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लघुकथा -फोबिया

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                                       – विवेक मेहता 

         राजनीति के मंच से कविता का पाठ करते हुए वे नेता बन गए। शब्दों से खिलवाड़ और शब्दों की प्रस्तुति उनकी राजनीति को वजनदार बना रही थी। इस तरह उनका ऊपर उठने जाना, उनके मन में फिर से नीचे न गिर जाने के फोबिया को जन्म दे चुका था। अब न वे राजनीति में, न साहित्य में अपने किसी नजदीकी को नजदीक आता देखना पसंद करते थे। कोई पास आता लगता तो वे उसे नीचे गिरने का प्रयास करने लगत।

        चुनाव जो ना कराए वह कम। चुनाव के वक्त तहसील के नेता कवि को अपनी जरूरत के चलते बाप बनाना पड़ा। एक अच्छे गीतकार के रूप में उसकी पतंग नई ऊंचाइयां छूएगी अगर वे डोर थाम कर रखेंगे का लॉलीपॉप उसे थमाया। नाम, ऊंचाई की चाह में छोटे भैया नेता ने चुनाव में अपना खून पसीना एक कर दिय। 

       उनके चुनाव जीतने के बाद छोटे भैया नेता उन्हें याद दिलाता रहा। अपनी डोर उन्हें थमाने का प्रयास कराता रहा। पर वह थे कि डोर थामने को तैयार नहीं हो रहे थे। आश्वासन पर आश्वासन दे रहे थे। कोई और रास्ता ना देख छोटे भैया एक दिन उनकी कोठी पर जा धमका। उन्होंने पूछा- ‘कैसे आना हु?’ 

    ‘कविताओं की रिकॉर्डिंग हो जाएगी यदि आप अनुशंसा कर दे तो।’ 

    वे उठे खिड़की के पास गए। नेताजी को बुलाया। बाहर देखने की कहा और उनकी गर्दन थाम कर चेहरा टीवी टावर की ओर मोड़ दिया। बोले- ‘वह बिल्डिंग है। चले जाओ। मैं लोगों को सीढ़ी की तरह उपयोग में लाता हूं, उनकी सीढ़ी नहीं बनत।’ 

    शर्म से पानी हो छुट भैया नेता अपने शहर लौट आए। अगले चुनाव के बाद बड़े नेता भी अपनी उस कोठी में न लौट पाए।

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