अग्नि आलोक
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सप्ताह की शुरुवात 10 बेहतरीन नज्मों के साथ

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जब कभी सत्ता गरीबों की बात करती है
सच मानिए बस ओछा उपहास करती है

पंद्रह रुपए का गेहूं चावल तीतरों को चूगाकर
सौ करोड़ का खुद फलाहार करती है

दस रुपए थाली का ढ़पोर शंख दिखाती कभी
तीस रुपए दीहाड़ी में रईस अवाम करती है

पकौड़े तलवाती कभी अग्निवीर बनाती है
तन से कफन नोच लाशों को नंगा करती है

पहले मोहताज बनाती है दाने दाने को फिर
पैसे पेड़ पर न उगने का विलाप करती है

मलियाना हो या गोधरा मकसद तो एक है
चुनावी फायदे के लिए नरसंहार करती है

खुद करती है अतिक्रमण घर गरीबो के तोड़कर
चमगादड़ों के लिए नवनिर्माण करती है

जिसके फूहड़ नृत्य से ऊबकर भांड बुला लाए
वह नर्तकी उस छिछोरपन पर घमंड करती है

सरल कुमार वर्मा
उन्नाव, यूपी
9695164945


राजा ने एलान किया
दस और दस का जोड़ इक्कीस होता है

कुछ लोग तुरंत सड़कों पर आ गए
राजा के समर्थन में प्रदर्शन करने लगे
राजा ने हमे सच बताया
अब तक हमे झूठ पढ़ाया जा रहा था
बहुत से लोग सड़कों पर नहीं थे
लेकिन टीवी पर इन्हें देख ताली बजा रहे थे
आपस मे बातें कर रहे थे कि देश बदल रहा है

कुछ का कहना था कि यह विवाद का विषय है
इस पर अभी और तर्क-वितर्क होना चाहिए
ऐसी जल्दी भी क्या है
आखिर सबका अपना अपना सच होता है

कुछ का कहना था कि
राजा की बातों पर क्यों जाना
आखिर वह सड़क तो बनवा ही रहा है

कुछ का कहना था कि
राजा गलत तो बोल रहा है
लेकिन अभी परिस्थियां परिपक्व नहीं है
इसलिए अभी इंतजार करना है……
तब तक दूसरे देश के राजाओं पर बात करनी है

लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे
जिन्होंने राजा को चुनौती देते हुए कहा कि
दस और दस का जोड़ हमेशा बीस ही होता है
दस और दस का जोड़ इक्कीस बोलने के पीछे राजा का निहित स्वार्थ है

राजा ने इन्हें खत्म करने का आदेश दे दिया
इन विद्रोहियों ने भी राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया
नदियां लाल हो गयी
विद्रोहियों का खून और पसीना
खेतों में, जंगलों में जज़्ब होने लगा
लेकिन युद्ध नहीं रुका

उस खून सनी मिट्टी से नए विद्रोही पैदा होने लगे

कुछ लोगों ने राजा की तरफ पीठ करके चिल्लाना शुरू कर दिया
युद्ध बन्द करो, आओ तर्क-वितर्क करो
सभा-सेमिनार में राजा के तर्कों को काटो

कुछ ने कहा
तुम्हारी बात सही है, लेकिन रास्ता गलत है
हमारे रास्ते पर आओ
परिस्थितियों के परिपक्व होने का इंतजार करो

जंगलों, खेतों से आवाज आयी,
सच कभी इंतज़ार नहीं करता
क्योकि वह सच होता है

जब सच को जलाया गया था, तब भी परिस्थितियां परिपक्व नहीं थी
लेकिन सच को जलाने से सच खत्म नहीं हुआ
वह और भी मजबूती से स्थापित हो गया
तब उस सच के लिए परिस्थितियां भी परिपक्व हो गयी
ऐसा तब भी हुआ था, ऐसा अब भी होगा

क्योंकि दस और दस का जोड़ बीस
तब भी सच था
आज भी सच है और
भविष्य में भी सच रहेगा…..

मनीष आज़ाद


आदमी तो हम सभी हैं
ग़र हम जानवरों को छोड़ दें
इन्सान बनने में अभी वक़्त लगना है
धर्म और मज़हब की
बारूदी सुरंगों से निकलना है
धर्म और मज़हब को समझना है …
यह सब तालीम से होगा
ये मुल्क के आईन से तय होगा।

प्रकाश पन्त


मजदूर गीत : आ कदम मिला

हमने बनाई इमारत, हमें क्या मिला ?
हमने सजाई दुनिया, हमें क्या मिला ?
मालिकों को मिली बेशुमार दौलत
भुखमरी के सिवा हमें क्या मिला ?

