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सावित्रीबाई फुले, जिन्होंने गढ़ा अपना स्वतंत्र आकार

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सावित्रीबाई के अपने पति के नाम लिखे गए पत्रों को पढ़ना बहुत ज़रूरी है। कविताओं के साथ-साथ उनके पत्र भी एक दस्तावेजी संकलन है – सावित्रीबाई फुले द्वारा जोतीराव फुले को लिखे गए पत्र जिनकी की पहली पंक्ति अपने जीवनसाथी के प्रति उनके सम्मान को दर्ज करती है – “सत्यरूप जोतीबा जी को, सावित्री का सविनय प्रणाम।” पूरे पत्र में वृहत्तर समाज की चिंता, सभी समुदायों के प्रति गहरे प्रेम, अन्याय के प्रति विद्रोह, जातिवादी मानसिकता के खिलाफ आक्रोश और समता-आधारित समाज की चाहना है। ये पत्र उनकी चिंतनशील उन्नत वैचारिक चेतना को स्पष्ट करते हैं। पत्रों को पढ़ते हुए यह समझ में आता है कि वे किसी भी मनुष्य के दुख से कितना विचलित होती थीं और उस दुख को दूर करने के लिए वे किस हद तक कुछ भी करने को तैयार हो जाती थीं।

सुधा अरोड़ा 

ज्ञान नहीं, विद्या नहीं,
अर्जित करने की चाह भी नहीं,
बुद्धि होकर भी जो उस पर चले नहीं
उसे इंसान कहें क्या

दे दो ईश्वर बिना काम किए बैठे बिठाये खाट पर
ढोर-डंगर भी ऐसा कहता नहीं
जिसका कोई आचार विचार नहीं,
उसे इंसान कहें क्या

पत्नी बिचारी काम करे और फोकट में पति मौज उड़ाए
पशु पक्षी में भी ऐसा होता नहीं
ऐसों को इंसान कहें क्या ![1]

– सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897)

इस विद्रोही और क्रांतिकारी तेवर में अपनी बात बहुत दम-खम के साथ कहने वाली सावित्रीबाई फुले पहली जनकवि, महिला शिक्षिका और स्त्री मुक्ति की प्रवर्तक रही हैं।

सावित्रीबाई फुले एक आदर्श अध्यापिका, निस्वार्थ समाजसेविका के साथ-साथ एक तीखे तेवर वाली कवयित्री और सत्यशोधक समाज की कुशल नेतृत्व करने वाली नेता भी थीं, लेकिन एक लंबे समय तक उनके संकल्प और साहस, नेतृत्व और तेवर को रेखांकित नहीं किया गया। उनके साथी और उनके प्रेरक व्यक्तित्व जोतीराव फुले के नाम के साथ उनके सहयोग और योगदान का उल्लेख ज़रूर किया जाता रहा, पर उन्हें एक स्वतंत्र पहचान नहीं मिली।

भारत में दलित-पिछड़ों के आंदोलन व नारीवादी आंदोलन के उभार के बाद ही सावित्रीबाई फुले के अपने काम और उनकी अगुवाई को लेकर शोध किए गए, उनके विद्रोही तेवर की रची हुई कविताएं प्रमुखता से उभरीं और उनको एक अलग विशिष्ट पहचान भी मिली। सावित्रीबाई फुले का पहला कविता संग्रह ‘काव्य फुले’ 1854 में ही प्रकाशित हो चुका था। यह किसी भारतीय महिला कवि का संभवतः पहला कविता संग्रह था, जिसमें कवयित्री आम जन की भाषा में स्त्री और पुरुष की बराबरी का आह्वान और दलित दमित वर्ग को सचेत करने जागरूक होने के संदेश दे रहीं थीं।

सावित्रीबाई फुले का जीवन कई दशकों से महाराष्ट्र के गांव-कस्बों की औरतों के लिए प्रेरणादायक रहा है। उस समय के पुरातनपंथी रूढ़िवादी और स्त्री शिक्षा विरोधी समाज के तमाम विरोध और बाधाओं के बावजूद सावित्रीबाई फुले अपने संघर्ष में डटी रहीं। उनके धैर्य और आत्मविश्वास ने भारतीय समाज में स्त्रियों में शिक्षा की अलख जगाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ऐसे जुझारू व्यक्तित्व पर बात करने से पहले यह जरूर देखना चाहिए कि वह कालखंड कैसा था, जिसमें सावित्रीबाई का जन्म हुआ और वह समाज कैसा था, जिसमें उन्होंने अपने काम की शुरुआत की।

