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नवरात्रि अनुष्ठान का शास्त्र -सम्मत विधान 

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      प्रखर अरोड़ा 

      नवरात्रि साधना को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक उन दिनों की जाने वाली जप संख्या एवं विधान प्रक्रिया। दूसरे आहार−विहार सम्बन्धी प्रतिबन्धों की तपश्चर्या। दोनों को मिलाकर ही अनुष्ठान पुरश्चरणों की विशेष साधना सम्पन्न होती है।

       जप संख्या के बारे में विधान यह है कि 9 दिनों में 24 हजार गायत्री मन्त्रों का जप पूरा होना चाहिए। चूँकि उसमें संख्या विधान मुख्य है इसलिए गणना के लिए माला का उपयोग आवश्यक है। सामान्य उपासना में घड़ी की सहायता से 45 मिनट का पता चल सकता है, पर जप में गति की न्यूनाधिकता रहने से संख्या की जानकारी बिना माला के नहीं हो सकती। अस्तु नवरात्रि साधना में गणना की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए माला का उपयोग आवश्यक माना गया है।

      आजकल हर बात में नकलीपन की भरमार है मालाएँ भी बाजार में नकली लकड़ी की बिकती हैं अच्छा यह है कि उसमें छल-कपट न हो, जिस चीज की है उसी की जानी और बताई जाय। कुछ के बदले में कुछ मिलने का भ्रम न रहे। तुलसी, चन्दन और रुद्राक्ष की मालाएँ अधिक पवित्र मानी गई हैं। इनमें से प्रायः चन्दन की ही आसानी से असली मिल सकती है। 

      गायत्री तप में तुलसी की माला को प्रधान माना गया है, पर वह अपने यहाँ बोई हुई सूखी लकड़ी की हो और अपने सामने बने तो ही कुछ विश्वास की बात हो सकती है। बाजार में अरहर की लकड़ी ही तुलसी के नाम पर हर दिन टनों की तादाद में बनती और बिकती देखी जाती है। हमें चन्दन की माला ही आसानी से मिल सकेगी यों उससे भी सस्ती लकड़ी पर चन्दन का सेन्ट चुपड़ कर धोखे बाजी खूब चलती है। सावधानी बरतने पर यह समस्या आसानी से हल हो सकती है और असली चन्दन की माला मिल सकती है।

      एक दिन आरम्भिक प्रयोग के रूप में एक घण्टा जप करके यह देख लेना चाहिए कि अपनी जप गति कितनी है। साधारण तथा एक घण्टे में दस से लेकर बारह माला तक की जप संख्या ठीक मानी जाती है। किन्हीं की मन्द हो तो बढ़ानी चाहिए और तेज हो तो घटानी चाहिए। फिर भी अन्तर तो रहेगा ही। सब की चाल एक जैसी नहीं हो सकती। 

      अनुष्ठान में 27 मालाएँ प्रति दिन जपनी पड़ती हैं। देखा जाय कि अपनी गति से इतना जप करने में कितना समय लगेगा। यह हिसाब लग जाने पर यह सोचना होगा कि प्रातः इतना समय मिलता है या नहीं। उसी अवधि में यह विधान पूरा हो सके प्रयत्न ऐसा ही करना चाहिए। पर यदि अन्य अनिवार्य कार्य करने हैं, तो समय का विभाजन प्रातः और सायं दो बार में किया जा सकता है। 

      उन दिनों प्रायः 6 बजे सूर्योदय होता है। दो घण्टा पूर्व अर्थात् 4 बजे से जप आरम्भ किया जा सकता है सूर्योदय से तीन घण्टे बाद तक अर्थात् 9 बजे तक यह समाप्त हो जाना चाहिए। इन पाँच घण्टों के भीतर ही अपने जप में जो 2॥−3 घण्टे लगेंगे वे पूरे हो जाने चाहिए। यदि प्रातः पर्याप्त समय न हो तो सायंकाल सूर्यास्त से 1 घण्टा पहले से लेकर 2 घण्टे बाद तक अर्थात् 5 से 8 तक के तीन घण्टों में सबेरे का शेष जप पूरा कर लेना चाहिए।

       प्रातः 9 बजे के बाद और रात्रि को 8 के बाद की नवरात्रि तपश्चर्या निषिद्ध है। यों सामान्य साधना तो कभी भी हो सकती है और मौन मानसिक जप में तो समय, स्थान, संख्या, स्नान आदि का भी बन्धन नहीं है। उसे किसी भी स्थिति में किया जा सकता है। पर अनुष्ठान के बारे में वैसा नहीं है। उसके लिए विशेष नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना पड़ता है।

