अग्नि आलोक
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वैदिक दर्शन : व्यावहारिक जीवन से जुड़े कुछ विचारणीय पहलू 

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       ~ डॉ. विकास मानव 

  1. पुरुष-वीर्य और स्त्री रज :

रसाद्रक्तं ततो मासं, मान्सामेदः प्रजायते।

 मेदसोsस्थि, ततो मज्जा, मज्जनः शुक्रस्य सम्भवः॥

    वैद्यक ग्रंथ भाव प्रकाश के इस श्लोक का कथन यह की हमारे खाये हुए भोजन का अन्तिम परिणाम वीर्य है। हम जो कुछ खाते हैं, उसी से क्रमशः रस, रक्त,मांस मेद अस्थि मज्जा तथा वीर्य बनता है। सातवीं और अंतिम धातु वीर्य के सात नाम हैं-

१. शुक्र । २. तेजस् । ३. रेतस्। ४. बीज। ५. वीर्य । ६. इन्द्रिय। ७. बल।

     तामसिक आहार- विहार- आचार और दुराचार से वीर्यक्षय होता है. यह अशुद्ध और रुग्ण हो जाता है. तब यह कचरा और विष समान हो जाता है. ‘शुद्ध’ वीर्य वरेण्य, पोषक है, पूज्य है, अमृत है।

   पुरुष देह में सातवीं धातु रेतस है तो स्त्रीदेह में यही रजस् है। यह भी पोषक है, अमृत है, पूज्य है लेकिन यह भी उसी तरह विकृत हो जाता है, जिस तरह वीर्य. इसलिए वीर्य-रज के दूषण से बचना आवश्यक होता है.

   2.  योनिक संबंध, संतान और मोक्ष :

रज की प्रबलता से कंन्या सन्तान उत्पन्न होती है। रेतः की प्रधान्यता से पुरुष सन्तान का जन्म होता है। दोनों की साम्यता से नपुंसक जन्मता है। दोनों की निर्बलता से सन्तान का अभाव होता है।

          रज का रेत के प्रति तथा रेत का रज की ओर सतत आकर्षण रहता है। यह स्वभाव है। इसलिये अपरिवर्तनीय है। पुरुष का रेत उसके तन-मन को आन्दोलित करता हुआ उसे स्त्री की ओर ढकेलता है। स्त्री का रज उसके तन-मन को झकझोरता हुआ उसे पुरुष की ओर ले जाता है। प्रकृतिजन्य होने से इस पर किसी का कोई वश नहीं। दोनों के तन मन प्राण चित्त इससे गम्भीर रूप से प्रभावित होते हैं। 

     भावना संवेदना चेतना स्तरीय समानता से युक्त स्वस्थ नर-नारी का यौनिक संगम मोक्ष तक का आधार बनता है.

       मोक्ष एक स्वतन्त्र शब्द न होकर यौगिक शब्द है। यह दो शब्दों मोह और क्षय का फल है। मोक्ष = मोह + क्षय. मोह के क्षयन का नाम मोक्ष है। मोह मोह का लोप क्षय, य का लोप मोह का नाश होना ही मोक्ष है। 

    संसार में ऐसा कौन है, जिसमें मोह न विद्यमान हो ? जिस शक्ति के द्वारा मोह उत्पन्न होता है अथवा जो शक्ति सबको मोहती, मुग्ध करती, आवरण डालती, विवेक हरती है, उसका नाम मोहिनी है। 

   3. पुरुष की चार्मिक सुंदरता से स्त्री अप्रभावित, स्त्री सौंदर्य पुरुष की कमजोरी :

    स्त्री चमड़ी मात्र से सुंदर पुरुष को लक्ष्य नहीं बनाती लेकिन पुरुष स्त्री की दैहिक सुंदरता पर मर-मिट जाता है.

 राक्षस तो मोहिनी पर मुग्ध हुए ही भगवान् शिव इससे बच न सके। यह कथा पुराण प्रसिद्ध है। मोहिनी नाम है स्त्री का. स्त्री ने किसको नहीं मोहा?