महाराष्ट्र में पेशवाओं का राज था और पेशवाकालीन ब्राह्मण समाज में धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास कायम था। जाति-प्रथा और जाति-विद्वेष अपने चरम पर था। चमार, मांग, वाल्मीकि, महार जैसी अछूत मानी जाने वाली जातियों की दुर्दशा का आलम यह था कि इन जातियों के लोगों को कमर के पीछे झाड़ू या कंटीली झाड़ी बांधकर चलना पड़ता था, जिससे रेत या सड़क पर बने उनके पांव के निशान मिटते चले जाएं और किसी ब्राह्मण का पांव उनपर न पड़े। उन्हें अपने गले में हांडी या मटकी लटकाकर चलना पड़ता था ताकि वह उसमें ही थूकें, सड़क पर नहीं, जिससे ब्राह्मणों के अपवित्र होने का खतरा न रहे। वे लोग सिर्फ तपती दोपहरी में घर से बाहर निकल सकते थे, क्योंकि सुबह-शाम उनकी लंबी परछाई किसी ब्राह्मण को अपवित्र कर सकती थी। किसी जरूरी काम से अगर सुबह बाहर निकलना ही पड़ता तो वह एक हाथ से थाली, दूसरे हाथ से पत्थर से टन-टन बजाते हुए अपने आने की सूचना देते हुए चलते। अछूत मानी जाने वाली जातियों के वजूद को किस तरह रौंदा जाता था, इसका आज सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। पेशवा बाजीराव द्वितीय निहायत स्वेच्छाचारी, व्यभिचारी और लंपट था। उसके व्यभिचार के किस्से इतने कुख्यात थे कि उसके दौरे की खबर मिलते ही पूना से लगभग सौ किलोमीटर दूर वाई नामक गांव की कई स्त्रियों ने कुंए में कूदकर जान दे दी।

1818 में दलित विरोधी ब्राह्मणों के समर्थक पेशवा राज का अंत हुआ और अंग्रेजी हुकूमत कायम हो गई। ब्रिटिश शासन के समय भी जाति-प्रथा की पहले से चली आ रही रूढ़ियां बदस्तूर जारी थीं। वह समय शूद्र-अतिशूद्रों (दलितों) और स्त्रियों के लिए नैराश्य और अंधकार का था। समाज में अनेक कुरीतियां फैली हुई थीं और स्त्री-शिक्षा का प्रचलन नहीं था। विधवा होने पर स्त्री का मुंडन कर दिया जाता और उसके खान-पान, पहनावे और घर से बाहर निकलने पर अंकुश लगा दिए जाते। स्त्रियों को लेकर तरह-तरह की जकड़बंदियां थीं और अंधविश्वासों से समाज अंटा हुआ था। सती प्रथा और बाल विधवा के स्त्रीविरोधी समय में जब यह निश्चित था कि लड़कियों को शिक्षा की ज़रूरत नहीं है और शिक्षित स्त्री के हाथ का बनाया खाना खाने से पति की मृत्यु हो सकती है, ऐसे अंधविश्वासों वाले समय में सावित्रीबाई ने परंपरागत कूपमंडूक स्त्री के सामने एक शिक्षित बदली हुई स्त्री को ला खड़ा करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी।

महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी, 1831 को हुआ था। पिता खंडोजी नवसे पाटिल और मां लक्ष्मी थी। सावित्रीबाई के बचपन की एक उल्लेखनीय घटना है। जब सावित्री छह सात साल की थीं, वह शिखल गांव के हाट में गईं। वहां कुछ खरीद कर खाते-खाते उन्होंने देखा कि एक पेड़ के नीचे कुछ मिशनरी स्त्री-पुरुष गा रहे हैं। एक लाटसाहब ने उनको रुककर गाना सुनते और खाते हुए देखा तो कहा– “इस तरह खाते-खाते रास्ते में घूमना अच्छी बात नहीं है।” सुनते ही सावित्री ने हाथ का खाना फेंक दिया। लाटसाहब ने कहा– “बड़ी अच्छी लड़की हो तुम।” और उनको एक छोटी-सी पुस्तिका थमा दी। सावित्री ने सकुचाते हुए कहा कि वह पढ़ना नहीं जानती। उन्होंने कहा– “कोई बात नहीं, इसमें तस्वीरें भी हैं। किताब रख लो, इसके चित्र तुम्हें अच्छे लगेंगे।”

