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सत्य कथा : ग्रांट की एजेन्सी

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      ~ पुष्पा गुप्ता 

“ग्रांट की एजेन्सी ले रखी है?”

“हां।”

“दलाली भी खाते हैं?”

“हां।”

“कमीशन का रेट फ़िक्स है?”

“नहीं। पहली बार दिलाने का कमीशन 50 प्रतिशत तक ले लेते हैं। वैसे सामान्य रेट 20 प्रतिशत का है।”

“मतलब चार लाख का ग्रांट पास करवाते हैं और दो लाख जेब में रख लेते हैं?”

“हां भई।”

“वैसे ग्रांट के लिये वाया भोपाल आना ठीक है या वाया पटना?”

“एक ही बात है। हालांकि आजकल वाया रांची का मार्केट अच्छा है। रेट भी थोड़ा कम है। आज कल अच्छे ऑफ़र भी आ रहे हैं मार्केट में।”

“ओह… ऑफ़र क्या?”

“ग्रांट लेकर नाटक तो कर लोगे, पर शो का क्या? फेस्टिवल में नाटक लगवा लेना असली खेल है बेटा। अब देखो न पटना से लेकर बेगूसराय, भोपाल, दिल्ली, केरला, हिसार, कोलकाता, उज्जैन जहां भी ग्रांट से बड़े बजट के प्राइवेट फेस्टिवल हो रहे हैं, सबकी सेटिंग होती है। ज़्यादा कमीशन लगता है तब भी इसीलिये सब भोपाल और पटना की तरफ दौड़ लगाते हैं। फेस्टिवल की सबसे बड़ी लॉबी वहीं से ऑपरेट होती है। दो-तीन शो लग गये न बेटा तो कमीशन का खर्च वापस आ जाता है। धीरे-धीरे स्टैब्लिश भी हो जाओगे।” 

“मतलब… स्टैब्लिश भी कराने का ठेका लेते हैं?”

“अबे घोंचू कुछ जानते भी हो मार्केट के बारे में? आजकल इसी तरह स्टैब्लिश होते हैं। कोई क्लासिक उठा लो, नेट पर सर्च मारो, क्या नहीं है वहां? एकदम रेडीमेड सब कुछ मिल जायेगा। डिज़ाइन, एक्टिंग, कॉस्ट्यूम, म्यूज़िक सब कुछ। बस दिमाग़ लगाओ, कॉपी मारो, नाटक तैयार। दो चार कहानियां इधर-उधर से उठाओ, फेंट-फांट कर कोई उड़ती सी स्टोरी बन जायेगी। कुछ इम्प्रोवाइज़ कर-कराके नयी स्क्रिप्ट तैयार। अब तुम भी बन गये नाटककार। ज़्यादा दूर क्या जाना, आसपास देखो कई ऐसे नाटककार दीख जायेंगे। हमारे दौर के नाटककार भी वही लोग हैं, जो एक्टर भी हैं, डायरेक्टर भी और ऑर्गनाइज़र भी। ये लोग आज कल थियेटर के लेज़ेण्ड भी बनाने लगे हैं। समीक्षक की ज़रूरत ही किसे है? नहीं हुआ तो राय जी से और बजेली जी से कहलवा दिया जायेगा कि यह दशक का सर्वश्रेष्ठ नाटक और प्रस्तुति है। बस। हो गये स्टैब्लिश। आराम से रेपर्टरी ग्रांट के लिये अप्लाई करो, डायरेक्टर को बुला कर उद्घाटन करा लो, कोई अवार्ड दे दो हो गया काम। रेपर्टरी मिल गयी तो लाइफ़ मज़े में निकल जायेगी। घूमो-फिरो ऐश करो। मन हो तो थोड़ा-बहुत ख़र्च करो, मन हो तो पूरा रख लो। शर्म हया छोड़नी पड़ती है, चमड़ी मोटी करनी पड़ती है, गधों का गुणगान खुलेआम करना पड़ता है। आज कल सब तो कर रहे हैं।”

“अवार्ड भी देना होता है?”

“नहीं तो क्या? अवार्ड किसको मिलता है आज कल? इन्वेस्टमेन्ट है भाई। किसी कमिटि में है, पावर सेन्टर में है, कोई लॉबी चलाता है, फेस्टिवल दिला सकता है, कोई एसएनए अवार्डी है, आने वाले वक़्त में उसके रिकमेन्डेशन की ज़रूरत पड़ेगी एसएनए में, तो आज उसको अवार्ड देना पड़ता है। गिव एण्ड टेक का मामला है सारा बाक़ायदा। अपना इन्वेस्टमेन्ट है, जिसको मन करे दे दो। कोई नहीं पूछता कि भाई अवार्ड की कमिटि कहां है? अवार्ड की योग्यता क्या है? तुमने ख़ुद कैसे तय कर लिया कि फलाने व्यक्ति का थियेटर में अतुलनीय योगदान है वगैरह-वगैरह।” 

“इतना सब कुछ करना पड़ता है स्टैब्लिश होने के लिये?”

“तो? आसान है? इतना काफ़ी नहीं। असली खिलाड़ी तब माने जाओगे जब फेस्टिवल ऑर्गनाइज़ करने लग जाओगे। अपने पड़ोसी, रिश्तेदार, प्रेमिका और चमचों को कुछ लाभ देने-दिलाने का स्टेटस पा लोगे। किसी को रेपर्टरी, किसी को कुछ और। जब तुम्हारे आगे-पीछे दस-बीस लोग चक्कर काटेंगे, जय-जय करेंगे, तब समझना कि स्टैब्लिश हो गये। बहुत स्ट्रगल है भाई।”

“पर रंगकर्मी तो कुछ दूसरे तरह के होते हैं, जैसे हबीब साहब, प्रसन्ना, सफ़दर हाशमी, गुरशरण सिंह, कन्हाईलाल का व्यक्तित्व तो अलग तरह का है। उनके बारे में सोच कर सिहरन होती है, रोंगटे खड़े होने लगते हैं। किस तरह अपनी महत्वाकांक्षाओं को, अपने जीवन को गला कर, मूल्यों को तपा कर उन्होंने समष्टि के लिये, कला और समाज की उन्नति के लिये सर्वस्व दिया। बदले में पद, पुरस्कार, सुविधाओं की कभी अपेक्षा नहीं की। फिर आज के ये लोग क्या रंगकर्मी कहलाने लायक हुए?”

“किसके बहकावे में आ गये भाई? यह सब कहने की बातें हैं। जीवन मूल्यों और आदर्शों से नहीं चलता। भूखों मरना हो तो ठीक है।”

“भाई हम तो रंगकर्म करने आये थे। यहां तो कुछ और ही माज़रा है। लगता है हम ग़लत जगह आ गये।”

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