अग्नि आलोक
script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

अपने साथ वित्तीय ‘अन्याय’ के खिलाफ दक्षिणी राज्यों का केंद्र के खिलाफ मोर्चा?

Share

सत्येंद्र रंजन 

दक्षिणी राज्यों ने अपने साथ वित्तीय ‘अन्याय’ को अब एक बड़ा मुद्दा बना दिया है। लेकिन उनकी शिकायत सुनने के बजाय ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी ने इस मसले को अपने खास प्रभाव राज्यों में राजनीतिक ध्रुवीकरण का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर राज्यसभा में हुई चर्चा का जवाब देते समय मोदी ने यह सवाल उठाने वाले दलों- खासकर कांग्रेस पर उत्तर-दक्षिण का विभाजन पैदा करने का आरोप लगा दिया।    

यह आरोप भाजपा की परिचित शैली के अनुरूप ही है। मसलन,

  • यह आम तजुर्बा है कि अगर अल्पसंख्यकों के संदर्भ में यह जाए कि उन्हें उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है या उनके साथ ज्यादती हो रही है, तो भाजपा नेता संबंधित व्यक्ति पर सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने का आरोप लगा देते हैं।
  • जब कभी मुस्लिम समुदाय के लोगों ने नागरिकता संशोधन कानून या अपने पूजा स्थलों की सुरक्षा के मुद्दे पर विरोध जताया है, तो उन्हें दंगाई करार दिया गया है।
  • अगर जातीय अत्याचार का मुद्दा उठाया जाता है, तो संबंधित व्यक्ति पर भाजपा सामाजिक सौहार्द भंग करने का इल्जाम लगा देती है।
  • अगर किसी क्षेत्र या राज्य विशेष का अधिकार उसे ना मिलने की तरफ इशारा किया जाता है, तो इसे राष्ट्रीय एकता भंग करना बताया जाता है।

मतलब यह कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा जिस रूप में बहुसंख्यकवाद, हिंदू समाज की संरचना और हिंदी भाषी इलाकों के विशेषाधिकार में यकीन करते हैं, उससे असहमत हर व्यक्ति या संगठन को वे विभाजनकारी और विध्वंसकारी बता देते हैं। उनकी सोच के मुताबिक वर्चस्व की यही मानसिकता “राष्ट्रवाद” है। इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि दक्षिणी राज्यों ने अगर वित्तीय मामलों में अपने साथ नाइंसाफी का सवाल उठाया है, तो इसे उत्तर-दक्षिण के बीच बंटवारा पैदा करने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

लेकिन ऐसे नजरिए से समस्याएं हल नहीं हो जातीं। बल्कि उससे समाज में गतिरोध बनते जाते हैं। दीर्घकाल में इसकी भारी कीमत देश को चुकानी पड़ सकती है।

बहरहाल, ताजा विवाद को देखने का एक नजरिया यह भी हो सकता था कि अगर अनेक राज्य एक साथ एक जैसी शिकायत जता रहे हैं, तो विचार किया जाए कि आखिर वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? क्या सचमुच उनकी शिकायतों में कुछ दम है?

