अग्नि आलोक
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हुनर

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आशा नाम की वह औरत हमारे पड़ोस में रहती थी। उम्र रही होगी यही कोई पचास-पचपन साल। वह अपने वैधव्य के लगभग बीस साल पूरे कर चुकी थी। वह निर्लिप्त भाव से सारा दिन काम में लगी रहती। मैंने उसे कभी हँसते नहीं देखा था। गाँव था, पड़ोसी एक दूसरे के घरों में बेरोकटोक आते-जाते थे। मैं भी उस घर में ख़ूब जाता था। कई बार मैंने ऐसे-ऐसे प्रसंग सुनाए कि उसकी बूढ़ी सास हँस-हँसकर दोहरी हो गई, पर वह हमेशा पत्थर ही बनी रही। उसकी विवाहित बेटी अगर आई हुई होती तो वह भी हँसती, पर आशा भाभी पर कोई असर नहीं होता। एक दिन मैंने उससे पूछा,”क्या आपकी हँसी गुम हो चुकी है?”   

      “हालात बेशक औरत को पत्थर कर दें, पर उसके होठों की हँसी गुम नहीं होती। हम औरतों को अपनी हँसी को सात तालों में बन्द करके छुपा देने का हुनर आता है।” भाभी ने कहा।          कुछ साल और बीत गए। सब कुछ पहले की तरह चलता रहा। एक दिन अच्छी बारिश हो रही थी।

मैं छत पर बारिश में नहा रहा था कि मेरी नज़र अचानक भाभी के आँगन की तरफ़ चली गई। मैंने देखा, वह बरामदे में लाल दुपट्टा सर पर रखे रो रही थी। मैं थोड़ा ओट में हो गया ताकि वह मुझे देख न ले। कुछ देर रोने के बाद वह उठी और दुपट्टा लहराते हुए बाहर बारिश में भीगने लगी। वह भीग रही थी और लगातार हँसती जा रही थी। तो भाभी ने अपनी हँसी को आँसुओं की तलहटी में छुपाकर रखा हुआ था!! सच ही कहती थी भाभी, औरतों को अपनी हँसी को छुपाने का हुनर आता है।     

      – हरभगवान चावला,सिरसा,हरियाणा 

संकलन-निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र

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