      उपासना की विधि सामान्य नियमों के अनुरूप ही है। आत्म शुद्धि और देव पूजन के बाद जप आरम्भ हो जाता है। आरम्भ में सोहम् और अन्त में खेचरी मुद्रा का नियम इसमें भी निवाहना पड़ता है। अन्तर इतना ही पड़ता है कि नित्य आधा घण्टा जप करना पड़ता था, वह अब बढ़ कर प्रायः ढाई−तीन घण्टे हो जाता है। 

     जप के साथ सविता देवता के प्रकाश का अपने में प्रवेश होते पूर्ववत् अनुभव किया जायगा। सूर्य अर्घ्य आदि अन्य सब बातें उसी प्रकार चलती हैं, जैसी दैनिक साधना में। हर दिन जो आधा घण्टा जप करना पड़ता था वह अलग से नहीं करना होता वरन् नहीं 27 मालाओं में सम्मिलित हो जाता है।

      अगरबत्ती के स्थान पर यदि इन दिनों जप के तीन घण्टे घृतदीप जलाया जा सके तो अधिक उत्तम है। धृत का शुद्ध होना आवश्यक है। मिलावट के प्रचलित अन्धेर में यदि शुद्धता पर पूर्ण विश्वास हो तो ही बाहर से लिया जाय अन्यथा दूध लेकर अपने घर पर भी निकालना चाहिए। 

     तीन घण्टे नित्य नौ दिन दीपक जले तो उसमें प्रायः दो ढाई सौ ग्राम घी लग जाता है। इतने घी का प्रबंध बने तो दीपक की बात सोचनी चाहिए अन्यथा अगरबत्ती, धूपबत्ती आदि से काम चलाना चाहिए। इनमें भी शुद्धता का ध्यान रखा जाय। सम्भव हो तो यह वस्तुएँ भी घर पर बना ली जाए।

      नवरात्रि अनुष्ठान नर−नारी कर सकते हैं। इसमें समय, स्थान एवं संख्या की नियमितता रखी जाती है इसलिए उस सतर्कता और अनुशासन के कारण शक्ति भी अधिक उत्पन्न होती है। किसी भी कार्य में ढील−पोल शिथिलता अनियमितता और अस्त−व्यस्तता बरती जाय उसी में उसी अनुपात से सफलता संदिग्ध होती चली जायगी। 

      उपासना के सम्बन्ध में भी यह तथ्य काम करता है। उदास मन से ज्यों−त्यों− जब, तब वह बेगार भुगत दी जाय तो उसके सत्परिणाम भी स्वल्प ही होंगे, पर यदि उसमें चुस्ती, फुर्ती की व्यवस्था और तत्परता बरती जायगी तो लाभ कई गुना दिखाई पड़ेगा। अनुष्ठान में सामान्य जप की प्रक्रिया को अधिक कठोर और अधिक क्रमबद्ध कर दिया जाता है अस्तु उसकी सुखद प्रतिक्रिया भी अत्यधिक होती है।

      प्रयत्न यह होना चाहिए कि पूरे नौ दिन यह विशेष जप संख्या ठीक प्रकार कार्यान्वित होती रहे। उसमें व्यवधान कम से कम पड़े। फिर भी कुछ आकस्मिक एवं अनिवार्य कारण ऐसे आ सकते हैं जिसमें व्यवस्था बिगड़ जाय और उपासना अधूरी छोड़नी पड़े। ऐसी दशा में यह किया जाना चाहिए कि बीच में जितने दिन बन्द रखना पड़े उसकी पूर्ति आगे चलकर कर ली जाय इस व्यवधान की क्षति पूर्ति के लिए एक दिन उपासना अधिक की जाय जैसे चार दिन अनुष्ठान चलाने के बाद किसी आकस्मिक कार्यवश बाहर जाना पड़ा। तब शेष पाँच दिन उस कार्य से वापस लौटने पर पूरे करने चाहिए। 

      इसमें एक दिन व्यवधान का अधिक बढ़ा देना चाहिए अर्थात् पाँच दिन की अपेक्षा छह दिन में उस अनुष्ठान को पूर्ण माना जाय। स्त्रियों का मासिक धर्म यदि बीच में आ जाय तो चार दिन या शुद्ध न होने पर अधिक दिन तक रोका जाय और उसकी पूर्ति शुद्ध होने के बाद करनी जाय। एक दिन अधिक करना इस दशा में भी आवश्यक है।