घर आकर सावित्री ने वह किताब अपने पिता को दिखाई। नाराज़ पिता ने यह कहते हुए उसे कूड़े में फेंक दिया कि “ईसाइयों से ऐसी चीजें लेकर तू भ्रष्ट हो जाएगी और सारे कुल को भ्रष्ट करेगी।” सावित्री ने पिता की नज़र से बचाकर उस छोटी-सी पुस्तिका को अपने घर के एक कोने में छुपा दिया। 1840 में जब नौ साल की सावित्रीबाई का तेरह साल के जोतीराव फुले से विवाह हुआ, वह उस किताब को सहेज कर ससुराल ले आईं।

फुलेवाड़ा संग्रहालय, पुणे में सावित्रीबाई फुले की एक पेंटिंग है, जिसमें दिखाया गया है कि स्कूल जाते समय सावित्रीबाई पर लोग पत्थर और कीचड़ फेंक रहे हैं

विवाह के बाद ही सावित्रीबाई के जीवन में बदलाव शुरू हुआ। विवाह के समय तक सावित्रीबाई फुले की स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी और जोतीराव फुले तीसरी कक्षा तक पढ़े थे। लेकिन उनके मन में शिक्षा के लिए गहरी ललक थी। जोतीराव का मन किताबों में खूब रमता था। उन्होंने सावित्री का रुझान भी किताबों में पाया। वे पूना में मराठी स्कूल में पढ़ने जाते थे, लेकिन समाज के दबाव में आकर उनके पिता ने पाठशाला से निकाल कर उन्हें व्यवसाय में लगा दिया। वर्ष 1841 में मिशनरी स्कूल में दाखिला लेकर उन्होंने दोबारा पढ़ाई शुरू की।

इस दिशा में समाज सेवा का जो पहला काम जोतीराव ने प्रारंभ किया, वह था– अपनी पत्नी सावित्रीबाई को प्रशिक्षित करना, जिनकी ग्राह्य शक्ति तेज थी। उसके बाद उन्हें किसी स्त्री शिक्षिका की भी ज़रूरत थी तो जोतीराव ने सावित्रीबाई को ही प्रशिक्षण दिया। वे उनके पति ही नहीं, गुरु और सहयोगी भी थे। समाज सुधार के अपने मिशन में सावित्रीबाई और जोतीराव – दोनों को अपने परिवारों से पुरज़ोर विरोध का सामना करना पड़ा। वे अछूतों के लिए काम कर रहे हैं, जो कि ब्राह्मण विरोधी है, ऐसा मानते हुए जोतीराव के धर्मभीरू पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मजबूर किया। फुलेवाड़ा संग्रहालय, पुणे में सावित्रीबाई फुले की एक पेंटिंग है, जिसमें दिखाया गया है कि स्कूल जाते समय सावित्रीबाई पर लोग पत्थर और कीचड़ फेंक रहे हैं। वास्तविकता यही थी। जब वे घर से पाठशाला तक पढ़ाने के लिए जातीं तो रास्ते में खड़े लोग उन्हें गालियां देते, उन पर थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। जब यह रोज़ होने लगा तो सावित्री अपने साथ एक साड़ी और ले जातीं ताकि स्कूल पहुंचकर उसे बदल लें। तब उस्मान शेख और फ़ातिमा शेख ने दोनों के लिए अपने घर के दरवाज़े खोल दिए थे।

फुले दंपत्ति ने पूना के बुधवारा पेठ में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे के घर में खोला गया था। पैसे की तंगी और अपने घर परिवार द्वारा लांछन और व्यवधान के साथ-साथ उन्हें सामाजिक-विरोध भी झेलना पड़ा। समाज से विरोध के बावजूद पति का सहयोग और समर्थन – इसने सावित्रीबाई के आगे की राह आसान कर दी। विरोध झेलते हुए भी दोनों जानते थे कि उन्हें हासिल क्या करना है और किस दिशा में आगे बढ़ना है। कोई भी व्यवधान उन्हें अपने लक्ष्य से डिगा नहीं पाया। इस तरह 1840 से लेकर 1890 तक यानी पूरे पचास साल तक दोनों एक प्राण होकर समाज सुधार के अपने मिशन में जुटे रहे।

उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला गया। दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेष रूप से लड़कियां, बड़ी संख्या में इन पाठशालाओं में आने लगीं। इससे उत्साहित होकर फुले दंपत्ति ने, अलग-अलग गांव-कस्बों में, ऐसे ही कई स्कूल खोले।

अंग्रेज़ों के समय सती प्रथा पर तो कानूनन रोक लगाई जा चुकी थी, लेकिन बाल विवाह की प्रथा जारी थी और पति की मृत्यु के बाद इस बाल विधवा का जीवन नारकीय बना दिया जाता था। उसके खाने और पहनावे पर भी रोक लगा दी जाती थी और मेले-त्योहारों में भी उसका जाना वर्जित था। वह घर के एक कोने से बाहर सिर्फ़ मंदिर तक जा सकती थी, उसके घूमने-फिरने पर भी प्रतिबंध थे। पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा के बाल काट दिए जाते थे। लेकिन उसका यौन शोषण होना आम बात थी, जिसके लिए भी उसे ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता था। उन दिनों मजदूर नेता और समाज सुधारक नारायण मेघजी लोखंडे ‘दीनबंधु’ के संपादक थे। सावित्रीबाई की प्रेरणा से लोखंडे ने अपनी पत्रिका के माध्यम से विधवाओं के मुंडन के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की। शहर भर के तमाम नाइयों ने विधवाओं का मुंडन करने से इंकार कर दिया। दबाव डाला गया तो उन्होंने हड़ताल कर दी। हड़ताल को सफल बनाने के लिए सवित्रीबाई फुले ने भी बढ़-चढ़कर सहयोग किया। अंग्रेजी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘दि टाइम’ ने नाइयों की उस हड़ताल की खबर अपने एक अंक में प्रकाशित की।

स्कूलों के संचालन के अलावा उन्होंने बाल-विधवा और भ्रूण-हत्या पर भी काम शुरू किया और प्रसूति गृह, विधवा आश्रम और अनाथ बच्चों के लिए शिशु सदन जैसी संस्थाओं का निर्माण और संचालन भी किया। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा प्रारंभ की और 1853 में बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह की स्थापना की, जिसमें विधवाएं अपने बच्चों को जन्म दे सकती थीं और यदि शिशु को अपने साथ न रख सकें तो उन्हें वहां छोड़कर भी जा सकती थीं। विधवा आश्रम, प्रसूति गृह, अनाथ बच्चों के लिए शिशु सदन जैसी संस्थाओं का निर्माण और संचालन – यह उस दौर का एक क्रांतिकारी कदम था। इस अनाथालय की व्यवस्था सावित्रीबाई फुले के जिम्मे थी और बच्चों की परवरिश वह एक मां की तरह करती थीं।

फुले दंपत्ति का ध्यान खेत-खलिहानों में दिन भर काम करने वाले अशिक्षित मजदूरों की ओर भी गया। वर्ष 1855 में दिहाड़ी मजदूरों के लिए उन्होंने रात्रि-पाठशाला भी खोली।

उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजानिक कुएं से पानी नहीं भर सकते थे। 1868 में अंततः उनके लिए फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआं खोल दिया। सन् 1876-77 में पूना नगर अकाल की चपेट में आ गया। दोनों ने विभिन्न 52 स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की।

फुले दंपत्ति को जब विवाह के कई सालों बाद भी संतान नहीं हुई तो उनके परिवार और मित्रों की ओर से दबाव बनाया गया कि जोतीराव दूसरा विवाह कर लें। जब सावित्रीबाई के पिता भी दूसरी शादी करने के लिए उनसे आग्रह करने लगे तो जोतीराव फुले परेशान हो गए। आखिर उन्होंने कहा– “हां, मैं दूसरा विवाह करूंगा, पर मेरी एक शर्त है।”

