*प्रयागराज के पास एक जगह है श्रृंगवेरपुर, भगवान राम गंगा पार करने के लिए यहां आए थे। ऐसा वर्णन मिलता है कि यहां के तालाब में इतना शुद्ध जल था कि उन्होंने इसका जल पिया। ठीक उसी जगह एक कंस्ट्रक्शन मिला है, जिसमें हाइड्रोलिक इंजिनियरिंग तकनीक का प्रयोग हुआ है और इसका काल लगभग दो से ढाई हजार साल पुराना है।
* नदियों के आस-पास आई बाढ़ को लेकर प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों द्वारा जो इंजिनियरिंग की गई है वह असाधारण है। प्राप्त संरचना में तीन अंतःस्राव-सह-भंडारण टैंक बने हुए मिले हैं, जो 11 मीटर चौड़ी और 5 मीटर गहरी नहर से जोड़े गए हैं। इस नहर के माध्यम से गंगा से बाढ़ के पानी को निकाला जाता था। नहर का पानी सबसे पहले एक बड़े कक्ष में प्रवेश करता था जहाँ गाद इकट्ठा हो जाती थी और पानी मिट्टी से अलग हो जाता था। इस अपेक्षाकृत साफ पानी को पहले ईंट-लाइन वाले पहले टैंक में भेजा जाता था, फिर एक सीढ़ीदार इनलेट के माध्यम से दूसरे टैंक में भेजने की व्यवस्था की गई थी जो पानी को और साफ कर देता था। यह टैंक क्षेत्र में जल आपूर्ति का प्राथमिक स्रोत था।
इसके बाद, पानी एक तीसरे गोलाकार टैंक तक जाता था, जिसमें एक विस्तृत सीढ़ी थी। एक बड़ा बांध जहां अपशिष्ट पदार्थ रुक जाता था जिसमें सात स्पिल चैनल, एक शिखर और एक अंतिम निकास शामिल था, निर्मित मिला जिससे अतिरिक्त पानी वापस गंगा में बहा दिया जाता था। पानी के नियमन की इतनी बेहतरीन व्यवस्था धौलावीरा में भी देखने को मिलती है। रुद्रदामन का गिरनार अभिलेख सुदर्शन झील की मरम्मत की सूचना देता है, जो लगभग बाइस सौ वर्ष पूर्व की बात है। जल नियामक तकनीक का विकास एका-एक नहीं हो गया होगा। बाकायदा इसके लिए प्रशिक्षण शिक्षण की कोई न कोई संस्था रही होगी जहां इसके बारे में सिखाया-पढ़ाया जाता होगा। वर्तमान में जल संयत्र श्रृंगवेरपुर के मुकाबले बड़े ही दोयम दर्जे के हैं। पानी को साफ नहीं कर पाते और बाढ़ के समय या मानसूनी वर्षा के अधिक होने के कारण जलभराव चारों ओर दिखता है। सामूहिक चेतना का उच्च होना और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कृतज्ञ भाव अतीत से वर्तमान को पृथक करता है शायद।