      अनुष्ठान में पालन करने के लिए दो नियम अनिवार्य हैं। शेष तीन ऐसे हैं जो यथा स्थिति एवं यथा सम्भव किये जा सकते हैं। इन पाँचों नियमों का पालन करना पंच तप कहलाता है, इनके पालन से अनुष्ठान की शक्ति असाधारण रूप से बढ़ जाती है।

      इन दो दिन ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। शरीर और मन में अनुष्ठान के कारण जो विशेष उभार आते हैं उनके कारण कामुकता की प्रवृत्ति उभरती है। इसे रोका न जाय तो दूध में उफान आने पर उसके पात्र से बाहर निकल जाने के कारण घाटा ही पड़ेगा। 

    अस्तु मनःस्थिति इस सम्बन्ध में मजबूत बना लेनी चाहिए। अच्छा तो यह है कि रात्रि को विपरीत लिंग के साथ न सोया जाय। दिनचर्या में ऐसी व्यस्तता और ऐसी परिस्थिति रखी जाय जिससे न शारीरिक और न मानसिक कामुकता उभरने का अवसर आये। 

      यदि मनोविकार उभरें भी तो उनका शमन न करना चाहिए और वैसी परिस्थिति नहीं आने देनी चाहिए। यदि वह नियम न सधा, ब्रह्मचर्य खण्डित हुआ तो वह अनुष्ठान ही अधूरा माना जाय। करना हो तो फिर नये सिरे से किया जाय। यहाँ यह स्पष्ट है कि स्वप्नदोष पर अपना कुछ नियन्त्रण न होने से उसका कोई दोष नहीं माना जाता। उसके प्रायश्चित्य में दस माला अधिक जप कर लेना चाहिए।

      दूसरा अनिवार्य नियम है उपवास। जिनके लिए सम्भव हो वे नौ दिन फल, दूध पर रहें। ऐसे उपवासों में पेट पर दबाव घट जाने से प्रायः दस्त साफ नहीं हो पाता और पेट भारी रहने लगता है इसके लिए एनीमा अथवा त्रिफला−ईसबगोल की भूसी−कैस्टोफीन जैसे कोई हलके विरेचन लिए जा सकते हैं।

      महंगाई अथवा दूसरे कारणों से जिनके लिए वह सम्भव न हो वे शाकाहार−छाछ आदि पर रह सकते हैं। अच्छा तो यही हैं कि एक बार भोजन और बीच−बीच में कुछ पेय पदार्थ ले लिए जायँ, पर वैसा न बन पड़े तो दो बार भी शाकाहार, दही आदि लिया जा सकता है।

      जिनसे इतना भी न बन पड़े वे अन्नाहार पर भी रह सकते हैं, पर नमक और शक्कर छोड़कर अस्वाद व्रत का पालन उन्हें भी करना चाहिए। भोजन में अनेक वस्तुएँ न लेकर दो ही वस्तुएँ ली जाएँ। जैसे−रोटी, दाल। रोटी−शाक, चावल−दाल, दलिया, दही आदि। खाद्य−पदार्थों की संख्या थाली में दो से अधिक नहीं दिखाई पड़नी चाहिए। 

    यह अन्नाहार एक बार अथवा स्थिति के अनुरूप दो बार भी लिया जा सकता है। पेय पदार्थ कई बार लेने की छूट है। पर वे भी नमक, शक्कर रहित होने चाहिएं।

      जिनसे उपवास और ब्रह्मचर्य न बन पड़े वे अपनी जप संख्या नवरात्रि में बढ़ा सकते हैं इसका भी अतिरिक्त लाभ है, पर इन दो अनिवार्य नियमों का पालन न कर सकने के कारण उसे अनुष्ठान की संज्ञा न दी जा सकेगी और अनुशासन साधना जितने सत्परिणाम की अपेक्षा भी नहीं रहेगी। फिर भी जितना कुछ विशेष साधन−नियम पालन इस नवरात्रि पर्व पर बन पड़े उत्तम ही है।

      तीन सामान्य नियम हैं:- 

[1] कोमल शैया का त्याग 

[2] अपनी शारीरिक सेवाएँ अपने हाथों करना 

[3] हिंसा द्रव्यों का त्याग। इन नौ दिनों में भूमि या तख्त पर सोना तप तितीक्षा के कष्ट साध्य जीवन की एक प्रक्रिया है। इसका बन पड़ना कुछ विशेष कठिन नहीं है। चारपाई या पलंग छोड़कर जमीन पर या तख्त पर बिस्तर लगाकर सो जाना थोड़ा असुविधाजनक भले ही लगे, पर सोने का प्रयोजन भली प्रकार पूरा हो जाता है।

