- सनत जैन
सुप्रीम कोर्ट के 51 वे मुख्य न्यायाधीश के रूप में संजीव खन्ना ने आज शपथ ली है। राष्ट्रपति द्रोपति मुर्मू ने राष्ट्रपति भवन में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में मुख्य न्यायाधीश के पद की शपथ दिलाई। 2014 में केंद्र में पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार के आने के बाद संजीव खन्ना दसवें मुख्य न्यायाधीश हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ द्वारा उनके नाम की सिफारिश की गई थी। संजीव खन्ना दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस देवराज खन्ना के सुपुत्र और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एचआर खन्ना के भतीजे हैं।
खन्ना परिवार के वह एक ऐसे सदस्य हैं जो न्यायपालिका के सबसे उच्च पद पर पहुंचे हैं। 51वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में उनका कार्यकाल किस तरह का होगा, इसको लेकर अभी से धारणा बनना शुरू हो गई है। पिछले 10 वर्षों में सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली की सबसे ज्यादा चर्चाएं हुई हैं। संविधान ने न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान पर रखा है। विधायिका और कार्यपालिका द्वारा जो भी कार्य किए जाते हैं। गुण दोष के आधार पर न्यायपालिका का फैसला अंतिम माना जाता है। 2014 के पहले संविधान में प्रद्दत मौलिक अधिकारों को लेकर न्यायपालिका सजगता के साथ संविधान के अनुसार गुण दोष के आधार पर निर्णय करती थी। न्यायपालिका ने सत्ता पक्ष और विपक्ष को ध्यान में रखते हुए कोई निर्णय नहीं दिया। न्यायपालिका के पास जो भी मामले गए। निष्पक्षता के साथ दोनों पक्षों को सुनते हुए संविधान के अनुरूप फैसला देने में कभी कोई कोताही न्यायपालिका ने नहीं की। जिसके कारण हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर आम जनमानस का हमेशा विश्वास बना रहा। न्यायपालिका ने अपना अंकुश सही मायने पर सरकार और कार्यपालिका पर रखा। इन्हीं के पास अधिकार होते हैं। अधिकारों के बल पर सरकार और कार्यपालिका निरंकुस होती हैं।
इनके लिए अंकुश की जरूरत पड़ती है। सरकार जो भी कानून और नियम बनाती है। वह संविधान के अनुरूप हैं, या नहीं, यह देखने का काम न्यायपालिका का होता है। संविधान ने नागरिकों को जो मौलिक अधिकार दिए हैं। उसमें कटौती या कमजोर करने का अधिकार ना तो संविधान ने न्यायपालिका को दिया है। ना विधायिका को दिया है। नाही कार्यपालिका को दिया है। संविधान ने नागरिकों के समता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, संस्कृति और शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता में रखा है। अनुच्छेद 32 के तहत न्यायपालिका को संवैधानिक उपचारों को बनाए रखने के लिए विशेष अधिकार दिए गए हैं। संविधान की मूल भावना है, मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप किए बिना सरकार कानून और नियम बना सकती है। कार्यपालिका सरकार द्वारा बनाए गए नियम और कानून का पालन कराने की जिम्मेदारी तय की गई है।
न्यायपालिका को संविधान मे प्रदत नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के साथ संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार विधायिका और कार्यपालिका काम करे, इसको सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी न्यायपालिका को सौंपी गई है। 2014 के बाद की न्यायपालिका के प्रति लोगों का विश्वास लगातार कम हो रहा है। न्यायपालिका आलोचना का शिकार हो रही है। पिछले 10 सालों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का सबसे ज्यादा हनन सरकारी कानून से हुआ है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने मौलिक अधिकारों से संबंधित कई याचिकाओं पर वर्षों सुनवाई नहीं की है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट, सरकार को विशिष्ट मानकर फैसला कर रही है। न्यायपालिका यह मानकर चलने लगी है, संसद में जो कानून सरकार द्वारा बनाए जाते हैं। उसके अनुसार न्यायपालिका को फैसला करना है। गुण दोष के आधार पर अब न्यायपालिका फैसला नहीं कर रही है। राम मंदिर के मामले में आस्था के नाम पर जमीन टाइटल के विवाद पर फैसला दिया गया। उसके बाद से न्यायपालिका द्वारा जिस तरह से फैसले दिए जा रहे हैं।
उससे स्पष्ट है, न्यायपालिका यह मानकर चल रही है। सरकार जो भी नियम और कानून बना रही है, वह सही हैं। जिसके कारण संविधान मे प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का लगातार हनन हो रहा है। नागरिकों को महीनो और वर्षों तक जेलों में असंवैधानिक रूप से बंद रखा जा रहा है। आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता को लेकर लगातार भेदभाव हो रहा है। न्यायपालिका संविधान के अनुसार गुण दोष के आधार पर फैसला न करके संसद द्वारा बनाए गए कानून और नियमों को सर्वोच्च मानकर फैसला कर रही है। भारतीय न्यायपालिका का 75 वर्षों का इतिहास है। न्यायपालिका ने 65 वर्षों तक गुण और दोष के आधार पर फैसला कर संवैधानिक जिम्मेदारी का पालन किया। नागरिकों का विश्वास अर्जित किया था। पिछले 10 वर्षों में यह विश्वास कमजोर हुआ है।
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सरकार की मंशा के अनुसार मामलों की सुनवाई और निर्णय करने लगे हैं। एक तरह से न्यायपालिका केंद्र सरकार का कवच बन गई है। आम नागरिकों में यह धारणा बनने लगी है। 51वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में संजीव खन्ना नागरिकों का विश्वास न्यायपालिका पर बनाकर रख पाएंगे यह आशा आज के दिन की जा सकती है। संविधान की मूल भावना के अनुरूप न्यायपालिका के निर्णय होंगे। न्यायपालिका यदि आस्था और सरकार को विशेष मानते हुए कोई फैसला करती है, तो इससे संविधान कमजोर होगा। नागरिकों के अधिकार काम होते चले जाएंगे। 51वें मुख्य न्यायाधीश संविधान और लोकतंत्र की रक्षा, नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा न्यायपालिका पर विश्वास बना रहे। यही सर्वोच्च प्राथमिक्ता होनी चाहिए।
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