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…तो शायद नहीं होता भारत का बंटवारा…

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जब आज़ादी का समझौता हुआ तो पूरे देश में खुशी का माहौल था और सभी लोग आजादी की मांग में एकजुट थे। हम खुश थे लेकिन हमें तब नहीं पता था कि हमारी खुशी क्षणिक थी और बड़ी निराशा हमारा इंतजार कर रही है।

आकार पटेल

काउंटरफैक्टुअल या प्रतितथ्यात्मक का अर्थ होता है किसी ऐसी चीज के बारे में सोचना जो हो सकती थी लेकिन नहीं हुई। मसलन ऐसे अलग तरह के संविधान के बारे में सोचने का अवसर है, जिसे भारत ने नहीं चुना।जैसा कि 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अबुल कलाम आज़ाद ने कहा था कि अविभाजित भारत का संविधान ‘प्रकृति से संघीय होना चाहिए।’ उन्होंने स्पष्ट किया था कि इसका मतलब यह है कि इसे राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखते हुए ‘जितने संभव हों उतने विषयों’ में प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता देने के लिए तैयार किया जाना चाहिए।

ऐसा करने से उस मूल समस्या का समाधान हो जाता, जिसके बारे में आज़ाद का मानना ​​था कि यह स्वतंत्रता नहीं थी। चूंकि 1946 में ऐसा मान तो लिया गया था, लेकिन बात सिर्फ समझौते की थी, और मुसलमान इस बात को लेकर चिंतित थे कि स्वतंत्र भारत में क्या कुछ होगा।

संघवाद का मतलब होगा प्रांतों को स्वायत्तता देना और संघीय सरकार का रक्षा, विदेशी मामलों और संचार पर अनिवार्य नियंत्रण होना। इनके अलावा शासन का जो हिस्सा बचा रहेगा, वह प्रांतों के पास रहेगा, सिवाय उनके जिन्हें आपसी सहमति से दोनों के बीच साझा किया जा सकता है। आज़ाद ने लिखा कि भारत अलग-अलग प्रांतों में एकरूप इकाइयों वाला देश है और इस तरह उका विचार स्वाभाविक लगता है। वैसे उन्होंने इस बारे में कांग्रेस में दूसरे लोगों के साथ चर्चा नहीं की था, क्योंकि उनका कहना था कि अध्यक्ष के तौर पर उन्हें ‘पूरी शक्तियां’ या अधिकार हासिल थे।

उन्होंने शनिवार 6 अप्रैल, 1946 को कैबिनेट मिशन से मुलाकात की और फिर अगले शुक्रवार, 12 तारीख को कांग्रेस कार्यसमिति को इसकी जानकारी दी। यहां वे लिखते हैं कि वे उन्हें अपनी योजना की दृढ़ता के बारे में समझाने में सफल रहे, खासकर गांधी जी को, जिन्होंने इस पर अपनी ‘पूरी सहमति व्यक्त की’।

सरदार पटेल ने इस बैठक में पूछा कि वित्त और मुद्रा जैसी चीज़ों का क्या होगा। आज़ाद की ओर से जवाब देते हुए गांधी ने कहा कि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि प्रांत ऐसी चीज़ों में एकीकृत नीति नहीं चाहेंगे। नेहरू का इस पर क्या विचार था, आज़ाद ने अपनी किताब में यह दर्ज नहीं किया है।

जाहिर तौर पर पार्टी का समर्थन मिलने के बाद, आज़ाद ने तीन दिन बाद, 15 अप्रैल को एक बयान जारी किया। बयान के अधिकांश भाग में, उन्होंने पाकिस्तान के आह्वान को खारिज करने का प्रयास किया, जिसमें उन्होंने उन खामियों की तरफ इशारा किया जो उन्हें इसमें नज़र आती थी। अंत में, उन्होंने कहा कि वे कांग्रेस को अपना फॉर्मूला स्वीकार कराने में सफल रहे हैं, जो ‘पाकिस्तान योजना की जो भी खूबियां हैं, उन्हें तो सुरक्षित रखता है जबकि इसकी कमियों और खामियों को दूर करता है।

उन्होंने प्रांतीय स्वायत्तता की अपनी योजना के ज़रिए मुस्लिम बहुल इलाकों की उन चिंताओं को दूर या जो हिंदुओं के वर्चस्व वाले केंद्र के संभावित दखल को लेकर थीं। इस योजना में विषयों की दो सूचियां थीं, एक अनिवार्य रूप से केंद्र के पास और दूसरी वैकल्पिक थी, जिसे प्रांत अपनी इच्छा से केंद्र को देने का विकल्प चुन सकता था। मुस्लिम बहुल प्रांतों को स्वायत्तता दी गई थी, साथ ही यह विकल्प भी था कि वे उन मुद्दों पर प्रभाव भी बनाए रखेंगे जो पूरे भारत को प्रभावित करते हैं।

