एक दिहाड़ी मजदूर, जो कभी शराब के नशे में धुत रहा करता था; आज किताबों के नशे में डूबा रहता है। जिसे कभी प्रकाशकों ने ये कह कर वापस कर दिया था कि भला एक मजदूर कैसे किताब लिख सकता है? उन्होंने आज 11 किताबें लिख दी हैं।
पहली बार ठेकदार से दो रुपए माँगकर कटक शहर के पुस्तक मेले में पहुँचे थे; सोचा कि देखता हूँ यहाँ क्या मिलता है, लेकिन दो रुपए में नई किताबें तो मिली नहीं, इसलिए पुरानी किताबें ही खरीद ली और उसी दिन से राजमिस्त्री के साथ लेखक बनने की शुरूआत हुई।
ओडिशा के खोर्धा ज़िले के अंडा गाँव में रहते हैं 54 साल के लेखक शंकर साहू, जिनके पता पूछते हुए लोग उनके घर पहुँच जाते हैं, लेकिन आज से कई साल पहले शंकर साहू किताबों के नशे में नहीं बल्कि शराब के नशे में डूबे रहते थे।
तब शंकर साहू दिहाड़ी मजदूरी किया करते थे; अपने पुराने दौर को याद करते हुए शंकर साहू गाँव कनेक्शन से कहते हैं, “पढ़ाई के साथ-साथ में काम करता था, क्योंकि घर में पैसे की बहुत कमी थी। अपने खुद के खर्चे के लिए काम करता था – कपड़े, कॉपी-किताब, कुछ भी। पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, मैं और पैसे नहीं जुटा पा रहा था। हम चार भाई थे, पापा कितने पैसे देते सबको?”
“एक बार पापा-मम्मी बात कर रहे थे कि पैसे नहीं हैं और बेटे को कैसे पढ़ाएं, खर्चा तो बढ़ता जा रहा है। जब मैंने यह सुना, तो मैंने सोच लिया कि मैं और नहीं पढ़ूंगा और अगले दिन जाकर स्कूल में टीचर को मना कर दिया। इस तरह मैं केवल 8वीं कक्षा तक पढ़ सका। आगे पढ़ाई नहीं कर पाया, पर मुझे हमेशा से पढ़ाई में बहुत दिलचस्पी थी, खासकर इतिहास में। मेरे पास केवल एक जोड़ी कपड़े हुआ करते थे, अगर वह फट जाते तो सिलकर पहनता था। किताबें बाँधकर रख दीं और पिता जी के साथ काम करने लगा, “आगे कहते हैं।

स्कूल तो छूट गया लेकिन उनका इतिहास प्रेम नहीं छूट पाया, जब भी समय मिलता पढ़ने बैठ जाते, शंकर आगे बताते हैं, “एक दिन मेरी साइकिल खराब हो गई, तो उसे बाजार में सही करवाने गया। वहाँ देखा कि बुक फेयर लगा हुआ है। साइकिल पार्ट्स क्या खरीदता, मैं पुस्तक मेले में चला गया और वहाँ पुस्तकें खरीदीं। जितने पैसे साथ लाया था, सब मैंने किताबों पर खर्च कर दिए। वहाँ मुझे एक किताब मिली जिसका नाम था ‘भांजा गढ़ इतिहास’, जिसे डॉ. प्रदीप कुमार पटनायक ने लिखा था। उसी किताब में उनका नंबर था। मैं हमेशा लेखकों के नंबर ढूंढता था ताकि उनसे बात कर सकूँ और जान सकूँ कि उन्होंने कौन-कौन सी किताबें पढ़कर यह किताब लिखी है। मैंने उन्हें कॉल किया, और वे अपने व्यस्त जीवन से समय निकालकर मुझसे बात करते थे।”
