विवेक मेहता
निर्भया की घटना के बाद से राजा ज्यादा चौकन्ने हो गए। उनका चौकन्नापन बलात्कार रोकने के लिए नहीं था। अपनी कुर्सी बचाने के लिए था।
नीति स्पष्ट थी जनता को आक्रोशित मत होने दो। यदि फिर भी हो जाए तो येन-केन-प्रकारेण उनके आक्रोश के उबाल को ठंडा किया जाए। उबाल ठंडा करने के लिए राजा साम-दाम-दंड-भेद सब काम में लाता।
कभी कानून के रखवाले से कानून को ताक में रखवा कर हत्या भी करवा देता। वैसे यह उसका अंतिम अस्त्र होता। पहला तो लॉलीपॉप थमना ही होता।
स्कूल की छुट्टी हो गई थी। सात साल की बच्ची घर जाने के लिए घर वालों का इंतजार कर रही थी। एक व्यक्ति आया लड्डू खिलाने के बहाने उसे फुसलाया। दूर झाड़ियां में ले गया। वहां उसका दूसरा साथी भी आ गया। दरिंदों ने उसे नोचा-खसोटा फिर गला रेत कर झाड़ियां में फेंक कर भाग गए। घर वालों ने बच्ची को खोजा। थोड़ी खोजबीन के बाद मृत जैसी अवस्था में बच्ची मिली।
मामला पुलिस के पास पहुंचा। जैसा कि होता है पुलिस ने लीपा पोती कर मामले को ढकना चाहा। छोटी बच्ची का मामला था शायद इसलिए लोगों की भावनाएं उबाल मारने लगी। भीड़ का आक्रोश बढ़ने लगा।
लोगों के आक्रोश से इंद्रासन डोला या नहीं परंतु राजा की कुर्सी डोलने लगी। कुर्सी के डोलने से राजा बेचैन हो उठा। पुलिस पर दबाव बढ़ाया। और खुद बच्ची के मामा के अवतार में अवतरित हो गया। वादों का पिटारा खोल दिया- बच्ची की पढ़ाई का आजीवन खर्च सरकार संभालेगी। बच्ची वीरता के लिए(?)पुरुस्कृत होगी।
जैसे दूध के उबाल पर ठंडे पानी के छींटें गिरते हैं वैसे ही इन वादों के छींटों से आक्रोश का उबाल थम गया। कुर्सी डोलना बंद हो गई। राजा को चैन मिला।
समय बीता। स्कूल वालों ने बच्ची के घर वालों को पढ़ाई के खर्चे का लंबा बिल थमा दिया।
राजा ने जो लॉलीपॉप थमाया था वह समाप्त हो गया था।
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