गौर कीजिएः

  • कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया सात फरवरी कोअपने पूरे मंत्रिमंडल और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के साथ नई दिल्ली पहुंचे। इन सभी लोगों ने राजधानी स्थित जंतर-मंतर पर धरना दिया। इस मौके पर दिए गए भाषणों में उन्होंने उन तथ्यों का विस्तार से जिक्र किया, जिसकी वजह से वे ऐसा अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए मजबूर हुए।
  • आठ फरवरी को ऐसा ही मोर्चा लेकर केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन जंतर-मंतर पहुंचे। केरल की भी कमोबेश वही शिकायतें हैं, जो कर्नाटक की हैं।
  • केरल के प्रतिनिधिमंडल के दिल्ली पहुंचने से ठीक पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने विजयन को पत्र लिख कर कहा कि उनका राज्य ना सिर्फ इस लड़ाई में केरल के साथ है, बल्कि इस बारे में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका के साथ खुद को भी संबंधित करेगी।
  • कर्नाटक के कांग्रेस नेताओं ने मीडिया से कहा है कि तेलंगाना में हाल में बनी कांग्रेस सरकार भी इस मुद्दे पर विरोध जता रहे राज्यों के साथ है। दरअसल, उसकी भी वही शिकायतें हैं, जिनको लेकर विरोध जताने की पहल कर्नाटक और केरल ने की है।
  • इस घटनाक्रम के सार को समेटते हुए कर्नाटक के मंत्री प्रियांक खड़गे ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि फिलहाल दक्षिणी राज्य अलग-अलग लड़ रहे हैं, लेकिन देर-सबेर उनका साझा मोर्चा बनना तय है।
  • आंध्र प्रदेश में सत्ताधारी वाईएसआर कांग्रेस पार्टी आम तौर पर केंद्र में सत्ताधारी भाजपा के साथ तालमेल बना कर चलती है। इसलिए अभी उसने इस संघर्ष से खुद को नहीं जोड़ा है। लेकिन निकट भविष्य में यह स्थिति बदल सकती है।
  • कांग्रेस नेताओं ने कहा है कि हालांकि केरल में वे विपक्ष में हैं और उनकी सत्ताधारी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट के साथ राजनीतिक प्रतिस्पर्धा है, लेकिन केंद्र के कथित भेदभाव के मुद्दे पर वे वहां की वर्तमान सरकार का समर्थन कर रहे हैं।

तो अब बात इस बिंदु पर आती है कि इन राज्यों की शिकायतें क्या हैं?

  • इन सभी राज्यों की प्रमुख शिकायत यह है कि वर्तमान केंद्र सरकार संविधान में निहित वित्तीय संघवाद की भावना का उल्लंघन कर रही है। जीएसटी के तहत उन राज्यों से जो टैक्स वसूला जाता है, उसमें उन्हें उचित हिस्सा नहीं मिल रहा है। इससे उन्हें हर साल हजारों करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने कहा है कि इस कारण जीएसटी लागू होने के बाद से उनके राज्य को एक लाख 65 हजार करोड़ रुपए की क्षति हो चुकी है। स्टालिन का दावा है कि जीएसटी से पहले के समय की तुलना में तमिलनाडु को हर साल 20 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है। (कैसे, आगे हम इसके विस्तार में जाएंगे।)
  • केरल ने जिस एक और मामले को प्रमुखता से उठाया है, वो यह है कि केंद्र ने राज्यों के स्वंतत्र रूप से बाजार से कर्ज उठाने पर रोक लगा दी है, जिससे केरल में इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास की परियोजनाओं को आगे बढ़ाना कठिन हो गया है। यहां तक कि पेंशन जैसी सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं को जारी रख पाना भी मुश्किल होता जा रहा है। इसी मुद्दे को लेकर केरल की सरकार सुप्रीम कोर्ट गई है, जिस पर अब उसे तमिलनाडु का समर्थन भी मिल गया है।
  • एक अन्य शिकायत यह है कि केंद्र सरकार अपने बजट प्रावधानों में दक्षिणी राज्यों की उपेक्षा करती है। बीते एक फरवरी को पेश अंतरिम बजट के प्रावधानों से दक्षिणी राज्यों में असंतोष और बढ़ा है। उन प्रावधानों टिप्पणी करते हुए पर कर्नाटक से कांग्रेस के सांसद डीके सुरेश ने तो यहां तक कह दिया कि अगर केंद्र का यही रवैया रहा, तो दक्षिणी राज्यो से अलग देश बनाने की मांग उठ सकती है।(यह एक अतिवादी टिप्पणी हो सकती है, लेकिन मुद्दा यह है कि ऐसी बात एक राष्ट्रीय पार्टी के एक सांसद के मुंह से सुनी गई।)
  • एक शिकायत यह भी है कि प्राकृतिक आपदाओं के समय मदद देने में केंद्र सरकार भेदभाव कर रही है। कुछ समय पहले ऐसा आरोप केरल ने लगाया था। अब कर्नाटक ने कहा है कि इस समय राज्य भीषण सूखे का सामना कर रहा है। इसे देखते हुए उसने केंद्र से 36 हजार करोड़ रुपए की सहायता मांगी थी। इसमें 18 हजार करोड़ रुपए उसे नेशनल डिजास्टर रेस्प़न्स फोर्स के कोष से मिल सकते थे। लेकिन उसे एक भी रुपए की सहायता नहीं दी गई है। 
  • इस बीच दक्षिणी राज्यों में 2026 में संभावित लोकसभा सीटों के परिसीमन को लेकर भी आशंका गहरा गई है। उन्हें भय है कि अगर वर्तमान आबादी को इसका आधार बनाया गया, तो लोकसभा में उनके प्रतिनिधित्व का अनुपात घट जाएगा, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के प्रतिनिधित्व में भारी इजाफा होगा।