    मोहिनी का मोह सब को मोहपाश से बाँधता है। सामान्यतया देह का अन्त होने पर मोह का क्षय होता है। जब तक देह, तब तक मोह। अखंड प्रेमयुक्त स्वस्थ संभोग साधना इस मोहपास का जीते जी नाश कर देती है. आनंदातिरेक युगल को अर्धनारीश्वर बना देता है.

      स्त्री में ऐसी क्या वस्तु है, जो पुरुष को मोहती है ? उत्तर है- उसका सौन्दर्य। उसका श्रृंगार उसका यौवन। उसका विलास। उसका लावण्य। 

  सूत्र है : सुष्ठु उन्नति आर्दीकरोति चित्तमिति सुन्दरम्।

 सु + उन्द् (रुधादि परस्मै उनत्ति तर करना द्रवित करना, गौला करना आर्द करना) + अरम् (ऋगतौ + अच्, गति) = सुन्दर। जो हृदय को द्रवित करता, तर करता, गीला करता है तथा उसकी जड़ता का नाश कर उसे गति देता, उसमें हलचल पैदा करता है.    

     उत्तमतापूर्वक, आत्यंतिक रूप से, यथार्थतः उसे सुन्दर कहते हैं। सुतुदादि परस्मै सुवति उत्तेजित करना उकसाना + द् दिवादि दोर्यंत क्रयादि दृणाति फाड़ना चौरना विदीर्ण करना अप् = सुन्दर जो मन को उत्तेजित करता तथा हृदय को चीरते हुए उसमें भाव तरंगे पैदा करता है, वह सुन्दर है।

      सुन्दर में निहित तत्व जिससे सुन्दर होना शक्य है, को सौन्दर्य कहते हैं श्रृंगार= श्रृंग + आर = शृ क्र्यादि परस्मै शृणाति + गन् ऋगतौ + अण्। जो फाड़ता हुआ, हृदय की जड़ता को विदीर्ण करता हुआ, चोट करता हुआ चलता है, उसे श्रृंगार कहते हैं। 

     ललित वेश भूषा, कामोन्मादक मैथुन प्रेरक अंग सौष्ठव का नाम श्रृंगार है। शारीरिक सजावट को श्रृंगार माना जाता है। शरीर को वह अवस्था, जिसमें सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा पर तथा श्रृंगार अतिरुचिकर लगता है, यौवन कही जाती है। 

     रतिद्योतक हावभाव ही विलास है। जैसे लवण बिना भोजन है, वैसे लावण्य लवणीयता के बिना सौन्दर्य, श्रृंगार, यौवन, विलास । भीतर का तेज जो अपनी ओर अनायास आँखों को खींचता है, का नाम लावण्य है। जिस नारी में सौन्दर्य है, श्रृंगार है, यौवन है, विलास है, लावण्य है, वह मोहिनी है, पुरुष के चित्त को चुराने वाली है तथा अपने दैहिक वैभव की चकाचौंध में मानव विवेक की आँखों की दर्शनशक्ति छीनने वाली है।

    4. स्त्री को भोग्या समझना पतनपथ :

 स्त्री अपने को भोग्या मात्र समझे तथा पुरुष उसे केवल भोगमयी दृष्टि से देखे, उचित नहीं। आधुनिक युग में ब्राह्माण्ड सुन्दरी, विश्वसुन्दरी, राष्ट्रसुन्दरी, नगर सुन्दरी की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं। इसमें नारी के शरीर का व्यापारिक मूल्यांकन होता है। धनपशु इन नारियों को भोगते हैं।

    सुगन्ध क्या है ? नारी में लज्जा, सेवापरायणता, नम्रता, कोमलता, मृदुता, वत्सलता का होना ही सुगन्ध है। सुगन्ध के बिना नारी भोग्या होती है, पूज्या नहीं। पुरुष के भीतर नारी के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न होना चाहिये जो नारी अपने प्रति पुरुष के मन में पूज्य भाव उत्पन्न करने में समर्थ है, वह ही धन्य है। 

5. श्रृंगार का प्रभाव :