      कपड़े धोना, हजामत बनाना, तेल मालिश, जूता, पालिश, जैसे छोटे−बड़े अनेक शारीरिक कार्यों के लिए दूसरों की सेवा लेनी पड़ती है। अच्छा हो कि यह सब कार्य भी जितने सम्भव हों अपने हाथ किये जायं। बाजार का बना कोई खाद्य पदार्थ न लिया जाय। अन्नाहार पर रहना है तो वह अपने हाथ का अथवा पत्नी, माता जैसे सीधे शरीर सम्बन्धियों के हाथ का ही बना लेना चाहिए नौकर की सहायता इसमें जितनी कम ली जाय उतना उत्तम है।

     रिक्शे, ताँगे की अपेक्षा यदि साइकिल, स्कूटर, बस, रेल आदि की सवारी से काम चल सके तो अच्छा है। कपड़े अपने हाथ से धोना− हजामत अपने हाथ बनाना कुछ बहुत कठिन नहीं है। प्रयत्न यही होना चाहिए कि जहाँ तक हो सके अपनी शरीर सेवा अपने हाथों ही सम्पन्न की जाय।

      तीसरा नियम है हिंसा द्रव्यों का त्याग। इन दिनों 99 प्रतिशत चमड़ा पशुओं की हत्या करके ही प्राप्त किया जाता हैं। वे पशु माँस के लिए ही नहीं चमड़े की दृष्टि से भी मारे जाते हैं। माँस और चमड़े का उपयोग देखने में भिन्न लगता है, पर परिणाम की दृष्टि से दोनों ही हिंसा के आधार हैं। इसमें हत्या करने वाले की तरह उपयोग करने वाले को भी पाप लगता है। 

    अस्तु चमड़े के जूते सदा के लिए छोड़ सकें तो उत्तम है अन्यथा अनुष्ठान, काल में तो उनका परित्याग करके रबड़, प्लास्टिक कपड़े आदि के जूते चप्पलों से काम चलाना चाहिए।

      माँस, अण्डा जैसे हिंसा द्रव्यों का इन दिनों निरोध ही रहता है। आज−कल एलोपैथी दवाएँ भी ऐसी अनेक है जिनमें जीवित प्राणियों का सत मिलाया जाता है। इनसे बचना चाहिए। रेशम, कस्तूरी, मृगचर्म आदि प्रायः पूजा प्रयोजनों में उपयोग किया जाता है, ये पदार्थ हिंसा से प्राप्त होने के कारण अग्राह्य ही माने जाने चाहिए। 

    शहद यदि वैज्ञानिक विधि से निकाला गया है तो ठीक अन्यथा अण्डे बच्चे निचोड़ डालने और छत्ता तोड़ फेंकने की पुरानी पद्धति से प्राप्त किया गया शहद भी त्याग समझा जाना चाहिए।

      न केवल जप उपासना के लिए ही समय की पाबन्दी रहे वरन् इन दिनों पूरी दिनचर्या ही नियमबद्ध रहे। सोने, खाने नहाने आदि सभी कृत्यों में यथासम्भव अधिक से अधिक समय निर्धारण और उसका पक्का पालन करना आवश्यक समझा जाय। अनुशासित शरीर और मन की अपनी विशेषता होती है और उससे शक्ति उत्पादन से लेकर सफलता की दिशा में द्रुत गति से बढ़ने का लाभ मिलता है। अनुष्ठानों की सफलता में भी यही तथ्य काम करता है।

      अनुष्ठान के दिनों में मनोविकारों और चरित्र दोषों पर कठोर दृष्टि रखी जाय और अवाँछनीय उभारों को निरस्त करने के लिए अधिकाधिक प्रयत्नशील रहा जाय। असत्य भाषण, क्रोध, छल, कटुवचन अशिष्ट आचरण, चोरी, चालाकी, जैसे अवाँछनीय आचरणों से बचा जाना चाहिए, ईर्ष्या, द्वेष, कामुकता, प्रतिशोध जैसी दुर्भावनाओं से मन को जितना बचाया जा सके उतना अच्छा है। जिनसे बन पड़े वे अवकाश लेकर ऐसे वातावरण में रह सकते हैं जहाँ इस प्रकार की अवाँछनीयताओं का असर ही न आय।

     जिनके लिए ऐसा सम्भव नहीं, वे सामान्य जीवन यापन करते हुए अधिक से अधिक सदाचरण अपनाने के लिए सचेष्ट बने रहें।

      नौ दिन की साधना पूरी हो जाने पर दसवें दिन अनुष्ठान की पूर्णाहुति समझी जानी चाहिए इन दिनों (1) हवन (2) असहाय को दान (3) कन्याभोज के तीन उपचार पूरे करने चाहिए।

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