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

हमने बनाया मोटर कार, हमें क्या मिला ?
हमने चलाई रेल गाड़ी, हमें क्या मिला ?
मालिकों की बढ़ती रही पूंजी
इक ग़रीबी के सिवा हमें क्या मिला ?

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

हमेशा मालिकों ने हमें सताया
रोजी-रोटी के लिए हमें तरसाया
जब भी हमने मांगा अपना हक़
उसने पुलिस बुलाई, डंडा बरसाया

लेने अपना हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ, आ कदम मिला।

सरकारों ने सदा पूंजी का गुण गाया
उसी के फायदे में श्रम कोड लाया
सारे अधिकारों को हमसे छीन कर
हमारे गले में मौत का फंदा लगाया।

काटने फंदे को हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

मजदूरों का ऐलान, हम साथ चलें
नौजवानों का गान, हम साथ चलें
इंकलाबियों का आह्वान, हम साथ चलें
दिल्ली में फहराने लाल निशान, हम साथ चलें

कह दो लेने हक़ हमने युद्ध छेड़ दिया
मजदूर साथी उठ आ कदम मिला।

एम.जेड.एफ कबीर


हम सदियों से यूँ ही,
लड़ते, कटते, मरते रहे,
करना कुछ था नहीं, तो
धर्म और जाति की जय करते रहे,
धर्म की ध्वजा फहराते रहे,
उन्माद जाति का फैलाते रहे,
बजाते रहे मंदिरों में घंटियाँ,
गीत गाते रहे, भजन करते रहे,
जरूरत ही क्या थी शिक्षा और ज्ञान की,
वेद, उपनिषद, पुराण करते रहे,
महाभारत पढ़ लड़ते रहे,
गीता, रामायण को पूजते रहे,
मनुस्मृति से शासन चलाते रहे,
बांट दिया लोगों को वर्णों में,
किसी को मालिक बना दिया,
किसी को गुलाम बना दिया,
गुलाम कमाता रहा हाड़ तोड़,
मालिक खाता रहा लगाके होड़,
मालिक ही राजा बना और बना देवता,
वही था भगवान, वही था कमान,
वही धर्म का रखवाला था,
सबका दुख हरनेवाला था,
पर हरा कभी न किसी का दुख,
हरण किया सबका सब कुछ,
गरीबी, गुलामी और दिया भूख,
गुलाम मजदूरों ने ही तो बनाए,
उनके महल और रंगमहल,
अट्टालिकाएं और चहल-पहल,
हमें मिली मड़ैया और मिले जंगल,
फिर छीन लिए जंगल और जमीन भी,
खुद ही मालिक थे, खुद ही थे अमीन भी,
हमें डरवाया, बंटवाया, लूटवाया,
हमें खुद ही काटा और कटवाया,
छीन लिया हमसे हमारी औरतों को,
सजा लिए अपने रनिवास,
पहने अजबगजब के लिबास,
न्याय की देवी बन न्याय को तौलते रहे,
धर्म की जय, धर्म की जय बोलते रहे,
रख लिए सारे सुख अपने पलड़े पर,
और धर दिए दुख ही दुख हमारे पलड़े पर,
राजा से बढ़कर नेता हो गए,
न जाने क्या से क्या हो गए,
बदलते रहे अपनी ही किस्मत को,
लूटते रहे हमारी ही अस्मत को,
भगवान बदलते रहे उनके भाग्य को,
और धरते रहे हमारे माथे पर दुर्भाग्य को,
जिंदगी भर पत्थरों को पूजते रहे,
पेट खातिर जिंदगी भर जुझते रहे,
अब टूट गया भरम भी भगवान का,
भगवान नहीं, वह रूप है शैतान का,
हम नाहक ही पत्थरों से डरते रहे,
पूजारी जो जो कहा करते रहे,
इन सबको होगा अब लतियाना,
लातों के भूत बातों से नहीं मानते,
हमारी ताकत नहीं पहचानते,
तोड़ देंगे हम इनकी भी कलाई,
देखें कैसे खाते है अब ये मलाई,
हम अपनी दुनिया, अपना घर बनाएंगे,
नया विहान लाएंगे,सबको गले लगाएंगे,
हम भी हंसेगें, हम भी गाएंगे.

राम अयोध्या सिंह


बेरोजगार युवा की कहानी

वह चोरी नहीं करता, डकैती नहीं डालता
वह तस्करी नहीं करता, फरेबी नहीं करता
वह हत्याएं नहीं करता, दंगे नहीं करवाता
वह धोखा नहीं देता, झूठे वादे नहीं करता

फिर भी शर्मिंदगी से जमीन में धंस जाता है वो
जब कोई पूछ दे कि क्या कर रहे हो आजकल!

देवी प्रसाद मिश्र से प्रेरित

अनुपम


कौन हूं मैं ?