सबने राहत की सांस ली कि बेटा तैयार तो हुआ।

शर्त क्या है? सब उत्सुक थे। जोतीराव ने कहा– “मैं विवाह इस शर्त पर करूंगा कि उसी समय, उसी मंडप में सावित्रीबाई का भी विवाह किसी और के साथ आप करवा दें। हो सकता है कि दूसरे विवाह से उन्हें मातृत्व का सुख मिले।”

जोतिबा का यह तर्क सुनकर सब खामोश हो गए और यह प्रकरण हमेशा के लिए बंद हो गया।[2]

यह घटना इस बात की ओर भी संकेत करती है कि इतने दशकों पहले, जब बहुविवाह की प्रथा आम थी, जोतीराव जैसी क्रांतिकारी सोच के व्यक्ति हमारे समाज में मौजूद थे।

कोई ताज्जुब नहीं कि भारतीय समाज में बांझ शब्द सिर्फ औरतों के लिए ही गढ़ा गया। जिस स्त्री की संतान न हो वह बांझ है। लेकिन पुरुष के लिए ऐसा कोई शब्द बनाया ही नहीं गया कि जो पुरुष संतान न दे सके, वह क्या है। कह सकते हैं कि नपुंसक शब्द पुरुषों के लिए भी बना है, लेकिन उसका अर्थ बांझ के समानांतर बिल्कुल नहीं है।

जोतीराव ने स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की। उन्होंने नये मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जाने वाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामी सिद्ध करने वाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएं। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों, जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। जोतीराव के मंगलाष्टकों में वधू वर से कहती है– “स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे।” यह आकांक्षा सिर्फ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहने वाली हर स्त्री की थी। उस काल में जब शूद्र-अतिशूद्र और लड़कियों के लिए कहीं आज़ादी की एक सांस लेने की गुंजाइश नहीं थी, जोतीराव ने अपने समय से बहुत आगे के सुधार की बातें कहीं, लिखीं और उन्हें व्यवहार में भी लेकर आए। जोतीराव जैसे साथी के लिए इसीलिए सावित्रीबाई तन-मन से समर्पित थीं।

उन्होंने 1874 में काशीबाई नामक एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे (जिसे समाज के लोग नाजायज कहते थे) को गोद लिया। यशवंतराव फुले नाम से यह बच्चा पढ़-लिखकर डॉक्टर बना और आगे चलकर फुले दंपत्ति का वारिस भी। 28 नवंबर, 1890 को महात्मा जोतीराव फुले के निधन के बाद सावित्रीबाई ने बड़ी मजबूती के साथ इस आंदोलन की जिम्मेदारी संभाली और सासवड, महाराष्ट्र के सत्यशोधक समाज के अधिवेशन में ऐसा भाषण दिया, जिसने दबे-पिछड़े लोगों में आत्मसम्मान की भावना भर दी। सावित्रीबाई का दिया गया वह भाषण उनके प्रखर क्रांतिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है।

कहते हैं कि एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने हर स्तर पर कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और कुरीतियों, अंधश्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर गरीबों-शोषितों के हक में खड़े हुए। किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जा जाकर लड़कियों को पाठशाला में भेज़ने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबंधक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाजों को खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की एक घूंट पानी पीकर प्यास बुझाने की तकलीफ़ देखकर अपने घर के पानी का हौद सभी जातियों के लिए खोल देना – हर काम पति-पत्नी ने डंके की चोट पर किया और इस तरह कुरीतियों, अंधश्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर दलितों-शोषितो के हक में खड़े हुए।

दोनों एकजुट होकर आपसी तालमेल के तहत इतने विराट स्तर पर काम कैसे कर पाए, यह जानने के लिए सावित्रीबाई के अपने पति के नाम लिखे गए पत्रों को पढ़ना बहुत ज़रूरी है। कविताओं के साथ-साथ उनके पत्र भी एक दस्तावेजी संकलन है – सावित्रीबाई फुले द्वारा जोतीराव फुले को लिखे गए पत्र जिनकी की पहली पंक्ति अपने जीवनसाथी के प्रति उनके सम्मान को दर्ज करती है – “सत्यरूप जोतीबा जी को, सावित्री का सविनय प्रणाम।” पूरे पत्र में वृहत्तर समाज की चिंता, सभी समुदायों के प्रति गहरे प्रेम, अन्याय के प्रति विद्रोह, जातिवादी मानसिकता के खिलाफ आक्रोश और समता-आधारित समाज की चाहना है। ये पत्र उनकी चिंतनशील उन्नत वैचारिक चेतना को स्पष्ट करते हैं। पत्रों को पढ़ते हुए यह समझ में आता है कि वे किसी भी मनुष्य के दुख से कितना विचलित होती थीं और उस दुख को दूर करने के लिए वे किस हद तक कुछ भी करने को तैयार हो जाती थीं।

