसभा चुनाव में हिन्दू आतंक का खासा विरोध हो रहा है। इसके चलते चुनावी समीकरण भी तेजी से बदलते जा रहे है।

पूर्वोत्तर के त्रिपुरा, मेघालय व नगालेंड में चुनावी तैयारियों में जुटी भाजपा बदलते समीकरणों को लेकर न केवल खासी परेशान दिखाई दे रही है बल्कि असहज भी है।

यहां भाजपा के विरोध में इस तरह की जमीन बन गयी है कि भाजपा को अब अपनी त्रिपुरा की सत्ता बचा पाना भी मुश्किल नजर आ रही है। यहां भाजपा सत्ता बचाने के लिए विरोधी दलों के वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीति पर अपना ध्यान केंद्रित करने को मजबुर है।

इन राज्यों में भाजपा के लिए इससे बड़ी चिन्ताजनक स्तिथि और क्या हो सकती है कि वह नया वोट बैंक बनने की बजाय किसी के बने बनाए वोट बैंक को रोकने की रणनीति पर काम करने को मजबुर होना पड़े ।

जनता के चुनावी रुझानों को देखते हुये भाजपा सबसे ज्यादा चिंताजनक स्तिथि में त्रिपुरा को लेकर है। त्रिपुरा में भाजपा जनता का रुख पार्टी के विरोध में दिखाई दे रहा है।

 भाजपा भी त्रिपुरा को लेकर सबसे ज्यादा चिंतित है। त्रिपुरा में भाजपा की चिंता का आलम ये है कि उसे पूर्ण बहुमत की सरकार हाथों से खिसकती नजर आ रही है।

मेघालय और नगालेंड भी भाजपा को हार सामने दिखाई दे रही है। अबकि बार भाजपा को मेघालय में सहयोगी रहे एनपीपी को पछाड़ने का ड़र भी सता रहा है। 

वहीं नगालेंड में भाजपा अपने सहयोगी एनडीपीपी की जूनियर बने रहने को मजबुर है। इसी कारण भाजपा वहां कुल 60 सीटों में से 20 सीटों पर ही चुनाव लडेगी। बाकी की सभी 40 सीटों पर एनडीपीपी के लिए छोडनी पड़ी।

काबिलेगौर हो कि पिछ्ले हफ्ते तीनों राज्यों में पार्टी की मौजूदा स्तिथि को लेकर भाजपा नेताओं व पदाधिकारियों की एक समीक्षा बैठक हुयी थी। 

इस बैठक में छोटे से बड़े नेता के बीच संवाद का एक ही विषय था कि कैसे त्रिपुरा में सत्ता पर वापस काबिज हुआ जाए। इस बैठक में जितने भी पदाधिकारी मौजूद थे सबके सब को त्रिपुरा में हार सामने दिखाई दे रही थी। सबके सब सत्ता को बचा पाने की चिंता में विमर्श कर रहे थे।

यहां ये बताना लाजिमी है कि पिछली बार भाजपा त्रिपुरा में जीती तो थी लेकिन उसे वामपंथी दलों से सिर्फ 1 फीसदी ही वोट ज्यादा मिला था। जब वामपंथी दल और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव नही लड़े थे।

अबकि बार स्तिथि इसके ठीक उलट है। इस बार वामपंथी और कांग्रेस साथ मिलकर लड़ रहे है। अब ऐसी स्तिथि में भाजपा के पास सिर्फ एक ही रणनीति है और वो है वोटों का ध्रुवीकरण रोकना। भाजपा भी इस समय सिर्फ उसी रणनीति पर काम कर रही है।

अब त्रिपुरा में भाजपा की नजर सिर्फ और सिर्फ इंडिजेनश पीपुल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा   (आईपीएफटी) के वोटों पर टिकी है। बता दे कि पिछले चुनाव में आईपीएफटी को करीब साढे 7 फीसदी वोट मिले थे।

सनद रहे कि पूर्वोत्तर मामलों को देख रहे एक वरिष्ठ नेता ने भी इस बात को स्वीकारा है कि स्तिथि बडी गंभीर है और विरोध बड़ा है। वे इस बात को भी नही नकार पाए कि सत्ता विरोधी लहर नही है। ऐसी स्तिथि में आशंका ये भी जाहिर की जा रही है कि सत्ता विरोधी रुझान का बड़ा हिस्सा आईपीएफटी की तरफ जा सकता है। 

इस तरह के हालातों के चलते साफ नजर आ रहा है कि त्रिपुरा, मेघालय और नगालेंड में भगवाईयों को चुनौती सीधे मिल रही है। इसी के चलते भगवाधारी अच्छे खासे असहज भी दिखाई दे रहे है।

 

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