एक आकलन के मुताबिक अगर 2011 की जनगणना के आधार पर परिसीमन 543 सीटों के अंदर ही किया जाता है, तो लोकसभा में उत्तर प्रदेश की सीटें 80 से बढ़ कर 91, और बिहार की 40 से बढ़ कर 50 हो जाएंगी। राजस्थान के छह और मध्य प्रदेश के चार सांसद बढ़ जाएंगे। जबकि आंध्र प्रदेश+तेलंगाना, तमिलनाडु और केरल के आठ-आठ सांसद घट जाएंगे। कर्नाटक का भी लोकसभा में प्रतिनिधित्व 28 से घटकर 26 रह जाएगा।

लेकिन अगर जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा की सीटें बढ़ा कर 848 करने का फैसला होता है, तब आंध्र प्रदेश+तेलंगाना के सांसदों की संख्या में 12, तमिलनाडु की 10 और कर्नाटक के सांसदों की संख्या में 13 की बढ़ोतरी होगी। मगर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश के लोकसभा सदस्यों की संख्या में क्रमशः 63, 39, 25 और 23 की बढ़ोतरी होगी। यानी इस रूप में भी हिंदी भाषी राज्यों का राजनीतिक वजन बढ़ेगा।  

  • दक्षिणी राज्यों का कहना है कि ऐसा होने का मतलब यह होगा कि उन्हें बेहतर विकास करने और जनसंख्या वृद्धि पर काबू पाने की सजा मिलेगी। जबकि विकास के पैमाने पर खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों को लाभ होगा।

अब हम वित्तीय संघवाद के उल्लंघन और ऋण संबंधी पाबंदी से जुड़े मसले की थोड़े विस्तार से पड़ताल करते हैं।पहले वित्तीय संघवाद से जुड़े मुद्दे को लेते हैं।

यहां यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि दक्षिणी राज्य औद्योगिक रूप से अपेक्षाकृत विकसित हैं और इस लिहाज से वे उत्पादक राज्यों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष और परोक्ष करों में योगदान के मामले में उनका योगदान उन राज्यों से अधिक है, जिन्हें उपभोक्ता राज्यों की श्रेणी में रखा जाता है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के तहत केंद्र सरकार सभी राज्यों से टैक्स वसूलती है और फिर राज्यों का हिस्सा उन्हें दिया जाता है। केंद्र का तर्क है कि वह ये हस्तांतरण वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप करती है। लेकिन दक्षिण राज्यों का कहना है कि केंद्र ने 14वें और 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों का उल्लंघन किया है। नतीजा यह हुआ है कि केंद्र से उन्हें मिलने टैक्स के हिस्से में गिरावट आती गई है। मीडिया में छपी रिपोर्टों में केंद्रीय बजट दस्तावेजों के हवाले से बताया गया हैः

  • आंध्र प्रदेश को 2014-15 में कुल उगाहे गए टैक्स में से 4.40 प्रतिशत हिस्सा मिला था। 2024-25 में यह हिस्सा 4 प्रतिशत रह जाएगा।
  • तेलंगाना के मामले में ये आंकड़े क्रमशः 3 और 2 प्रतिशत हैं।
  • इस अवधि में कर्नाटक को मिला हिस्सा 5 से गिर कर 3.5 प्रतिशत आ गया है।
  • केरल का हिस्सा 2.6 से गिर कर 1.8 प्रतिशत रह गया है।
  • तमिलनाडु का हिस्सा6 फीसदी से गिर कर 3.5 प्रतिशत रह गया है।
  • इन पांचों राज्यों के साझा हिस्से की बात करें, तो 18.62 से गिरकर 15.8 प्रतिशत रह गया है।