उन्होंने चेतावनी दी थी कि एकात्मक राज्य और दो राज्यों का समाधान ( यूनिटरी स्टेट और टू स्टोर ) दोनों ही कामयाब नहीं होंगे, क्योंकि विभाजित भारत में बहुत अधिक मुसलमान रह जाएंगे, और उनकी बात और भी कम सुनी जाएगी। आजाद ने लिखा है, ‘मैं उन लोगों में से हूं जो सांप्रदायिक कटुता और मतभेदों के वर्तमान अध्याय को भारतीय जीवन का एक क्षणिक चरण मानते हैं।’

कैबिनेट मिशन की योजना जिसे अंग्रेजों ने एक महीने बाद 16 मई को जारी किया, वह आज़ाद की योजना से बहुत अलग नहीं था, सिवाय एक बात के। प्रांत या राज्य के स्तर पर स्वायत्तता के बजाय, यह क्षेत्र के स्तर पर थी। स्थानीय बहुमत को दिखाने के लिए भारत को तीन भागों (आज के पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश के साथ) में विभाजित किया जाएगा, और इन तीन भागों को केंद्र के अधीन प्रांतीय स्वायत्तता हासिल होगी। केंद्र को मिली शक्तियों को छोड़कर रियासतों की स्वायत्तता बरकरार रहेगी।

आज़ाद का मानना ​​था कि कांग्रेस को यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए। वे लिखते हैं कि जिन्ना शुरू में तो इसके खिलाफ़ थे, क्योंकि वे पाकिस्तान की मांग को लेकर बहुत आगे निकल गए थे। लेकिन उन्हें लगा कि वे प्रस्तावित शर्तों से बेहतर शर्तों पर बातचीत नहीं कर सकते और मुस्लिम लीग परिषद ने उनकी सलाह पर कैबिनेट मिशन योजना के पक्ष में मतदान किया।

16 जून को कांग्रेस कार्यसमिति ने भी इस योजना का समर्थन किया। आज़ाद ने लिखा: ‘कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों द्वारा कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करना भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक शानदार घटना थी। इसका मतलब था कि भारतीय स्वतंत्रता का कठिन सवाल बातचीत और समझौते से सुलझाया गया था, न कि हिंसा और संघर्ष के तरीकों से। ऐसा भी लगा कि सांप्रदायिक चिंताएं और कठिनाइयां आखिरकार पीछे छूट गई हैं। पूरे देश में खुशी का माहौल था और सभी लोग आजादी की मांग में एकजुट थे। हम खुश थे लेकिन हमें तब नहीं पता था कि हमारी खुशी क्षणिक थी और बड़ी निराशा हमारा इंतजार कर रही है। 7 जुलाई को एआईसीसी ने इस पर मुहर लगा दी थी।

इसी महीने कांग्रेस अध्यक्ष पद का सवाल भी उठा। आज़ाद 1939 में एक साल के लिए चुने गए थे, लेकिन 1946 तक वे डिफ़ॉल्ट रूप से पद पर बने रहे, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उसके नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। उन्होंने चुनाव न लड़ने और पटेल के बजाय नेहरू का समर्थन करने का फैसला किया, यह एक ऐसा फैसला था जिसका उन्हें बाद में पछतावा हुआ। पटेल उनकी योजना को पूरा करने में सफल रहे, जबकि आज़ाद के अनुसार नेहरू ने जिन्ना को इसे विफल करने का मौका दिया।

10 जुलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में नेहरू ने कहा कि कांग्रेस कैबिनेट मिशन की योजना से बंधी हुई नहीं है और संविधान सभा में वह जो चाहे कर सकती है,क्योंकि इसमें उसका बहुमत है। 27 जुलाई को मुस्लिम लीग काउंसिल ने जिन्ना के नेतृत्व में बैठक की और कैबिनेट मिशन योजना को खारिज करने के साथ ही पाकिस्तान की अपनी मांग दोहराई।इसके बाद क्या हुआ, हम सभी जानते हैं। अगर उस योजना को स्वीकार कर लिया जाता और अविभाजित भारत को सुरक्षित रखा जाता तो क्या होता, लेकिन कमजोर केंद्र के कारण हम कभी नहीं जान पाएंगे।

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