शंकर आगे कहते हैं, “प्रदीप सर मुझसे कहते थे कि किताबें इकट्ठा करने से क्या फायदा, कुछ लिखना शुरू करो। मैं कहता था कि मैं कैसे लिखूंगा। उन्होंने मेरी पहली किताब का करेक्शन किया। तब मैंने लिखना शुरू किया। मेरे पास जितना था (किताब में से पढ़ के), उसी में से लिखा और लाइब्रेरी में जाकर पढ़कर भी लिखा। मुझे इस किताब को पूरा करने में पाँच साल लगे, जिसका नाम था ‘ओडिशा रा प्राचीन राज्य ओ राज्यवंशाबली’। ऐसे ही मैंने शराब पीना छोड़ दिया, जैसे मैंने शराब छोड़ी, वैसे ही मेरी कलम ‘दुरु-दुरु’ (तेजी से) चलने लगी। मैं अपनी झोपड़ी में बैठकर लिखता रहता था। मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं घर बना सकूँ। आज भी मैं झोपड़ी में रहता हूँ, लेकिन लिखने के लिए एक अलग कमरा है, जहाँ मेरी लगभग 1000 से अधिक किताबें रखी हैं। शाम को बच्चे आते हैं कभी-कभी पढ़ने के लिए। मेरे पास किताबें रखने की जगह नहीं थी, तो मैंने इन्हें ‘टाइगर बिस्कुट’ के कार्टन में रखा है।”
वो अब तक 11 किताबें लिख चुके हैं, और अभी एक और किताब पूरी करने के कगार पर हैं, जो ‘पाइका विद्रोह’ पर आधारित है। कई प्रोफेसरों को उन्होंने गलत साबित किया कि पाइका विद्रोह 1700 में नहीं, बल्कि 1800 में ओडिशा में शुरू हुआ था । शंकर कहते हैं कि उनकी किताब दूसरों से अलग क्यों है – “मैंने एक ही किताब में सारी जानकारी लिख दी है, जो पीएचडी छात्रों के लिए फायदेमंद है। कम पैसों में एक छात्र बहुत कुछ सीख सकता है इस किताब से।”

शंकर कहते हैं, “डॉ. प्रदीप ने मेरी किताब को दो महीने लगाकर सही किया और एक पब्लिशर भी ढूंढ लिया। कई पब्लिशरों ने मुझे यह कहकर लौटा दिया कि ‘तुम एक राजमिस्त्री हो, तुम कैसे लिख सकते हो?’ तब मैं कहता था कि ‘हाँ, मैं राजमिस्त्री हूँ और लेखक भी हूँ। लेकिन तब चंडी पुस्तकालय पब्लिशर ने मेरी किताब को पब्लिश किया। इस किताब का उद्घाटन बेरहामपुर में हुआ।”
खुश होकर शंकर अपने बुक लॉन्चिंग के बारे में बताते हुए कहते हैं , “वहाँ इतिहास के कई प्रोफेसर मौजूद थे, और सब मेरे आने का इंतजार कर रहे थे। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कोई मंत्री आ रहा हो!” अब तक करीब 2000 किताबें बिक चुकी हैं, और शंकर का सपना है कि वह 100 किताबें लिखें।
डॉ. प्रदीप हर कदम पर शंकर का मार्गदर्शन और समर्थन करते रहे।
डॉ. प्रदीप कुमार पटनायक, गाँव कनेक्शन से कहते हैं, “जब शंकर ने मुझे कॉल किया, तो मैं उनसे बात करता था। बहुत दिनों बाद मैंने उनका नाम पूछा। शंकर बोल भी नहीं रहे थे। जब मैंने उन्हें लिखने के लिए कहा, तो मैंने कहा कि मैं उनकी किताब को सही कर दूँगा।”
‘मदुआ रु लेखक’ (शराबी से अब मैं लेखक हूँ)। यह उनके लिए सबसे बड़ी खुशी है कि आज उन्हें पूरा ओडिशा पहचानता है। पहले, जब घरवाले और पड़ोसी उन्हें पागल समझते थे, आज वे उनका सम्मान करते हैं।
शंकर की लाइब्रेरी में आने के लिए, वे कहते हैं, “शाम को, जब मैं काम खत्म कर लौटता हूँ, तब आएं। कभी-कभी ज्यादा काम कर लेने से न लिखने का मन करता है, न पढ़ने का।”
भाग्य भट जो शंकर के लाइब्रेरी में आते रहती है, 9वीं कक्षा के छात्रा हैं, गॉंव कनेक्शन से कहते हैं, “मुझे या मेरे दोस्तों को अगर कुछ भी इतिहास के बारे में जानना हो तो हम सब शंकर सर के घर में आते हैं और यहाँ हमें उस विषय के बारे में पता चल जाता है। शाम में आते या तो जब स्कूल की छुट्टी रहती है तब आते हैं।”
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