अब इन आंकड़ों पर भी गौर करेः

  • तमिलनाडु कुल टैक्स उगाही में जितना योगदान करता है, उसे उसमें से 29 प्रतिशत ही वापस मिलता है।
  • जबकि उत्तर प्रदेशजितना योगदान करता है, उसे हर एक रुपए के बदले 2 रु. 73 पैसे केंद्र से प्राप्त होते हैं।
  • मोटे तौर पर ऐसा अंतर तमाम उत्पादक और उपभोक्ता राज्यों के बीच है। उत्पादक राज्यों में महाराष्ट्र भी शामिल है।

तो इस मुद्दे पर बहस छिड़ना लाजिमी ही है। तमिलनाडु के मंत्री पी त्याग राजन ने तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश की विकास यात्राओं का एक विस्तृत विश्लेषण पेश किया है। इसमें उन्होंने दावा किया है कि केंद्र से बड़ी रकम मिलने के बावजूद उत्तर प्रदेश विकास यात्रा में पिछड़ता जा रहा है। (Has Uttar Pradesh’s economy surpassed Tamil Nadu? – Frontline (thehindu.com)). इस तरह दलील यह दी गई है कि टैक्स हस्तांतरण का मौजूदा ढांचा विकास को दंडित और पिछड़ेपन को पुरस्कृत कर रहा है।

जहां तक ऋण के का सवाल है, तो केरल सरकार का कहना है कि केंद्र ने उस पर “वित्तीय प्रतिबंध” लगा दिए हैं।ऐसा Net Borrowing Ceiling (NBC) के प्रावधान के जरिए किया गया है। इसके तहत ना सिर्फ राज्य के बाजार से कर्ज लेने पर रोक लगा दी है, बल्कि राज्य के तहत आने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर भी यह रोक लागू कर दी गई है। केरल का दावा है कि यह कदम संविधान के अनुच्छेद 293 का उल्लंघन है, क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों पर इस अनुच्छेद के प्रावधान लागू नहीं होते।

केरल ने केंद्र के इसी कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे उठाए गए हैँ। जाहिर है कि उन मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट निर्णय देगा। लेकिन इस बीच केरल के पक्ष से सहानुभूति रखने वाले विशेषज्ञों ने कहा है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने वित्तीय संघवाद का क्रमिक रूप से क्षरण करती जा रही है। उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद नरेंद्र मोदी ने ‘Cooperative Federalism’ (सहयोगात्मक संघवाद) के रास्ते पर चलने का वादा किया था, लेकिन असल में उनकी सरकार ‘Annihilative Federalism’ (संघवाद की हत्या) के रास्ते पर चल रही है। केरल के मुख्यमंत्री पिनरायी विजयन ने कहा है कि संविधान में भारत को Union of States (राज्यों का संघ) कहा गया था, लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार ने इसे Union over States (राज्यों के ऊपर राज करने वाले संघ) बना दिया है।

मुमकिन है कि दक्षिणी राज्यों की दलील में कुछ अतिशयोक्ति हो, लेकिन निर्विवाद रूप से ये सारी गंभीर शिकायतें हैं। उचित तो यह होता कि केंद्र सरकार संवेदनशीलता दिखाती और दक्षिण से उठ रही शिकायतों को संवाद से दूर करने की कोशिश करती। लेकिन उसका नजरिया हर शिकायत को नजरअंदाज कर उस पर सियासी ध्रुवीकरण शुरू कर देने का है। फिलहाल तो सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ऐसी सोच देश के हित में नहीं है।

script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-1446391598414083" crossorigin="anonymous">

Follow us

Don't be shy, get in touch. We love meeting interesting people and making new friends.

प्रमुख खबरें

चर्चित खबरें