ये पत्र बताते हैं कि फुले दंपत्ति के बीच संवेदना और चेतना के स्तर पर कितनी समानताएं थीं। दोनों के सरोकार और चिंताएं एक थीं। जोतीराव उनके जीवन-साथी होने के साथ उनके शिक्षक और मार्गदर्शक भी थे। दोनों के बीच कितनी आत्मीयता थी, इसकी गहराई इन पत्रों में मिलती है। उनकी संवेदना और सरोकार के केंद्र में “समाज” ही रहा।

सावित्रीबाई के कुल तीन पत्र हैं। ये पत्र मराठी में प्रकाशित “सावित्रीबाई फुले समग्र वाङ्मय” (फारवर्ड प्रेस द्वारा इसका हिंदी अनुवाद ‘सावित्रीनामा : सावित्रीबाई फुले का समग्र साहित्यकर्म’ प्रकाशित है) में संग्रहित हैं। पहला, 10 अक्टूबर, 1856 को नायगांव पेठ खंडाला, सतारा से, दूसरा 29 अगस्त 1868 को और तीसरा, 20 अप्रैल 1877 को ओतूर जुन्नर से लिखा गया।

एक पत्र अपने भाई के बारे में, जो फुले दंपत्ति के काम के हमेशा खिलाफ़ रहा, वे लिखती हैं–

“भाई तुम्हारी सोच संकीर्ण है और ब्राह्मणों की शिक्षा के कारण तुम्हारी बुद्धि कमज़ोर हो गई है। तुम बकरी, गाय को प्यार से सहलाते हो; नागपंचमी को जहरीले नाग को पकड़कर दूध पिलाते हो। महार-मांग भी तो तुम्हारे जैसे इंसान ही हैं, फिर उन्हें अछूत क्यों मानते हो?” ऐसा मैंने उससे पूछा। ब्राह्मण जब अपने पूजा के वस्त्रों में होते हैं तब तुम्हें भी तो अपवित्र मानते हैं; वे तुम्हें भी महार ही मानते हैं। ऐसा क्यों?[3]

यहां एक बेहद दिलचस्प बात उजागर होती है कि एक ओर अपने भाई को बड़े तार्किक अंदाज़ में लताड़ते हुए और अपनी बात को पुरज़ोर अंदाज़ में कहते हुए वे उसे समझाने की कोशिश करती हैं और दूसरी ओर अपने मायके में अपनी बीमारी के समय अपने भाई की तीमारदारी और लगाव की प्रशंसा भी करती हैं। वे जोतिबा को लिखती हैं– “तब अचानक मेरा भाई कहने लगा कि, तुम और तुम्हारे पति बहिष्कृत हो और तुम दोनों मिलकर महार, मांग आदि निम्न जातियों के लिए जो काम करते हो, वह पतित है और हमारे कुल के लिए कलंक है। इसलिए मेरा तुमसे आग्रह है कि तुम दोनों को भट-ब्राह्मणों का कहना मानकर, जाति-रूढ़ि के हिसाब से चलना चाहिए। उसकी बेलगाम और नासमझी वाली बातें सुनकर मां का चेहरा उतर गया। भाई वैसे दयावान है, मगर संकीर्ण विचारों का होने के कारण उसने हम दोनों को दोष देते हुए हमारी निंदा की।”[4]

सावित्रीबाई के तीनों पत्र उनके स्पष्टवादी, इंसानियत और ममता से भरे स्वभाव की बानगी हैं। अपने तीसरे पत्र में वे लिखती हैं– “पत्र लिखने का प्रयोजन यह है कि बीते वर्ष 1876 के बाद अकालरूपी विभीषिका तेज़ी से बढ़ रही है। सब लोग चिंताग्रस्त हो गए हैं। इंसान और जानवर दोनों भुखमरी के कारण दम तोड़ रहे हैं और धरती पर लाशों का ढेर बढ़ता जा रहा है। इंसानों को खाने के लिए न तो अनाज मिल रहा है और न ही जानवरों को चारा-पानी। नतीजतन कई लोग अपना गांव छोड़कर दूसरी जगह चले जा रहे हैं। कई लोग खुद के बच्चों तथा स्वस्थ युवतियों को बेचकर गायब हो रहे हैं।”[5]

