विवेक मेहता
अनुभव बहुत कुछ सिखा देता है इसलिए अब चुनाव की ड्यूटी से बचने के लिए उसने भाग दौड़ करना बंद कर दिया था। उन दो-तीन दिनों के लिए वह पूरी तरीके से अपने आप को भाग्य के भरोसे, भगवान को याद करते हुए छोड़ देता था।
इस बार दूसरे जिले के सदूर गांव में उसकी ड्यूटी लगी। अस्त-व्यस्त स्कूल की बिल्डिंग। शौचालय का नीचे से टूटा खुला दरवाजा। खुले में नहाने के लिए गांव का प्रधान बाल्टी मगे की व्यवस्था कर गया था। साथियों के साथ रात के अंधेरे में मोबाइल की टॉर्च के सहारे तैयार हो गया। दिन तनाव भरा गुजरेगा, मालूम था। ग्रीनसील, एड्रेसटेग, 20-25 लिफाफे,अलोप्य शाही, मशीनों का कनेक्शन, मोक पोल जैसे थोड़े समय में कई काम। फिर भीड़ और मगजमारी।
सवेरे कुछ समय बाद ही नशे में धुत्त, उज्जड़ सा आदमी आ गया। किसी दल का होगा। दूसरी पार्टी के प्रतिनिधियों को गाली गलौज करते हुए बाहर कर दिया। उसके आते ही बाहर खड़ा पुलिस वाला भी गायब हो गया। फिर बोला- ‘… नेताजी का गांव है। सरकार में उनकी चलती है। सब वोट उनको ही जाएंगे। अडंगा लगाओगे तो जीना मुश्किल हो जाएगा। हमें मालूम है तुम कहां नौकरी करते हो। कहां रहते हो।’
उसे याद आ गया पिछले चुनाव में बूथ में मंत्री जी को आचार संहिता विरुद्ध काम करने के लिए टोका था तो उन्होंने फोन पर उससे उसका विभाग और नौकरी का स्थान जानने की कोशिश करते हुए धमकाया था। उसने जोनल और आर.ओ. को इस दुर्घटना के बारे में बताया था। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए थे। यह तो उससे भी आगे के थे। जानकारी से लैस।
दूसरे साथियों ने हथियार डाल दिए। उसे भी समझाया, नौकरी है तो उसकी पहचान है। झमेला किया तो घर वाले भी नहीं पूछेंगे। क्या करता? उसने रीढ़ की हड्डी को निकाल कर फोल्ड किया और दिमाग के किसी कोने में रख दिया। ऊपरवाले लोग भी जब यही करते हैं तो उस अदने से प्राणी की क्या औकात!
उसके बूथ पर 83% वोटिंग हो गई। रजिस्टर में वोटिंग लिस्ट में दिए गए नाम और आधार कार्ड नंबर लिख लिए गए। वोटिंग और भी हो जाती यदि वह वहां पुनः वोटिंग का डर नहीं दिखलाता तो।
परिणाम आया। टफ फाइट थी। नेताजी उससे भी कम वोटो से जीते, जितने उसकी बूथ पर गिरे थे। सरकार उनकी पार्टी की ही बनी। कुछ कम पड़ जाते तो पार्टी को करोड़ों में खरीदना पड़ते। वे मंत्री बन गए।
उसके सहयोग की उन्हें क्या याद होती। और वह जतलाता भी कैसे! दुर्भाग्य था।
मगर किसका-उनका, जनतंत्र का, देश का?