~ सुधा सिंह
भौतिकवादी दृष्टि से विकसित पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौध में मानव समाज अहर्निश अन्तः एवं बाह्य तनावों एवं दुश्चिन्ताओं के कारण अनेक मानसिक एवं शारीरिक रोगों का शिकार होता जा रहा है। इसलिए मानव वैज्ञानिकों ने इस युग को चिन्ता का युग (Age of anxiety) कहा है। सचमुच मानसिक तनाव एक विश्वव्यापी समस्या है।
अति महत्त्वाकांक्षाएँ, अनिश्चित जीवन तथा आस्थाहीनता आदि कारणों से वर्तमान में मनोरोग बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की शाखाभूत मनोरोग चिकित्सा विधि (Psychiatry) की उपचार सीमाएँ बहुत ही सीमित हैं, साथ ही निरापद भी नहीं है, अतः मनोरुग्णों का स्वाभाविक आकर्षण आयुर्वेद के प्रति हो रहा है।
दुर्भाग्य से आयुर्वेद में एक स्थान पर कोई विषय परिपूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है। वस्तुतः यह आयुर्वेद की वर्णन शैली की विशिष्टता है कि भिन्न-भिन्न विषयों के भिन्न-भिन्न अंश भिन्न-भिन्न स्थानों पर यथा प्रसंग वर्णित किये गये है।
एक विषय की बातें एक ही स्थान पर संगृहीत कर लिखे ग्रन्थों को पढ़ने के अभ्यासी आयुर्वेद स्नातक इसीलिए मूल आयुर्वेद ग्रन्थों के अध्ययन के प्रति उदासीन हो रहे हैं।
क्षमन या मानस रोगों की चर्चा में सहसा ही कह दिया जाता है कि आयुर्वेद में इनका बड़ा संक्षिप्त वर्णन है, जबकि वस्तुस्थिति सर्वथा भिन्न है। मन और मानस रोगों के सन्दर्भ में आयुर्वेद में व्यापक, व्यवस्थित, विवेकपूर्ण, विवेचनात्मक, व्यवहार्य वर्णन उपलब्ध है। वास्तविकता इतनी जरूर है कि वह ज्ञान विकीर्ण रूप में है।
सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त माना जाने वाला मन सम्पूर्ण आयुर्वेद वाङ्मय में व्याप्त है। आयुर्वेदशास्त्र के नियन्त्रक सिद्धान्तों, सृष्टि, शरीर, स्वस्थता, रोग-कारण, रोगी- परीक्षा, उपचार विधि, चिकित्सा, चिकित्सा का परिणाम तथा मोक्ष आदि में मन की अहं भूमिका मानी गयी है। इन प्रसंगों में मन का महत्त्व स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त है।
आयुर्वेद = आयुः+ वेद; इन दो शब्दों से आयुर्वेद शब्द की निष्पत्ति हुई है। आयु की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि शरीर, इन्द्रिय, सत्त्व, आत्मा का संयोग ही आयु है।
शरीरेन्द्रियसत्त्वात्मसंयोगो धारि जीवितम्।
नित्यगश्चानुबन्धश्च पर्यायैरायुरुच्यते।।
~चरक संहिता (1/2)
यहाँ मन का संयोग एक अनिवार्य तत्त्व है। वस्तुतः मन का संयोग ही जीवन की, आयु की सार्थकता है। ‘विद् ज्ञाने’, धातु से वेद शब्द निष्पन्न है। ज्ञान का होना या न होना मन पर आधारित है। मन के संयोग से ज्ञान होता है और संयोग न होने पर ज्ञान नहीं होता है।
लक्षणं मनसी ज्ञानस्याभाव भाव एव च ।।”
(च. सं. 1/18)
इस प्रकार ‘आयुर्वेद’ संज्ञा में प्रयुक्त दोनों शब्दों-आयु और वेद में मन अनुमाणित है, व्याप्त है। मनस्वी ऋषियों का परदुःख से कातर होकर उनके दुःखों की निवृत्ति का उपाय सोचना और परिणामस्वरूप आयुर्वेद का अवतरण होना- चरक संहिता में वर्णित इस प्रसंग में भी परदुःख से दुःखी होना यह मन की भूमिका है।
सृष्टि – भारतीय मान्यता के अनुसार ईश्वर की ‘एकोऽहं बहुस्याम’ अर्थात् में अकेला बहुत रूपों में हो जाऊं, यह इच्छा सम्पूर्ण सृष्टि का मूल है। इच्छा होना मन का धर्म है। सांख्यदर्शन से प्रभावित आयुर्वेद का सृष्टि-क्रम सत्व, रज, तम को अखिल विश्व के मूल उत्पादक अव्यक्त में अनुप्राणित मानता है :
सर्वभूतानां कारणमकारणं सत्त्वरजस्तमोल क्षणमष्टरूपमखिलस्य जगतः सम्भव- हेतुरव्यक्तं नाम।
(सुश्रुत : 1/3)
आगे विविध अहंकार के तो स्पष्टतः सात्विक, राजस, तामस रूप स्वीकृत हैं। ये सूक्ष्म मन के सूक्ष्मतम तत्त्व है (तन्मात्राओं की तरह) जो बाद में क्रमश: अभिव्यक्त होते हैं। यही कारण है कि स्कूल सृष्टि इन मानस गुणों से रंचमात्र भी असम्पृक्त नहीं है, अर्थात् सर्वत्र ही इनकी व्यापकता है। क्योंकि मूलतत्व से बाद का बृहद रूप पृथक नहीं हो सकता है।
द्रव्य मन- आयुर्वेद शास्त्र ने मन को द्रव्य माना है।
खादीन्यात्मा मनः कालो दिशश्च द्रव्यसंग्रह।
(च. सं . 1/48)
यह एक क्रान्तिकारी विचार है। मन को मात्र क्रियात्मक मानने वाले मनोवैज्ञानिक भी आयुर्वेद के इस विचार से सहमत हो रहे हैं। चिकित्सा की दृष्टि से मन को द्रव्य मानना उचित एवं तर्कसंगत ही है। द्रव्य ही गुण एवं कर्म का अधिष्ठान है।
यत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायि यत् तद् द्रव्यम्।