सोलह सिंगार युक्त नारी पुरुष के मन को मोह लेती है। 

चार कमलवत् पाँच तनुल, उन्नत तीन प्रकार। 

दीर्घ गहन उज्ज्वल लवण, सोलह मूल सिगार।।

कमलवत् चार अंग-कर चरण वंदन नमन।

तनुल (पतले) पाँच अंग- कण्ठ ओष्ठ रसना कटि अंगुली । 

उन्नत (उठे हुए) तीन अंग-वक्ष नासिका नितम्ब।

दीर्घ अंग- केश (वेणी)।

 गहन अंग- नाभि । 

उज्ज्वल-दन्त।

लवण अंग-त्वचा।

  इस प्रकार ४ + ५ +३+१+१+१+१ = १६ नारी के सहज श्रृंगार हैं। सामुद्रिक शास्त्र में इन १६ अंगों का कथित विशेषताओं वाला होना शुभ कहा गया है। ये नारी को स्पृहणीय बनाते हैं। विभिन्न शारीरिक अवयवों का वर्णविन्यास सुन्दर होने के लिये पूर्व निश्चित है। श्वेत कृष्ण पीत रक्त ये चार वर्ण अपेक्षित हैं। कृष्णवर्ण केश श्वेतवर्ण-दाँत पीताभ-त्वचा रक्ताभ- ओष्ठ, मसूड़ा, करतल, पादतल, नखपृष्ठ |

   समस्त सौन्दर्य श्रृंगार की केन्द्र बिन्दु आंखें होती हैं। इनमें चारों वर्णों की छटा होती है-बीचोबीच कृष्ण नील, इसके परितः पीत स्वर्णिम, इसके चारों ओर श्वेत पटल तथा इस श्वेत में रक्त धारियाँ आँखें तल, उन्नत, कमलवत्, दीर्घ, गहन, उज्ज्वल एवं लवणीय होने से पूर्ण हैं।

   सौन्दर्य की संवाहक श्रृंगार की शावक, यौवन की पादक, विलास की स्तम्भ तथा लावण्य की लता ऑंखें शोभा की खान हैं। 

    आँखों की एक भाषा है, जिसे आँखें समझती हैं। यह भाषा हर आंख से हर क्षण प्रस्फुटित होती है। भाव ही इसके शब्द हैं। इनका अर्थ बोधगम्य है, किन्तु गहन एवं अप्रकटनीय।

 6. सौंदर्य दृष्टिजनित :

      सुन्दर होने का भाव सौन्दर्य है। यह सौन्दर्य है, कहाँ ? दृश्य वस्तु में, वा द्रष्टा में ? इसका निर्णय करना कठिन है। जो सुन्दर है, वह सबके लिये सुन्दर होना चाहिये। पर ऐसा नहीं है :

मल्लानामशनिः नृणां नरवर: स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान् गोपानां स्वजन: असता क्षितिभुजां शास्ता स्वपित्रोः शिशुः।

 मृत्युभोजपतेः विरादविदुषां वृष्णीनां विराडविदुषां तत्वं परं योगिनां  परदेवतेति विदितो गतः रङ्ग साग्रजः॥

     कृष्ण को मल्ल लोग वज्र के समान कठोर शरीर वाला देखते हैं, साधारण मनुष्यों को वे नररत्न दिखायी पड़ते हैं, लियों उन्हें मूर्तिमान कामदेव के रूप में देखती हैं, गोपगण उन्हें स्वजन के रूप में देखते हैं, दुष्ट लोक उन्हें दण्ड देने वाले राजा के रूप में देखते हैं, मातापिता उन्हें शिशु रूप में देखते हैं, कंस को वे मृत्यु के रूप में दिखायी पड़ते हैं, अज्ञानियों को विराट, योगियों को परमतत्व तथा वृष्णिवंशी उन्हें अपना इष्टदेव समझ रहे हैं.

