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कुछ लोग…

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-सुनील सुधाकर शास्त्री, द्रोणगिरि

कुछ लोग गली के श्वानों सा
संग्राम मचाए रहते हैं,
कब हो कोई निर्जीव,
गिद्ध सी दृष्टि जमाए रहते हैं।
हो अवसर कोई विसंबाद के,
बीज हमेशा बोते हैं,
खुद भूले भटके दूजों को,
सन्मार्ग दिखाते रहते हैं।।
जब भी बागों में फूलों का,
मौसम अंगड़ाई लेता है,
वो पैने शूलों के अपने,
विष दंत उगाए रहते हैं।
सामाजिकता के हत्यारे,
रहते हैं बंद मुखोटों में,
फिर भी दुनियां में अपने को,
निद्र्वद्व बताते रहते हैं।
इक बूंद ज्ञान की पाकर ही,
अमरत्व समझ इतराते हैं,
पद सत्ता में मोहित होकर,
बस पंथ बनाते रहते हैं।
छल छिद्र हजारों हैं मन में,
हैं विनयवान पर कहलाते,
लालच से लचकी कमर भले,
पर भक्त बताते रहते हैं।
है सत्य अहिंसा नारों में,
करुणा के सागर शब्दों में,
निर्बल को दूजों के बल से,
हरवक्त दबाते रहते हैं।
कुछ पढ़े लिखे मक्कार लोग,
काबिज हैं पावन पीठों पर,
कुर्वान सदाकत करते हैं,
फिर ईद मनाते रहते हैं।
ये जहां ‘सुधाकर’ समझ गया,
उन गिरगिट के सरदारों को,
जो संत पंथ की ओटो से,
व्यापार चलाते रहते हैं।।

प्रेषक-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’

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