हिंदू कहते मुस्लिम हूं मैं
मुस्लिम कहते हिंदू हूं मैं
धर्म की रस्साकसी में
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

कभी मंदिर जाकर चंदन टीका लगाता हूं
कभी मस्जिद जाकर काबे रुख़ शीश झुकाता हूं
गुरुद्वारा में गुरुबाणी, चर्च में बाईबल पढ़ता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

मजारों की शिरनी, देवालय की प्रसादी
छठ के घाट, मुहर्रम की लाठी
इन सबको स्वीकार करता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

जब होता है किसी नारी से दुराचार
हत्या, बलात्कार का सुनता हूं समाचार
बिन जाने उसका धर्म क्रोधित हो जाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

जब बाढ़ पीड़ितों की भुखमरी देखता हूं
खुले आसमान में बेबस सोते देखता हूं
मददगार की टोली में शामिल हो जाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

कहीं खेत जोतकर फसल उगाता हूं
कहीं बनकर हथौड़ा इमारत बनाता हूं
थामकर कलम बच्चों को पढ़ाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

किसानों की व्यथा रुलाती है हमें
मजदूरों की पीड़ा सताती है हमें
पुरानी पेंशन की मांग पर अड़ जाता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

हक़-अधिकार की हर जंग में
विरोध-प्रतिरोध के हर तरंग में
मुट्ठी बांध हवा में हाथ को लहराता हूं मैं
बारंबार लोग पुछते कौन हूं मैं।

मरुस्थल का आब हूं मैं
आंदोलनों का सैलाब हूं मैं
इक मुकम्मल इंक़लाब हूं मैं
फिर भी लोग पुछते कौन हूं मैं।

एम.जेड.एफ कबीर


यहां सब किरायेदार है नहीं कोई मकान वाला
जायेगा खाली हाथ हो कैसी भी शान वाला

खाता है जीने को कोई जिन्दा है खाने को
खाने का मोल तोल ही करता शमशान वाला

आयेंगे रहनुमा और भी एक से एक आला
आये न शायद फेंकने ऊंची उड़ान वाला

करते हैं गुजर जिंदगी जीते कहां है लोग
घुटने पर भी चलता है कोई स्वाभिमान वाला

मंदिर मस्जिद के बाहर रहता मांगने वाला
अंदर जाता है वो जो हो दाता दान वाला

काश होता कोई देश में सबको संवारने वाला
“सरल” कभी तो आयेगा सियासी ईमान वाला

सरल कुमार वर्मा
उन्नाव, यूपी
9695164945


हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई।
मज़दूरन की करें पिटाई।
एससी, एसटी, बीसी भाई।
कहैं लट्ठ हमहूं का चाही।
हम काहे पीछे रहि जाई।
दस नेता हमहू बनवाई।
भले नून रोटी हम खाई।
उनका माल पुवा खिलवाई।
उनकी जम-जयकार कराई।
फिर उनसे जुतिआए जाई।।

बोल पूंजी मैया की जय…!
उनहुन की क्षय, हमरी भी क्षय..!!

सन्तोष परिवर्तक


कैसे चुप रहें, कबतक चुप रहें,
क्या चुल्लू भर पानी में डूब मरें,
जिंदगी और जान अभी बाकी है,
आन और शान अभी बाकी है,
क्यों और कबतक डरूँ मौत से,
क्या डरने से मौत भाग जाएगी,
कहो तो कहीं छुप जाऊँ,
क्या छुपने से मेरे पास नहीं आएगी,
तुम हमें क्यों नहीं सोचने देते,
क्यों नहीं कुछ करने देते,
क्या दिक्कत है हमारे बोलने से,
क्यों डरते हो हमारे सोचने से,
क्या अंधा बन जाऊं आंख रहते,
गूंगा बना रहूँ सब कुछ सहते,
क्या हम आदमी नहीं,
क्या आदम की संतान नहीं,
हमारे तन में दिमाग भी है,
दिल, जज्बे और अरमान भी हैं,
क्या दिल हमारा धड़कता नहीं,
क्या मेरा सीना फड़कता नहीं,
हमें भी खुशी होती है, दर्द होता है,
जानते हैं हम, क्या गर्म, क्या सर्द होता है,
हम कोई गुलाम तो नहीं,
हम अंधे और बहरे तो नहीं,
जख्म हमारे कोई कम गहरे तो नहीं,
नहीं, हम चुप नहीं रहेंगे,
हम अब अत्याचार नही सहेंगे,
हमें बोलना आता है,
हमें लड़ना भी आता है,
हम लड़ेंगे अंतिम दम तक,
जबतक मंजिल आ न जाए हम तक.

राम अयोध्या सिंह

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