इस अकाल के बारे में जिस तकलीफ़ के साथ सावित्रीबाई ने लिखा है वह उनके सामाजिक सरोकारों को बताता है। वे यह भी लिखती हैं कि “सत्यशोधक समाज” अकाल पीड़ितों की मदद कर रहा है।

1890 में जब जोतीराव फुले की मृत्यु हुई तो सावित्रीबाई ने तयशुदा सामाजिक अनुष्ठानों के विपरीत जाकर अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि देकर परंपरावादी समाज के सामने एक नई मिसाल पेश की।

1896 में एक बार फिर महाराष्ट्र अकाल की चपेट में आ गया। सावित्रीबाई सत्यशोधक समाज के अपने कार्यकर्ताओं के साथ गरीबों और जरूरतमंदों की मदद में जुट गईं। अकाल के साथ प्लेग महामारी भी फैल रही थी। सावित्रीबाई ने अपने दत्तक पुत्र यशवंत को, जो सेना में डॉक्टर था, रोगियों की देखभाल के लिए बुला लिया। लोग अकालग्रस्त इलाकों को छोड़ रहे थे और परिवार के साथ, सुरक्षित स्थानों पर जा रहे थे, यह जानते हुए भी कि प्लेग बहुत संक्रामक रोग है, सावित्रीबाई मरीजों की तीमारदारी में जुटी थीं। जैसे ही उन्हें पता चला कि मुंधावा गांव के बाहर महार बस्ती में पांडुरंग बाबाजी गायकवाड़ का बेटा भी महामारी से ग्रस्त है, वे महार बस्ती में पहुंच गईं। वहां जाकर देखा कि बीमार लड़के को छूने के लिए कोई तैयार नहीं था। सावित्रीबाई ने किसी की नहीं सुनी और उस लड़के को अपनी पीठ पर लादकर अस्पताल तक ले गईं। लगातार प्लेग के मरीजों के साथ बने रहने का खामियाज़ा सावित्रीबाई ने अपने जीवन से चुकाया। आखिरकार उन्हें भी इस संक्रामक रोग ने घेर लिया और 10 मार्च, 1897 को उनका निधन हो गया।

भारत में उस समय अनेक पुरुष समाज सुधार के कार्यक्रमों में लगे हुए थे, लेकिन जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने एकजुट होकर स्त्री अधिकारों और स्त्री शिक्षा के लिए काम किया। उनका एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन आदर्श दाम्पत्य की मिसाल बनकर चमकता है। सावित्रीबाई फुले ने अपने पति जोतीराव फुले के समाज सुधार के काम में उनका पूरी तरह सहयोग देते हुए एक परछाईं की तरह पूरे लगन और समर्पण के साथ काम की शुरुआत की, लेकिन इस परछाई ने आगे चलकर अपना एक स्वतंत्र आकार गढ़ लिया।

संदर्भ ग्रंथ –

  1. साध्वी सावित्रीबाई फुले, फुलवंता झाेडगे, चिनार पब्लिशर्स, 2013
  2. सावित्रीबाई फुले समग्र वांग्मय, डॉ. एम.जी. माली, महाराष्ट्र राज्य साहित्य-संस्कृति मंडल
  3. पुनर्भेट सावित्रीबाईंची, डॉ. प्रल्हाद लुलेकर
  4. सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, संपादक रजनी तिलक, दी मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन
  5. सावित्रीनामा, अनुवादक उज्ज्वला म्हात्रे, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली

[1] लेखिका सुधा अरोड़ा द्वारा अनुवादित
[2] डॉ. प्रल्हाद लुलेकर की किताब ‘पुनर्भेंट सावित्रीबाईची’ से उद्धृत
[3] वही, पृष्ठ 83-84
[4] वही, पृष्ठ 83
[5] वही, पृष्ठ 88

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