     यह है, दृष्टि का चक्कर इससे निष्कर्ष निकलता है जो सुन्दर है, वह असुन्दर भी है। एक के लिये प्रिय, दूसरे के लिये अप्रिय भी होता है। माता को अपना कुरूप बालक सुन्दर दिखता है। वास्तव में प्रेम का प्रस्फुरण सौन्दर्य का सृजन करता है।

   सुन्दरी सीता को देखकर बन्दर लोग कहते हैं :

  अस्याः शरीरं गौरं। नेत्रं दीर्घम् उन्नता नासिका, कटीकृशा, अंगानि लोमरहितानि पुच्छमेव नास्ति।

 कथं इयं सुन्दरी? इति।

    सुन्दरता, वस्तुपरक है कि दृष्टिपरक, क्या कहा जाय ? एक ही सौन्दर्य दृश्यनिष्ठ एवं द्रष्टुनिष्ठ होने से दो प्रकार का है। यह द्वैत, सत्य है। लोक में देखा जाता है, स्त्री-पुरुष परस्पर आँखों से अच्छे लगते हैं, प्रणय करते हैं, उलझते हैं, विवाह सूत्र से बँधते हैं। 

    कुछ समय बाद वे ही आपस में लड़ते झगड़ते हैं, विवाह सूत्र को तोड़ते हैं। सुन्दर असुन्दर हो जाता है। यह सांसारिक सत्य है.

     शरीर सुन्दर-असुन्दर होता है। मन सुन्दर से असुन्दर वा असुन्दर से सुन्दर नहीं होता। शरीर बूढ़ा होता है। मन कभी बूढ़ा नहीं होता। इसलिये, मन का मन से विवाह होना स्थैर्यदायक एवं सुखद होता है। शरीर का शरीर से विवाह होना अस्थिर क्षर एवं दुःखद होता है। 

   यद्यपि मन का आवास यह शरीर है, शरीर की अपेक्षा मन अधिक प्रभावशाली है। जो मनस्तत्व की उपेक्षा कर शरीर तत्व को वरीयता देता है, उसका वैवाहिक संबंध दृढ़ नहीं होता। एक समान दो मन अपरिवर्त्य होते हैं। जबकि, देह परिवर्तनशील |

7. मनो- सौंदर्य अहम :

   जो वैवाहिक विज्ञापन निकलते हैं, उनमें अंगमापकता होती है। वक्ष का घेरा, कटि की परिधि कटिप्रोथ का परिमाप, नख से शिर तक की लम्बाई तथा सम्पूर्ण देह का भार परिमाण को ध्यान में रखकर जो विवाह किया जाता है, वह उस समय चरमरा जाता है जब स्तन लटकने एवं शुष्क होने लगते हैं, कमर झुक जाती वा वातग्रस्त होती है, नितम्ब निष्पन्द हो जाता है, मुखमण्डल विवर्णता को प्राप्त होता है। शारीरिक सौष्ठव को वरीयता देने वाले पछताते हैं। 

      मानसिक सौन्दर्य को श्रेष्ठ समझ कर उसका सम्मान करने वाले कभी भी पश्चाताप नहीं करते। विवाह केवल शरीर से नहीं मन और शरीर दोनों से करना चाहिये। मन से धर्म और शरीर से कर्म को करता हुआ गृहस्थ कृतकत्य होता है।

8. दो प्रकार की पत्नियां :

१. धर्म पत्नी – जिस स्त्री के साथ गाँठ जोड़ कर पुरुष अग्नि को साक्षी रखकर उसके सात फेरे करता है, वह उसकी धर्म पत्नी है। धार्मिक कर्मकाण्डों में पुरुष इसे अपने दाहिने पार्श्व में बैठा कर यज्ञादि कर्म करता है तथा एकान्त में इसे अपने वामपार्श्व में करके उससे रतिवार्तादि करता है। 

२. भोग पत्नी- जिस स्त्री को पुरुष अपनी काम पिपासा की पूर्ति के लिये अपनी अंकशायिनी बनाता है, वह उसकी भोग पत्नी है। इसके साथ अग्नि को साक्षी रखकर विवाह करना आवश्यक नहीं है।

 भोग पत्नी को रखैल कहा जाता है। धनाढ्य लोगों के पास रखैलों की कमी नहीं होती। 

एक कहावत है :

दाल भात पर चटनी.

मेहरारू पर रखनी।

जैसे दाल भात के साथ स्वाद हेतु चटनी का स्वाद लिया जाता है, वैसे धर्म पत्नी के साथ रखैल होने से गृहस्थ जीवन स्वादिष्ट हो जाता है।

9. पत्नी की संतुष्टि आवश्यक :

      जो गृहस्थ अपनी धर्म पत्नी को तुष्ट न करते हुए भोग पत्नी का वरण करता है, उसका गृहस्थ जीवन नरक बन जाता है। सर्वत्र ऐसे उदाहरण विद्यमान हैं। जहाँ पुरुष की तरह स्त्री भी अपना जार रखती है, वहाँ झगड़ा तो नहीं होता किन्तु कुटुम्ब परंपरा नष्ट हो जाती है। इसलिये पुरुष, नारी की स्वतन्त्रता / स्वच्छन्दता पर अंकुश लगाता है। स्त्री, स्वभाव एवं परिस्थितिवश इसे तोड़ती रहती है।

     संतुष्टि की लालसा से स्त्रियाँ पुरुष को आकर्षित करने के लिये कृत्रिम श्रृंगार करती हैं। ऐसा श्रृंगार प्राकृतिक पृष्ठभूमि में होने से अच्छा है। ढलते हुए यौवन से चिन्तित स्त्रियाँ कृत्रिम सजधज से अपने को सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने की आकांक्षी होती हैं। श्वेत होते हुए केशों पर रसायन पोत कर काला करना, आंखों में काजल भर कर उन्हें निखारना, मुरझाते हुए अधारों पर लाल रंग की पर्त चढ़ाना, नाखूनों की कुरूपता को रक्तिम रसायन से ढकना, मलिन कपोलों को रसायन के प्रयोग से आरक्त करना, दुर्गन्धित देह पर सुगन्धित द्रव्यों का लेप करना, स्त्रियों के बाह्य श्रृंगार हैं। 

10. स्त्री का पूतना/सुपर्णखा होना त्रासदपूर्ण :

      भीतर के श्रृंगार के बिना बाहर का श्रृंगार व्यर्थ है। हृदय में छल-कपट का कूड़ाकर्कट भरा है और से वस्त्राभूषण की सजावट है तो परिणाम शुभ एवं सुखद कभी नहीं रहेगा। शूर्पणखा सजधज कर बाहर राम को लुभाने / प्राप्त करने आयी थी, नाक, कान और चुचूक कटवा कर गई। 

    राम हृदय के श्रृंगार पर मुग्ध होते हैं, शरीर के बाह्य श्रृंगार से नहीं। हृदय का सौन्दर्य है, श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, समर्पण, सरलता एवं सत्यनिष्ठा।

      पूतना श्रृंगार करके कृष्ण को दूध पिलाने गई थी। उसके भीतर कपट था, बुद्धि दूषित थी, प्रेम का अभाव था। फलस्वरूप मृत्यु को प्राप्त हुई जो स्त्री शूर्पणखा एवं पूतना बनेगी, उसकी मनोभिलाषा पूर्ण नहीं होगी। 

    सुन्दर विचार, सुन्दर आचार, सुन्दर भाव, सुन्दर बुद्धि का होना ही वास्तविक श्रृंगार है। मूर्ख स्त्रियाँ शूर्पणखा एवं पूतना बनती हैं। शूर्पवत् नख हैं जिसके, वह सूप समान लम्बे तीक्ष्ण नखों को धारण करने वाली ललना शूर्पणखा (सूपनखा है। राक्षसी सभ्यता के प्रचार प्रसार के परिणामस्वरूप इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। 

     सूप के समान नाखूनों से रति समर में शस्त्र का काम लेने वाली ये ललनाएँ पुरुष को नखक्षत से उत्तेजित कर, केलियुद्ध का सुख लूटती हैं ये पूतनाएँ शिशुओं को स्तनपान से वञ्चित कर, पुरुषों को काम युयुत्सु करने के लिये उसे पुष्ट एवं उठा हुआ प्रदर्शित करती हैं। इन मूर्खाओं को क्या कहा जा सकता है.

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